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आज का चिंतन

चामुण्डा माता रहस्य*

Dr D K Garg
भाग 2

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इस देवी को हमेशा क्रोध की मुद्रा में ही दिखाया जाता है और दुनिया को आग की लपटों से जलाने के रूप में वर्णित किया गया है। उसके साथ बुरी आत्माएं भी हैं। उन्हें कंकालों, भूतों और सियार जैसे जानवरों से घिरा हुआ भी दिखाया गया है, जिन्हें उस शव का मांस खाते हुए दिखाया गया है जिस पर देवी बैठती या खड़ी होती हैं। सियार और उसके डरावने साथियों को कभी-कभी उसके कपाल-प्याले या उसके पकड़े हुए कटे हुए सिर से खून पीते हुए चित्रित किया जाता है।
काल्पनिक चित्र को बनाने वाला शिल्पी एक रचनाकार होता है जो अपनी कल्पना की उड़ान से चित्र यानि मूर्ति के माध्यम से बहुत कुछ गंभीर सन्देश दे देता है,जो प्राचीन शिक्षा का एक स्वरूप था जिसमे मूर्ति के विश्लेषण द्वारा शिक्षा दी जाती थीं। इसको चित्र से चरित्र का ज्ञान होना कहते हैं।
इस चित्र के माध्यम से बुरी आत्माये ,कंकाल ,सियार आदि के साथ ये सन्देश दिया है की मानव की पाशविक प्रवृति का परिणाम क्या होता है ,उसको किये कर्म का फल भोगना होता है जिसमे एक पशु योनि भी है और वह भी ऐसे की जिसमे उसका मांसाहारी पशु अपने भोजन के लिए शिकार करते है।
साथ में मानव कल्याण का मार्ग भी बता दिया है जिसको चार सिर और दस हाथ द्वारा स्पष्ट किया है। जिसने एक गूढ़ रहस्य छिपा है।
आज के इस वैज्ञानिक युग में अवैज्ञानिक कथाओं और मान्यताओं में समय ना बर्बाद करके वास्तविक वैदिक भावार्थ समझना चाहिए।
चामुंडा का भावार्थ मूर्ति के चार मुंड यानि चार मुख है इसलिए इसको बोलचाल की भाषा में चामुंडा नाम दिया गया है।
चामुण्डा शक्ति पीठ ,देवी और माता:

चामुण्डा के साथ कुछ विश्लेषण जुड़े है ,जिनमे देवी,शक्ति पीठ,और चामुंडा माता प्रमुख हैं ।वास्तविकता ये है की ये सभी ईश्वर के अन्य नाम है ।ईश्वर के अन्य नाम देवी,शक्ति और माता भी है।विस्तार से समझे।

देवी : ईश्वर के लिए संबोधित जितने ‘देव’ शब्द के अर्थ हैं उतने ही ‘देवी’ शब्द के भी हैं। परमेश्वर के तीनों लिङ्गों में नाम हैं, जैसे ‘ब्रह्म चितिरीश्वरश्चेति’। जब ईश्वर का विशेषण होगा तब ‘देव’, जब चिति का होगा तब ‘देवी’, इससे ईश्वर का नाम ‘देवी’ है।
शक्ति:
(शक शक्तौ) इस धातु से ‘शक्ति’ शब्द बनता है। ‘यः सर्वं जगत् कर्तुं शक्नोति स शक्तिः’ जो सब जगत् के बनाने में समर्थ है, इसलिए उस परमेश्वर का नाम ‘शक्ति’है।

माता:

चार मुख की वास्तविकता: कल्याणकारी ईश्वर जिसने समस्त प्राणी मात्र के कल्याण के लिए सृष्टि की रचना की और मानव के कल्याण के लिए चार वेदों का ज्ञान दिया। जिसको ईश्वर के चार मुख भी कहते है। इसी अलोक में ईश्वर की ब्रह्मा भी कहा गया है ,जिसके काल्पनिक चित्र में भी ४ मुख दिखाए जाते है स(बृह बृहि वृद्धौ) इन धातुओं से ‘ब्रह्म’ शब्द सिद्ध होता है। योऽखिलं जगन्निर्माणेन बर्हति वर्द्धयति स ब्रह्म’
जो सम्पूर्ण जगत् को रच के बढ़ाता है, इसलिए परमेश्वर का नाम ‘ब्रह्म’ है।
वेदों के ऐसे मन्त्र भी है जिनमें चारों वेदों के नाम पाये जाते हैं।
चारों वेदों में ऐसे बहुत से मन्त्र मिले हैं जिनमे एक, दो या तीन नहीं अपितु चारो वेदों के नाम पाये गए है। इन मन्त्रों के प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि वेद चार हैं। उनके नाम ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद हैं। उदाहरण के लिए –
तस्माद्यज्ञात्सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे।
छन्दाँसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत।।- यजुर्वेद ३१/७
ईश्वर का वेद ज्ञान है जो सृष्टि के रचियता ब्रह्म ने चार ऋषियों द्वारा दिया इसलिए ईश्वर को चार मुख वाला ब्रह्म भी कहा गया है और वेदों के विद्वान को इसीलिए ब्राह्मण कहते है। किसी भी मनुष्य के चार मुख नहीं होते है यदि कोई ऐसी विकृति के साथ जन्मा है तो तुरंत मृत्यु निश्चित है।ये चार मुख वाली कल्पना अलंकार की भाषा है जैसे चतुर्वेदी।
निराकार परमेश्वर हमेशा है और हमेशा रहेगा।वह ईश्वर चारो युग में जैसे की -सत युग, त्रेता युग, द्वापर युग और कलियुग में विद्यमान है ,इसी प्रकार सर्वान्तर्यामी है जो की चारों दिशाओं -उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम में छाया है,वह चारों पुरुषार्थ -अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष का भी प्रतीक हैं और चारों वेदों -ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद द्वारा ज्ञान देने वाला है।इसलिए को चार मुख वाला स्वामी यानि सर्वव्यापक कहा है। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद चारों वेदों के प्रमुख विषय क्रमशः हैं ज्ञान, कर्म, उपासना और विज्ञान है।

दस भुजाओं का भावार्थ:

देवी के दस हाथ का भावार्थ ५ यम और ५ नियम से है ,जिनके पालन करने से ही मुक्ति का मार्ग खुलेगा।

इस मूर्ति के माध्यम से यम नियम का पालन करने और ना करने के परिणाम स्पष्ट किये है। ‘यम‘ और ‘नियम‘ वस्तुतः शील और तपस्या के द्योतक हैं। यम का अर्थ है संयम जो पांच प्रकार का माना जाता है: (क) अहिंसा, (ख) सत्य, (ग) अस्तेय (चोरी न करना अर्थात् दूसरे के द्रव्य के लिए स्पृहा न रखना), (घ) ब्रह्मचर्य, तथा अपरिगृह। इसी भांति नियम के भी पांच प्रकार होते हैं: शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय (मोक्षशास्त्र का अनुशलीन या प्रणव का जप) तथा ईश्वर प्रणिधान (ईश्वर में भक्तिपूर्वक सब कर्मों का समर्पण करना)।
मंदिर में बलि चढ़ाना महा पाप: एक ऐसा स्थल जहां पशु बलि दी जाती है ,वह कभी भी धार्मिक नहीं हो सकता अपितु उसको बूचड खाना कह सकते है। पशु बलि का मतलब है अपनी पाशविक प्रवृत्तियों को छोड़ना ,बलि दे देना, ईश्वर ने किसी प्राणी की बलि के लिए नहीं कहा ,अपितु ये घोर पाप है ,ईश्वर की संरचना में अनुचित हस्तक्षेप है ,दंडनीय अपराध है। जब ईश्वर ने प्राणी बनाये और उनकी आयु भी निर्धारित भी कर दी ,तो ईश्वर क्यों जीव हत्या से प्रसन्न होगा ? ये मंदिर वासी या भक्त कभी पशु पालन के लिए ,चिकित्सा के लिए धन खर्च नहीं करते ,अपितु स्वार्थ सिद्धि के लिए धन का दुरूपयोग करके पश्य् हत्या के पाप के भागी बनते है।
वेद में स्पष्ट किया है -क्रोध को प्राप्त हुए सज्जन राजपुरुषों को किसी का अन्याय से हनन न करना चाहिये और गौ आदि पशुओं की सदा रक्षा करनी चाहिये।
गुवाहटी, असम के कामाख्या मंदिर में देवधानी त्यौहार मनाया जाता है। इस शाक्त पीठ के त्यौहार में बकरों और कबूतरों की पशुबलि दी जाती हैं। विदेशी मीडिया, शोधाार्थी, चर्च आदि इस त्यौहार को विशेष रूप से देखने आते है। क्यूंकि उनका प्रयोजन हिन्दुओं के धार्मिक ग्रंथों से लेकर प्रचलित त्यौहारों में पशुबलि का समर्थन सिद्ध करना होता हैं। पाठकों को बता दे कि वेदों में कहीं भी पशुबलि का कोई विधान नहीं है। पशुबलि मध्य काल में प्रचलित वाममार्ग की दें है। सायण आदि आचार्य इसी वाममार्ग से प्रभावित थे। इसलिए वेदों का सायण भाष्य पशुबलि का समर्थन करता प्रतीत होता हैं।
क्या वेदों में मांस भक्षण का विधान नही हैं

वेदों में मांस भक्षण का स्पष्ट निषेध किया गया हैं।) जैसे, हे मनुष्यों! जो गौ आदि पशु हैं वे कभी भी हिंसा करने योग्य नहीं हैं (यजुर्वेद 1/1)

जो लोग परमात्मा के सहचर प्राणी मात्रा को अपनी आत्मा का तुल्य जानते हैं अर्थात जैसे अपना हित चाहते हैं वैसे ही अन्यों में भी बरतते हैं। यजुर्वेद 40/7)

हे दांतों, तुम चावल खाओ, जौ खाओ, उड़द खाओ और तिल खाओ। तुम्हारे लिए यही रमणीय भोज्य पदार्थों का भाग हैं। तुम किसी भी नर और मादा की कभी हिंसा मत करो अथर्ववेद (6/140/2)

जो लोग नर व मादा और अंडों के नाश से उपलब्ध हुए मांस को कच्चा या पकाकर खाते हैं, हमें उनका विरोध करना चाहिए। (अथर्ववेद 8ध्6ध्23)३

निर्दोषों को मारना निश्चित ही महापाप है, हमारे गाय, घोड़े और पुरुषों को मत मार। (अथर्ववेद 10ध्1ध्29)२९

इन मन्त्रों में स्पष्ट रूप से यह सन्देश दिया गया हैं कि वेदों के अनुसार मांस भक्षण निषेध हैं।

परन्तु मूर्ति के द्वारा शिक्षण के मुख्य सन्देश को ना समझकर ,अपने कर्तव्य से विमुख होकर अंधविश्वास और अज्ञानतावश उसी चित्र से आशीर्वाद मांगना शुरु कर देते है.इस देवी का अस्तित्व लगभग 1400 वर्ष पूर्व बताया जाता है , यदि ऐसा है तो इस्लाम का आतंक,अंग्रेजो का आतंक रोका जा सकता था। असहाय जनता ने धर्म बदला,जेल में यातना सही,और बलिदान देने से आजादी मिली।यदि मूर्ति से कुछ मिलता तो अब अफगानिस्तान में हिन्दू लाखो से घटकर सिर्फ ५०० रह गए है ,पाकिस्तान में सिर्फ तीन प्रतिशत और भारत में ही देखो किस तरह अधर्म फैल रहा है। देवी यदि वास्तव में कुछ कर सकती तो किस बात का इंतजार है ? कोई प्रमाण ? बाकी पाठकगण स्वयं निर्णय करें।

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