- पंडित सत्यदेव विद्यालंकार
महात्मा मुंशीराम जी [बाद में स्वामी श्रद्धानंद जी] आपस के संघर्ष को टालने में सदा चतुराई से काम लिया करते थे। गुरुकुल को संस्कृत की पाठशाला बनाने किंवा विश्वविद्यालय बनाने का मतभेद दिन-पर-दिन जोर पकड़ता गया। यदि महात्मा जी गुरुकुल में बने रहते तो संभव था कि वह मतभेद संघर्ष में परिणत हो जाता और वह गुरुकुल के लिए भी भयानक सिद्ध होता। प्रकाश पार्टी के सर्वेसर्वा महाशय कृष्ण जी प्रतिनिधि सभा के मन्त्री थे। सभा में तो महात्मा जी के सामने उनकी कुछ चलती नहीं थी, किन्तु प्रकाश में गुरुकुल एवं उसके सम्बन्ध में महात्मा जी के आदर्श की आलोचना करने का कोई अवसर उन्होंने खाली नहीं जाने दिया। प्रकाश-पार्टी के लोग गुरुकुल का काम भी पार्टी लाइन पर चलाना चाहते थे और वे महात्मा जी से भी यह अपेक्षा रखते थे कि वे भी उनकी पार्टी के सभासद होकर सब कार्य उनकी मन्त्रणा से ही करें। महात्मा जी को इस प्रकार की पार्टी-बन्दी पसन्द नहीं थी। गुरुकुल की स्वामिनी सभा के मन्त्री होने से महाशय कृष्ण अपने को गुरुकुल के मुख्याधिष्ठाता से ऊपर का अधिकारी समझते थे। उस उच्चाधिकार का भी वह खुला प्रयोग करने लगे। गुरुकुल के उपाचार्य श्री रामदेव जी की सहानुभूति भी सभा के मन्त्री के साथ थी। महात्मा जी ने इस अवस्था को भांप लिया और बिना संघर्ष पैदा हुए गुरुकुल से अलग होने का विचार किया। भगवान ने ठीक मार्ग भी दिखा दिया। संन्यासाश्रम में प्रवेश करने का मार्ग स्वीकार करते हुए आपने गुरुकुल से छुट्टी लेने का निश्चय किया। 29 ज्येष्ठ सम्वत् 1972 को आपने प्रतिनिधि सभा के उस समय के प्रधान श्री रामकृष्ण जी को लिखा – “वैदिक धर्म की आज्ञा शिरोधार्य समझ कुछ काल से उसके पालन का विचार मेरे अन्दर उठ रहा था। अब ऋषि दयानन्द के लेखानुसार वह समय आ गया है, जबकि उस आज्ञा का उल्लंघन नहीं किया जा सकता। मेरा दृढ़ संकल्प हो गया है कि अब मैं संन्यासाश्रम में प्रवेश करूंगा। कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी सम्वत् 1972, 6 नवम्बर 1915 के दिन मैं शिखा-सूत्रादि के बन्धनों से मुक्त होकर पिता परमात्मा की शरण में पूर्णतया आ जाऊंगा। इसके बाद उक्त अवधि तक गुरुकुल का उचित प्रबन्ध करने के लिये लिखा गया है।” श्री रामकृष्ण जी ने अपने सरल स्वभाव के अनुसार लिखा – आपके गुरुकुल से अलग होने पर गुरुकुल की बहुत हानि होगी। 75 वर्ष की आयु तक संन्यासाश्रम में प्रवेश न किया तब भी कोई दोष नहीं है। आर्यसमाज और गुरुकल दोनों की सेवा एक साथ हो सकती है। अधूरी अवस्था में गुरुकुले छोड़ना उचित नहीं है। आशा है, आप पुनः विचार करेंगे।” कई मास यह पत्र-व्यवहार होतो रहा। 21 आषाढ़ को महात्मा जी ने त्यागपत्र ही लिख भेजा। परन्तु प्रधान जी फिर भी आप पर गुरुकृल में रहने के लिए दबाव डालते रहे। महात्मा जी का मानसिक सन्ताप इतना बढ़ गया कि श्रावण मास में आपने प्रधान जी को लिखा – “मैंने समझ लिया कि मेरा यही भाग्य है। सहायकों के विघ्न डालते हुए भी यथाशक्ति काम करूंगा। … ऐसे सौभाग्यशाली दिन के आने से पहिले ही यदि प्राणान्त हो गया तो भी आनन्द है, क्योंकि अन्त्येष्टि-संस्कार तो कुल-पुत्रों के हाथ से हो जायेगा।” सम्वत् 1972 और 1973 के दोनों वर्ष इसी पत्र-व्यवहार में निकल गये। जब परिस्थिति बहुत विकट हो गई तब महात्मा जी ने 18 चैत्र सम्वत् 1973 (30 मार्च सन् 1917) को प्रधान जी को इस सम्बन्ध में अन्तिम पत्र लिखा। उसकी कुछ पंक्तियां इस प्रकार हैं – “आपका तथा भक्तराम जी का सन्देश पहुँचा। भक्तराम जी की इच्छा तो स्वाभाविक है, परन्तु क्या आप सचमुच मेरे शरीर का भला चाहते हैं ? यदि ऐसी इच्छा आपकी है तो जो कष्ट और कठिनाइयाँ मुझे महाशय कृष्ण मन्त्री, म. रामदेव उपाचार्य और लाला नन्दलाल सहायक मुख्याधिष्ठाता की कृपा से उठानी पड़ी हैं, उनको भूल कर आप मेरी निवृत्ति के मार्ग में रोड़ा क्यों अटकाते हैं ? में तो अब शरीर का नाश कर चुका। मुझे तो यही अभीष्ट था कि चुपचाप किसी एकान्त स्थान में रहकर धर्मग्रन्थों पर विचार करता और यदि कुछ जनता की भेंट करने योग्य अपने पास होता तो उसको उनके आगे रख देता। परन्तु मुझे अपनी निर्बलताओं का फल मिल रहा है। जिनके लिए मेंने अपयश खरीदा, उन्हीं के द्वारा मुझको दारुण दुःख पहुँचे। अब सिवाय जबरदस्ती छुटकारा लेने के और कौन सा मार्ग है ? बेचारे भक्तराम को क्या मालूम है कि बरसों से मैं गुरुकुल में कुछ भी काम नहीं कर सका हूं और मेरा यहाँ बैठना निरर्थक है। मैंने, इसलिये कि मेरे मार्ग में विघ्न डालने वाले और मेरे पग-पग पर रुकावटें डालने वाले काम के अयोग्य न हो जावें, एक शब्द भी लिख कर पब्लिक नहीं किया। ऐसी अवस्था में मेरे लिए श्रेय मार्ग वही है, जहाँ मैं विश्वासघाती और मित्रविद्रोही की क्रियाओं को भूल कर उनके लिए भी परमात्मा से कल्याण की प्रार्थना कर सकूं। सम्भव है कि आप अन्तिम युक्ति यह सोचें कि आप गुरुकुल के जलसे पर आवें ही नहीं। यदि आपने ऐसा भी किया, तब भी मुझे 11 अप्रैल के प्रातःकाल यहाँ से चले ही जाना है।”
पत्र इतना स्पष्ट है कि उसके सम्बन्ध में कुछ भी लिखना उसको अस्पष्ट करना होगा। इस प्रकार महात्मा जी ने गुरुकुल के पन्द्रहवें उत्सव के बाद गुरुकुल से विदाई लेकर गुरुकुल के सम्बन्ध में संघर्ष को टाला और उनके ही कन्धों पर गुरुकृल का काम छोड दिया, जो आप से रुष्ट थे। अपने लिए तो आपने सम्राट् से भी ऊँचा परिव्राट् का पद प्राप्त कर लिया।
[स्रोत : स्वामी श्रद्धानंद, पृष्ठ 224-226, संस्करण 2018, हिण्डौन सिटी, प्रस्तुतकर्ता : भावेश मेरजा]
नोट : स्वामी श्रद्धानंद जी का 11 फरवरी 1920 को गुरुकुल कांगड़ी में कुलपति के रूप में पुनरागमन हुआ था, परंतु प्रकाश-पार्टी (महाशय कृष्ण, प्रोफेसर रामदेव आदि) की अडंगा-नीति के कारण वे पुनः एकबार गुरुकुल से पृथक् हो गए।