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विशेष संपादकीय वैदिक संपत्ति

मनुष्य का आदिम ज्ञान और भाषा-34

ABCDगतांक से आगे….

इन्हीं दोनों को ऋग्वेद 10 /14/11 में यौ ते श्वानौ यम रक्षितारौ चतुरक्षौ पथिरक्षी कहा गया है। ये श्वान सदैव द्विवचन में कहे गये हैं, जिससे ज्ञात होता है कि वे दो हैं। पर तिलक महोदय श्वान के विषय के जो चार प्रमाण देते हैं, उनमें सर्वत्र एक ही वचनवाला श्वान कहा गया है। इससे ज्ञात होता है किएकवचन वाले श्वान से अभिप्राय दूसरा है। यहां जिस स्थान को आप वसंत सम्पात बतलाना चाहते हैं, उस स्थान के लिए एकवचन श्वान का वर्णन उचित नही है। क्योंकि वहां दो श्वान हैं और उनके लिए वेदों में सदैव द्विवचन ही आता है, जिसे आपने भी स्वीकार किया है।

आपके चारों प्रमाणों का विवेचन इस प्रकार है-

  1. आप कहते हैं कि ऋग्वेद में सरमा नाम की कुत्ती का वर्णन इस प्रकार है कि एक बार इंद्र ने सरमा को गायों के ढूंढऩे के लिए भेजा। किंतु बीच में पणियों ने उसे जब दूध पिला दिया, तब उसने गायों के ढूंढऩे से इनकार कर दिया। इंद्र ने एक लात मारी और उसने वह दूध उगल दिया। यह सरमा वही श्वान तारा है और यह उगला हुआ दूध वही आकाश गंगा है। हम ऊपर बतला आये हैं कि आकाशगंगा के पास दो श्वान हैं एक नही। और आकाश गंगा केे लिए तो आप कहते हैं कि कोई प्राचीन शब्द दही नही है। ऐसी दशा में इस एकवचन वाली सरमा का वर्णन उस मौके का कैसे हो सकता है? जहां यह बात ऋग्वेद में आई है, वहां सरमा को इंद्र की दूती कहा गया है और पणियों को असुर कहा गया है। ऋग्वेद 10 /108/4 में लिखा है कि हता इंद्रेण पणय: अर्थात पणियों बादलों को इंद्र सूर्य ने मारा। आगे मंत्र 9 में सरमा को गायों की स्वसा कहा गया है। इससे ज्ञात होता है कि यह वर्णन वर्षा ऋतु का है। वेद में अन्य स्थानों में किरणों को गौ कहा गया है। सब जानते हैं कि घृताची अप्सरा सूर्य की किरण है। वही इस नीचे के मंत्र में देवताओं की गौ कही गयी है-

वि मिमीष्व पयस्वती घृताचीं देवानां धेनुरनपस्पृगेषा।

इंद्र: सोमं पिबतु क्षेमो अस्त्वग्नि: प्र स्तौतु वि मृधो नृदस्व।। (अथर्व. 13/1/27)

अर्थात बहने वाली और जल को खींचने वाली यह देवताओं की घृताची गौ-रूकने वाली नही है। इंद्र सोमपान करें और स्तुति करें कि तू वैरियों को निकाल दे।

हम पहले लिख आये हैं कि सूर्य की किरणें तेहरी है। अर्थात वे आग्नेय, जलीय तथा आकाशीय है। यह सरमा आग्नेय किरण है, गौ जलीय किरण है और पणि बादल हैं। इंद्र ने आग्नेय किरणों से जलवाली किरणों को अपने पास खींचा और बादलों ने फूटकर बरस दिया। बस, पणि मर गये और सरमा ने पानी उगल दिया। इस तरह से स्पष्ट हो गया कि यह बरसात का अलंकार है न कि वसंतसम्पात और श्वान तारे का। महाशय आरसी दत्त ने भी मैक्समूलर की राय से मिलते हुए, किरणों को गाय और पणियों को बादल रूपी अंधकार ही माना है।

  1. दूसरा प्रमाण है शुनासीरौ का, जिसे तिलक महोदय श्वान तारा सिद्घ करते हैं। आप कहते हैं कि ऋग्वेद में पृथिवी पर स्वर्ग से दुग्ध की वृष्टि करने के लिए शुनासीरौ की प्रार्थना की गयी है। यह वर्णन ऋग्वेद 4 /57/5 में इस प्रकार है-‘शुनासीराविमां वाचं जुषेथां यद्दिवि चक्रथु: पय:। तेनेमामुप सिंचतम।’ यहां साफ कह दिया कि ‘हे शुनासीरो मेरी प्रार्थना स्वीकार करके जो पय आपने द्यौलोक में बनाया है’ उससे इस भूमि को सींचिए। अब देखना चाहिए कि शुनासीरौ, पय और दिवि का क्या अर्थ है। ऊपर कहे हुए 57 में सूक्त में शुनासीरौ का वर्णन है। यह सारा सूक्त खेती की शिक्षा देता है। आकाश में भी खेत, किसान और हल वगैरह है। आकाशीय खेती का मतलब वर्षा उत्पन्न करना है। यहां शुना और सीर, दोनों जल बनाने वाले कहे गये हैं। इसलिए निरूक्कार शुन: सीरौ का अर्थ ‘वायु और सूर्य’ करते हैं, क्योंकि इनसे ही वर्षा उत्पन्न होती है। आकाशीय खेती का एक मंत्र यह है-

देवा इमं मधुना संयुतं यवं सरस्वत्यामधि मणावचर्कृष:

इंद्र आसीत सीरपति:शतक्रतु: कीनाशा आसान मरूत: सुदानव:। (अथर्व 6/30/1)

क्रमश:

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