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महत्वपूर्ण लेख संपादकीय

तो क्या इतिहास मिट जाने दें, अध्याय 5, घर वापसी’ से पहले ‘घर चौकसी’

सोशल मीडिया पर ‘हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान’ के शुभचिंतकों की अच्छी बहस होती देखी जाती है। उनमें से कई ऐसे भी होते हैं जो भारत के प्रधानमंत्री श्री मोदी और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जी महाराज को भी यह कहकर कोसते मिलते हैं कि इन दोनों ने भी ‘हिंदुत्व’ के लिए कुछ नहीं किया।
कई लोग हैं जो इस प्रकार की मान्यता के हैं कि यदि प्रधानमंत्री मोदी एक संप्रदाय विशेष के लोगों को उठाकर समुद्र में फिकवा दें तो ही वे मानेंगे कि देश में सचमुच हिंदुत्व की रक्षा हो रही है। वह नहीं जानते कि इस प्रकार की आग लगाने वाली नीति का परिणाम क्या होता है ? वह यह भी नहीं जानते कि प्रधानमंत्री मोदी इस प्रकार की उग्र नीति का पक्षधर दिखाकर अपने आपको कभी भी हिटलर के रूप में इतिहास में स्थान दिलाना नहीं चाहेंगे। बहुत से ऐसे उपाय हैं जिनको अपनाकर भी हम देश विरोधी और समाज विरोधी लोगों की मानसिकता को ठीक कर सकते हैं। राष्ट्र निर्माण के लिए सोच को ठीक करने की ही आवश्यकता होती है। किसी भी संप्रदाय विशेष को समूल समाप्त करना ना तो कभी संभव होता है और ना ही उचित होता है। उपचार सदा ही सोच का होता है । जब सोच विकृत हो जाती है तो उसी को सही स्थान पर लाने की आवश्यकता होती है। जब व्यक्ति की नाभि टहल जाए तो अच्छा वैद्य उसे सही स्थान पर लाकर रोगी को स्वस्थ कर देता है, बस , यही बात हमें देश और समाज के संदर्भ में समझनी चाहिए।

नाभि टहले पेट की, करे वैद्य उपचार।
यही हकीम का काम है, देश होय बीमार।।

अब बात हिंदुत्व की ही करते हैं। हिंदुत्व इस देश की उस मौलिक चेतना का नाम है जो वर्तमान में वेदों की पावन वैदिक संस्कृति का ध्वज वाहक माना जाना चाहिए। यदि हिंदुत्व एक जीवन शैली है तो यह जीवन शैली वेदों की आदर्श सांस्कृतिक परंपराओं पर ही आधारित है। जिनमें मद्यपान न करना, जुआ न खेलना, मांसाहार न करना, प्रातः काल संध्या – हवन करना, झूठ , चालाकी ,छल ,फरेब आदि से दूर रहना, अष्टांग योग को अपना कर मोक्ष पद के लिए उचित साधना करना आदि सम्मिलित हैं। इन सारी बातों को अपना कर एक आदर्श जीवन प्रणाली हमारे पूर्वजों ने विकसित की। इन मानवीय मूल्यों को अपना कर सचमुच हमारे पूर्वजों ने एक मानव समाज स्थापित किया।
संसार के अन्य देश जब पशुओं की भांति कबीले बना बनाकर एक दूसरे का अस्तित्व मिटाने के लिए खूनी लड़ाई लड़ रहे थे तब अज्ञान और अविद्या के वशीभूत हुए उन दानव लोगों को भी भारत ही मानवता का पाठ पढ़ा रहा था। आज उन दानव लोगों के इतिहास की गति प्रगति पर अनुसंधान कर जो लोग हमें इतिहास की विकास की प्रक्रिया का पाठ पढ़ाते हैं, उन्हें भारत के बारे में यह समझना चाहिए कि जब भारत से किसी भी कारण से इन देशों के लोगों का संपर्क टूट गया तो वहां पर इस प्रकार की पाशविक अपसंस्कृति का विकास हुआ।

मुस्लिम तुष्टिकरण और गंगा जमुनी तहजीब

  इन सब आदर्शवादी सिद्धांतों ,मान्यताओं और सांस्कृतिक परंपराओं का ध्वस्तीकरण निसंदेह इस्लाम को मानने वाले लोगों के द्वारा और देश की स्वाधीनता के पश्चात बनी कांग्रेसी सरकारों की नीतियों के द्वारा देश में ‘गंगा जमुनी संस्कृति’ के माध्यम से किया गया। देश में शराब पीने के लिए नई पीढ़ी को प्रोत्साहित किया गया और इसके लिए खुले ठेके दिए गए। इसके साथ-साथ देश बर्बाद करने के लिए केंद्र में एक मंत्रालय भी स्थापित किया गया। लॉटरी के माध्यम से लोगों को जुआ खेलने भी सिखाया गया। यौन शिक्षा के नाम पर ब्रह्मचर्य को बर्बाद करने के लिए भी योजना बंद से काम किया गया। सह शिक्षा आरंभ करके देश की जवानी को नष्ट करने का पूरा प्रबंध किया गया।  वेद, वैदिक शिक्षा और वैदिक मूल्यों को पूर्णतया उपेक्षित किया गया। मांसाहार को प्रोत्साहित किया गया। यहां तक कि गौ मांस को खाना भी अनैतिक न माना जाए , ऐसे कुसंस्कार नई पीढ़ी को दिए गए। संध्या हवन की परंपरा को रूढ़िवादी मानकर पीछे फेंक दिया गया। खुली हवाओं के झोंके अनुभव कराने के नाम पर आधुनिकता का ऐसा परिवेश सृजित किया गया जिसमें अतीत के स्वर्णिम पृष्ठों को हवा में उड़ा दिया गया।

जिन लोगों ने इस प्रकार की गंगा जमुना तहजीब का विरोध किया ,उन्हें पुरानी सड़ी गली व्यवस्था का समर्थक कहकर उपेक्षित भाव से देखा गया। धोती पहनने वाले लोगों को भी हेय दृष्टि से देखा गया। तिलक, चोटी और जनेऊधारी लोगों को भी इसी प्रकार के उपेक्षा भाव का शिकार बना दिया गया। कहने का अभिप्राय है कि इतिहास को पटक – पटक कर हमारे सामने बीच चौराहे पर मारा गया । हिंदू समाज का बड़ा वर्ग इतिहास की होती हुई इस हत्या पर ताली बजाकर हंसता रहा।

अस्तित्व अपना मिटता हो
और मानव उस पर हंसता हो।
तब सच समझना, वह मूर्ख है
जो अपने जाल में फंसता हो।।

मुस्लिम तुष्टीकरण और ‘गंगा जमुनी तहजीब’ को इस देश की मुख्यधारा की तहजीब स्वीकार कराने के अतार्किक और मूर्खतापूर्ण प्रयासों के चलते अब हम इतनी दूर निकल आए हैं कि देश के अधिकांश क्षेत्रों में हिंदुत्व और ‘गंगा जमुनी तहजीब’ को पहचानना तक कठिन हो गया है। देश के बहुत से ऐसे क्षेत्र हैं जहां पर हिंदू भी मुसलमान के साथ मांस खा रहा है । उन्हीं अवगुणों को ग्रहण कर रहा है जो विदेशी हमलावर यहां पर एक अपसंस्कृति के रूप में लेकर आए थे। अपनी सभ्यता और संस्कृति को भूलकर विदेशी जाल में फंसता जा रहा है। विदेशी शिक्षा और भाषा के वशीभूत होकर अपने आप ही इस जाल की ओर बढ़ रहा है और मर रहा है।
अपनी ही संस्कृति का इस प्रकार विनाश करने वाले इन लोगों को देश के अधिकांश क्षेत्रों में हिन्दू नाम से तो पहचाना जाता है, पर वास्तव में देश की मौलिक चेतना के प्रतिनिधि हिंदुत्व के लिए इस समय बहुत भारी क्षति हो चुकी है। इतिहासबोध न होने पर ऐसा हो रहा है । यदि अपनी सभ्यता और संस्कृति का सही इतिहास लिखा जाता और लोगों को सही ढंग से बताया और समझाया जाता कि वैदिक शिक्षा प्रणाली और वैदिक जीवन पद्धति क्या है ! और किस प्रकार हमको शिक्षा के माध्यम से वास्तविक मानव बनाकर देव समाज की स्थापना करनी है , तो परिणाम दूसरे आते। इस समय यह एक कटु सत्य है कि देश के कई क्षेत्रों में तो इस क्षति की भरपाई होना भी असंभव दिखाई देने लगा है।

इस्लाम और ईसाई समाज का विनाश

 इसके उपरांत भी सोशल मीडिया पर ऐसे बहुत से ‘हिंदूहितैषी’ मिलेंगे जो मौलिक चिंतन के बजाय थोथला चिंतन प्रस्तुत करते देखे जाते हैं। ये लोग देश की समस्याओं का समाधान केवल इस्लाम और ईसाइयत को मानने वाले लोगों के विनाश में देखते हैं। इसके लिए ही प्रयास करते रहते हैं और दूसरे लोगों को प्रेरित करते रहते हैं कि हिंदुत्व को बचाने के लिए ऐसा कर दो वैसा कर दो। अब या तो इन्हें पता नहीं है या पता होकर भी यह समस्या के मर्म पर हाथ रखना नहीं चाहते कि हिंदू की मान्यताओं को ‘गंगा जमुनी तहजीब’ ने जिस प्रकार खा लिया है, अपने ही घर में बैठे ‘जयचंद’ के कारण उससे बचना कितना कठिन हो गया है ? 

कई ऐसे भी हिंदूहितैषी हैं जो स्वयं दारु पीते हैं, मांस खाते हैं और दूसरे उन सभी व्यसनों को पाले हुए होते हैं जो किसी इस्लाम या इसाई मजहब को मानने वाले व्यक्ति में देखे जाते हैं। ऐसी स्थिति में इन्हें कैसे हिंदू हितैषी माना जाए ? एक समय था जब किसी मुसलमान को हिंदुत्व की जीवनधारा में फिर से जोड़ने के लिए तर्क दिया जाता था कि आप वैदिक मान्यताओं व सिद्धांतों को अपनाकर एक सच्चे इंसान बन सकते हैं, आपके जीवन में स्वच्छता, पवित्रता और मानवता की सुगंध फिर से लौट सकती है, पर अब वह स्थिति समाप्त हो चुकी है। हिंदू समाज की पवित्रता को भंग कर दिया गया है। अधिकांश हिंदू ऐसे हैं जो अब यह तर्क देते हैं कि गाय यदि अनुपयोगी हो गई है तो उसे काटने में कोई बुराई नहीं है।

गाय के प्रति हिंदुओं का दृष्टिकोण

अभी कल का ही उदाहरण है। मैं अपने एक मित्र की मां के देहांत के उपरांत शोक व्यक्त करने उनके यहां गया हुआ था। वहां पर जितने भी लोग बैठे थे , उन्हें सुनकर मुझे घोर आश्चर्य हुआ कि वे सब अर्ध मुस्लिम हिंदू थे। मैं उन्हें अर्ध मुस्लिम इसलिए कहता हूं कि उनके विचारों में गंगा जमुनी तहजीब के नाम पर मैंने व्यापक परिवर्तन देखा। उनकी चर्चा गाय पर चल रही थी और वे सभी इस मत के थे कि योगी और मोदी ने गाय को बचाने का नाटक कर किसानों के खेतों को उजाड़ने के लिए उन्हें खुला छोड़ दिया है। इससे पहले मुसलमान उन्हें उठाकर ले जाते थे, तो अच्छा था। उनके कहने का अभिप्राय था कि वे गायों को मुसलमानों के द्वारा काटे जाने पर सहमत थे। उनका यह भी कहना था कि यदि मुसलमानों में चाचा ताऊ के बहन भाई आपस में शादी कर रहे हैं तो यह हिंदू पर ही प्रतिबंध क्यों है कि वे ऐसा नहीं कर सकते ?
इन दोनों बातों से पता चलता है कि भारत के हिंदू समाज के भीतर ही रहकर अर्द्ध मुस्लिम बन गया हिंदू हिंदू समाज के लिए कितना खतरनाक हो चुका है ? वास्तव में मुसलमान या किसी ईसाई से इतना खतरा हिंदुत्व के लिए नहीं है, जितना अर्ध मुस्लिम बने नव हिंदू से है। घर में बैठे-बैठे ही लोगों का धर्मांतरण करने का यह जिहादी ढंग हिंदू समाज को डस रहा है। यह नव हिंदू वर्ग ऐसा वर्ग है जो हिंदू होकर हिंदू नहीं है। उसे आपके साथ रहकर हिंदू का विरोध करने और इस्लाम तथा ईसाइयत का समर्थन करने में आनंद आने लगा है। आपके साथ रहने वाले इस वर्ग ने तेजी से अपना खानपान ,बोलचाल, आहार-विहार, आचार विचार सब कुछ परिवर्तित कर लिया है।

बहुत कुछ खो चुका है हिंदू

    पिछले 75 वर्ष के काल में यद्यपि ऐसा बहुत कुछ किया गया है , जिससे हिंदू सुरक्षित रह सके पर इसके उपरांत भी मुस्लिम तुष्टीकरण और धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत के चलते हिंदू बहुत कुछ खो चुका है। हममें से कितने लोग ऐसे हैं जो आधुनिक शिक्षा के स्थान पर गुरुकुल की शिक्षा की ओर या गुरुकुल की शिक्षा के संस्कारों को अपने बच्चों को सिखाने की ओर ध्यान देते हैं? इतना ही नहीं, हम उन्हें ‘ओ३म’ के बारे में भी कुछ नहीं बताते ,ईश्वर के बारे में कुछ नहीं बताते, राम और कृष्ण के बारे में कुछ नहीं बताते ,अपने अन्य महापुरुषों के विषय में कुछ नहीं बताते। अपने ऋषियों , महर्षियों, संतों, महात्माओं के बारे में कुछ नहीं बताते, अपने इतिहास के बारे में कुछ नहीं बताते। इसके उपरांत भी उनसे अपेक्षा की जाती है कि वह एक अच्छे और संस्कारी व्यक्ति बनकर हिंदू समाज की सेवा करें।
 हमारा मानना है कि दूसरों को सुधारने की बजाय अपने आप को सुधारने पर ध्यान दिया जाए। दूसरे क्या कर रहे हैं या उन्हें कैसे अपने घर में लाया जाए ? – इस पर विचार चिंतन करना आवश्यक होते हुए भी अपने क्या कर रहे हैं और हमें किस प्रकार अपने सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षा के लिए स्वयं प्रयास करना चाहिए ? इस पर ध्यान देने की आवश्यकता अधिक है। अर्द्ध मुस्लिम बने लोगों को पूर्ण वैदिक हिंदू बनाने की आवश्यकता है।

अपने ‘सामान’ की स्वयं रक्षा करनी होगी

'घर वापसी' आवश्यक होते हुए भी ‘घर चौकसी’ उससे भी पहले आवश्यक है। अपने सामान की सुरक्षा स्वयं ही करनी होती है। इसी प्रकार अपने संस्कारों, अपने सिद्धांतों, अपनी मान्यताओं और अपनी संस्कृति व धर्म की रक्षा करना भी किसी समाज अथवा व्यक्ति की स्वयं की ही जिम्मेदारी होती है।

अब मांसाहार पर आते हैं। यह एक आश्चर्यजनक किंतु दु:खद तथ्य है कि भारतवर्ष, जिसके ऋषि महात्मा शाकाहारी बनकर जीवन को सात्विकता में ढालकर मोक्ष की प्राप्ति के लिए लोगों को उपदेश दिया करते थे , उसी भारत देश के लोग बड़ी संख्या में मांसाहारी हो चुके हैं। कुछ दिनों पूर्व किए गए राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS-5) के ताजा आंकड़ों में जो कुछ बताया गया है उससे पता चलता है कि मांसाहार के क्षेत्र में भी स्थिति कितनी भयानक हो चुकी है ? पता चला है कि हर तीन में से दो भारतीय मांसाहारी हैं। देशभर में अलग-अलग हिस्‍सों के औसत आंकड़ों से इसकी समानता नहीं है। राज्यवार आंकड़ों पर ध्यान करें तो उत्तर भारत और मध्य भारत में व्यापक स्तर पर शाकाहार ही प्रचलित है।
महिलाओं की तुलना में पुरुषों की संख्या अधिक है। पूरे देश में 70 प्रतिशत से अधिक हिंदू मांसाहारी हो चुका है। 23 फीसदी महिलाओं ने कभी चिकन, मटन या मछली नहीं खाई है, वहीं पुरुषों में यह आंकड़ा महज 15 फीसदी है. यानी कि हर 4 में से 3 महिलाएं, जबकि हर 6 में से 5 पुरुष मांसाहारी हैं।
उत्तर और मध्य भारत की बात करें तो पंजाब, हरियाणा, जम्मू कश्मीर, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में 50.7 फीसदी महिलाएं और करीब 33 फीसदी पुरुष नॉनवेज नहीं लेते। उत्तर और मध्य भारत में कुल आबादी में शाकाहारी लोगों की संख्या राष्ट्रीय औसत से लगभग दोगुनी है. सबसे ज्यादा शाकाहारी (80 फीसदी महिलाएं और 56 फीसदी पुरुष) लोग हरियाणा में हैं।
आंकड़े के मुताबिक, वेजिटेरियन्स में हरियाणा के बाद राजस्थान (75 फीसदी महिलाएं और 63 फीसदी पुरुष) और पंजाब (70 फीसदी महिलाएं और 41 फीसदी पुरुष) का नंबर आता है. वहीं बात करें पूर्वोत्तर, पूर्वी और दक्षिण भारत की, तो यहां सबसे कम शाकाहारी अर्थात सबसे अधिक मांसाहारी लोग पाए जाते हैं। अरुणाचल प्रदेश, असम, मणिपुर, मिजोरम, नागालैंड, मेघालय, त्रिपुरा और सिक्किम में करीब-करीब 99 फीसदी लोग मांसाहारी हैं। इन राज्यों में केवल 1.6 फीसदी महिलाएं और 1.3 फीसदी पुरुष शाकाहारी हैं।
पूर्वी राज्यों में पश्चिम बंगाल, झारखंड, ओडिशा और बिहार की बात करें तो यहां करीब 10 फीसदी आबादी ने कभी मटन, चिकन या मछली का सेवन नहीं किया है। कहने का अभिप्राय है कि यहां 10 फीसदी लोग शाकाहारी और 90 फीसदी लोग मांसाहारी हैं। पश्चिमी भारत में शाकाहारियों की संख्या राष्ट्रीय औसत से अधिक (31 फीसदी महिलाएं और 23 फीसदी पुरुष) है। इनमें सबसे ज्यादा हिस्सेदारी गुजरात की है। गुजरात भारत में चौथा सबसे अधिक शाका​हारी लोगों वाला प्रदेश है। गुजरात में करीब 61 फीसदी महिलाएं और 50 फीसदी पुरुष नॉनवेज नहीं खाते।
ये सारे के सारे आंकड़े बहुत ही खतरनाक संकेत कर रहे हैं। इन आंकड़ों के आलोक में हमें यह समझना चाहिए कि भारत की वैदिक आदर्शों की सामाजिक परंपराओं को जिस प्रकार मिटाया गया है, उनके मिटाने के साथ-साथ हम एक आदर्श और गौरवपूर्ण इतिहास को मिटा रहे हैं। समय रहते यदि हमने आंखें नहीं खोली तो अनर्थ हो जाएगा । आधुनिकता, खुलापन और प्रगतिशीलता के नाम पर अपने गौरवपूर्ण इतिहास और इतिहास की परंपराओं को मिटाने देना सोते हुए समाज की निशानी होती है। आज जब देश निरंतर कई क्षेत्रों में नए-नए कीर्तिमान स्थापित कर रहा है तब हमें अपने धार्मिक और सामाजिक क्षेत्र में भी आंखें खोलकर चलने की आवश्यकता है। अपनी भेड़ को स्वयं ही भेड़ियों को दे देना चरवाहे की मूर्खता, कर्तव्य के प्रति असावधानी और दुर्बलता ही कहा जाता है। समझ लीजिए कि जहां आज धर्मांतरण हो रहा है और सत्य सनातन वैदिक धर्म को तेजी से मिटाया जा रहा है, वहां पर धर्म नहीं मिट रहा है बल्कि वहां से हमारे इतिहास को मिटाया जा रहा है। इतिहास का मिटना किसी भी जाति के सर्वनाश की पूरी गारंटी होती है। इसलिए जो मिटाया जा रहा है, उसे मिटाने नहीं देना है – आज हमारा यह राष्ट्रीय संकल्प होना चाहिए।

डॉ राकेश कुमार आर्य
(लेखक की……तो क्या इतिहास मिट जाने दें, नामक पुस्तक से )

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