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पूजनीय प्रभो हमारे……

पूजनीय प्रभो हमारे……भाग-70

इदन्नमम् का सार्थक प्रत्येक में व्यवहार हो क्या कोई ऐसा इतिहासकार है जो यह बता सके कि विदेशियों को इस देश से खदेडऩे का वीरतापूर्ण संकल्प इस देश में अमुक तिथि और अमुक वार को अमुक स्थान पर अमुक राजा के नेतृत्व में लिया गया था? निश्चित रूप से ऐसा बताने वाला या स्पष्ट करने […]

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विश्वगुरू के रूप में भारत संपादकीय

विश्वगुरू के रूप में भारत-48

इसके पश्चात पुन: गायत्री मंत्र का स्थान वैदिक सन्ध्या में आता है। जिसकी व्याख्या की हम पुन: कोई आवश्यकता नहीं मान रहे हैं। उसके पश्चात अगला मंत्र ‘समर्पण’ का है- हे ईश्वर दयानिधे भवत्कृपयानेन जपोपासनादिकर्मणा धर्मार्थकाममोक्षाणां सद्य: सिद्विर्भवेन्न:। अर्थात-”हे ईश्वर दयानिधे! आपकी कृपा से जो-जो उत्तम-उत्तम काम हम लोग करते हैं, वे सब आपके अर्पण […]

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विश्वगुरू के रूप में भारत संपादकीय

विश्वगुरू के रूप में भारत-47

विशाल शत्रु दल से जीत पाना हमारे योद्घाओं के लिए तभी संभव हो पाया था-जब हमने ईश्वरीय शक्ति को अपना सम्बल मान लिया था। हम चोर नहीं थे और ना ही हम कोई अनुचित कार्य कर रहे थे, इसलिए ईश्वर ने भी हमारा साथ दिया और हमसे संसार में विषम परिस्थितियों में भी बड़े-बड़े कार्य […]

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विश्वगुरू के रूप में भारत संपादकीय

विश्वगुरू के रूप में भारत-46

जो जन अज्ञानवश हमसे वैर करता है या किसी प्रकार का द्वेष भाव रखता है, और जिससे हम स्वयं किसी प्रकार का वैर या द्वेषभाव रखते हैं-उस वैर भाव को हम आपके न्याय रूपी जबड़े में रखते हैं। जबड़े की यह विशेषता होती है कि जो कुछ उसके नीचे आ जाता है उसे वह चबा […]

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संपूर्ण भारत कभी गुलाम नही रहा

स्वधर्म और स्वराज्य के उपासक दुर्गादास और उनके साथी

आमेर, उदयपुर और जोधपुर की एकता बादशाह औरंगजेब मर गया तो उसके दुर्बल उत्तराधिकारियों में परस्पर उत्तराधिकार का युद्घ हुआ, जिससे मुगल बादशाहत दुर्बल हुई। इस दुर्बलता का लाभ उठाने के लिए लड़खड़ाते मुगल साम्राज्य में दो लात मारकर उसे नष्ट करने के लिए ‘हिंदू शक्ति’ के संगठन को सुदृढ़ता देने के लिए आमेर, उदयपुर […]

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पूजनीय प्रभो हमारे……

पूजनीय प्रभो हमारे……भाग-69

इदन्नमम् का सार्थक प्रत्येक में व्यवहार हो यह एक लक्ष्य विचारबीज की समरूपता का परिणाम था। भारत के प्राचीन इतिहास से आप एक भी ऐसा ऋषि चिंतक, आविष्कारक, कवि, साहित्यकार, राजा, सम्राट या कोई अन्य मनीषी ढूंढक़र नहीं ला सकते-जिसका चिंतन आविष्कार, रचना या कोई कार्य परमार्थ से भिन्न था। इस देश ने उस चिंतन […]

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विश्वगुरू के रूप में भारत संपादकीय

विश्वगुरू के रूप में भारत-45

इस मंत्र के पश्चात ‘अघमर्षण मंत्र’ आते हैं। इनमें ईश्वर की सृष्टि रचना का चिंतन किया जाता है, अर्थात हम और भी गहराई में उतर जाते हैं। जिस आनंद की अभी तक झलकियां मिल रही थीं, हम उन्हें पकड़ते हैं और कुछ अबूझ पहेलियों के उत्तर खोजने लगते हैं। पहला मंत्र है- ओ३म् ऋतं च […]

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विश्वगुरू के रूप में भारत संपादकीय

विश्वगुरू के रूप में भारत-44

प्रात:काल की संध्या में अपने इष्ट से मिलन होते ही कितनी ऊंची चीज मांग ली है-भक्त ने। मांगने से पहले उसे सर्वव्यापक और सर्वप्रकाशक जैसे विशेषणों से पुकारा है, जो उसके लिए उचित ही है। पहली भेंट में इतनी बड़ी मांग करना कोई दीनता प्रकट करना नहीं है, अपितु अपनी पात्रका को कितना ऊंचा उठा […]

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विश्वगुरू के रूप में भारत संपादकीय

विश्वगुरू के रूप में भारत-43

इस प्रकार मूर साहब को भी अपने परिश्रम में हार का मुंह देखना पड़ गया था। इसके उपरान्त भी भारत में यह बहस बार-बार उछाली जाती है कि आर्य विदेशी थे-इसका अभिप्राय केवल ये है कि भारत को विश्वगुरू के पद पर बैठने से रोकने वाली शक्तियां षडय़ंत्र पूर्वक भारत को अपने ही विवादों में […]

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विश्वगुरू के रूप में भारत संपादकीय

विश्वगुरू के रूप में भारत-42

एलफिंस्टन का कहना है-”जावा का इतिहास कलिंग से आये हिन्दुओं की बहुत सी संस्थाओं के इतिहास से भरा पड़ा है। जिससे पता चलता है कि वहां से आये हुए सभ्य लोगों द्वारा स्थापित किये गये निर्माण कार्य जो ईसा से 75 वर्ष पूर्व बनाये गये थे, आज भी वैसे के वैसे ही खड़े हैं।” मि. […]

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