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संपादकीय

ड्रैगन की बर्बरता और इस्लामिक आतंकवाद

इस्लामी आतंकवाद को समाप्त करने का चीन का अपना ही स्टाइल है। कम्युनिस्ट चीन यह भली प्रकार जानता है कि यदि उसने इस्लामी आतंकवाद को अपने देश में बढ़ने का अवसर प्रदान किया तो उसके ‘घातक’ परिणाम होंगे। क्योंकि अब से पहले जिन-जिन देशों में इस्लाम ने जनसंख्या के आंकड़ों को गड़बड़ाकर अपना विस्तार किया है, वहीं पर उसने उस देश की मौलिक संस्कृति को समाप्त करने में सफलता प्राप्त की है। आज इस्लाम के रंग में जितने भर भी देश रंगे हुए हैं, उन सबका इतिहास कुछ इसी प्रकार का है । चीन ने इस सच को बड़ी गहराई से समझा है। यही कारण है कि वह अपने यहां इस प्रकार का कोई भी खेल होने की अनुमति देना नहीं चाहता। यद्यपि उसके नियमों को या कड़े कानून को या कड़ी कार्रवाइयों को लेकर उसकी खूब आलोचना होती रही है, परंतु उस पर इस प्रकार की किसी भी आलोचना का कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा है। पाकिस्तान जहां इस्लामी आतंकवाद के विरुद्ध काम करने वाले देशों की आलोचना करता है, वहीं वह अपने मित्र चीन के इस प्रकार के क्रूर कृत्यों पर भी पूरी तरह मौन साधे हुए है। वह भली प्रकार जानता है कि चीन में इस समय किस प्रकार का बर्ताव मुसलमान लोगों के साथ हो रहा है ? पर वह सब कुछ जानकर भी चुप है।
बहुत पहले से इस प्रकार के समाचार आते रहे हैं कि चीन में मुसलमान समाज के साथ बड़ा क्रूरता का व्यवहार हो रहा है। अभी हाल ही में मानव अधिकार के क्षेत्र में काम करने वाले ‘ह्यूमन राइट्स वाच’ ने जारी अपनी रिपोर्ट में कहा है कि चीन शिजियांग के अलावा भी अन्य क्षेत्रों में मस्जिदों को बंद करने की कार्रवाई कर रहा है। जाहिर है कि चीन की इस प्रकार की कार्यवाही का उद्देश्य मस्जिदों की अजानों के माध्यम से निकलने वाली उस आवाज को खामोश कर देना है जो लोगों को एक दूसरे के खिलाफ भड़काने की बात करती है। चीन ने इस प्रकार की कार्यवाही करते हुए अपने देश के प्रत्येक समुदाय को इस प्रकार का संकेत और संदेश देने का प्रयास किया है कि धर्म स्थलों का प्रयोग एक दूसरे वर्ग के प्रति नफरत फैलाने के लिए नहीं होना चाहिए। उसका साफ संकेत है कि मजहब किसी व्यक्ति का निजी मामला हो सकता है, पर उसे सब पर थोपने की कार्यवाही को निंदनीय ही माना जाना चाहिए और यदि किसी धर्म स्थल से इस प्रकार के अपवित्र कार्यों को अंजाम दिया जा रहा है तो ऐसे धर्म स्थलों का अस्तित्व में बने रहना किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं है। विशेष रूप से तब जब किसी देश या समाज की संस्कृति को ही इस प्रकार की कार्यवाहियों से खतरा पैदा होने की पूरी संभावना हो।
उपरोक्त रिपोर्ट में कहा गया है कि अधिकारियों ने उत्तरी निंशिया और गांसू प्रांत में भी मस्जिदों को बंद करने की कार्यवाही की है । इन इलाकों में ‘हुई मुसलमानों’ की बहुलता है।
अबसे पूर्व में भी इस प्रकार की अनेक खबरें चीन से आती रही हैं कि चीन ने मुसलमान से उनके पवित्र पुस्तक कुरान को लौटाने के लिए आदेश कर दिए हैं। कुरान की जिन आयतों को लेकर भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस बात पर सहमति व्यक्त की है कि उनके रहते हुए देश में सांप्रदायिक दंगे होते हैं, चीन उनके अलावा सारी कुरान को ही ‘झगड़े की जड़’ मानता है।
चीन ने अपने इस अभियान के अंतर्गत पूर्व में उइगर मुसलमानों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की थी। जिस पर देश-विदेश के अनेक मुस्लिम संगठनों या मानवाधिकारवादी संगठनों ने भी आवाज उठाने का प्रयास किया था। परंतु चीन ने उन सब आवाजों की ओर ध्यान न देते हुए केवल अपने ‘राष्ट्रहितों’ की ओर ध्यान दिया। चीन के अड़ियल रवैये के दृष्टिगत धीरे-धीरे सारी आवाजें खामोश हो गईं । सबने समझ लिया कि चीन अपने ‘राष्ट्रहितों’ के दृष्टिगत कुछ भी सुनने को उचित नहीं मानता। वह किसी भी प्रकार की सांप्रदायिकता को सहन नहीं कर सकता। विशेष रूप से किसी भी ऐसी सांप्रदायिकता सोच को वह अपने लिए उचित नहीं मानता जिससे देर सवेर देश के टूटने की संभावना प्रबल हो या शांति भंग होने की संभावना बनती हो। इस सच्चाई को धीरे-धीरे समझ कर दुनिया भर के सारे मानवाधिकारवादी संगठन चुप हो गए।
चीन ने इस बात को प्रचारित किया कि मुसलमानों की ‘किताब’ के कारण ही उपद्रव, उत्पात और उन्माद फैलता है । इसलिए उसने ‘ बीमारी’ को समाप्त करने की ओर ध्यान देना आरंभ किया है। जिस समय चीन इस प्रकार की कार्यवाही कर रहा था या जिस प्रकार अपनी इस कार्यवाही को वह संकोच आज भी चला रहा है उसके दृष्टिगत इस्लामी देशों से यह अपेक्षा की जा सकती थी कि वह सब संयुक्त राष्ट्र में या किसी अन्य अंतरराष्ट्रीय मंच पर चीन के विरुद्ध आवाज उठाएंगे, परंतु उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं किया है।
चीन के शिजियाँग प्रान्त के मुसलमान चीनी भाषा न बोलकर तुर्की भाषा बोलते हैं । इनकी जनसंख्या इस प्रान्त में एक करोड़ से ऊपर हो चुकी है। जिसके उपरांत भी ये अपने आपको चीन का निवासी नहीं मानते। जाहिर है कि ऐसी सोच के चलते ही ये लोग चीन से अलग राह बनाने का प्रयास करते हैं। जिसे चीन कुचलने के लिए तैयार रहता है।
अब इनमें से कौन सा सही है और कौन सा गलत है ? यदि इस पर विचार किया जाए तो गलती पर दोनों हैं। पर पहली गलती चीन का वह मुसलमान करता है जो अपने आपको चीन का निवासी नहीं मानता और वह वहां पर तोड़फोड़ की गतिविधियों में लगकर देश में अशांति फैलाने का प्रयास करता है। इस प्रकार की अनुमति किसी भी देश में किसी भी समाज को नहीं दी जा सकती , ना दी जानी चाहिए । अल्पसंख्यक के नाम पर या तुष्टीकरण के नाम पर या किसी भी प्रकार के राजनीतिक पाखंड के नाम पर ऐसी शक्तियों को सहन करना किसी भी देश की एकता और अखंडता के लिए खतरों को आमंत्रित करने जैसा होता है। जैसा कि हमने सेकुलर सरकारों के समय में भारत में भी देखा है।
हम इस संदर्भ में इजरायल और हमास के वर्तमान युद्ध को देख सकते हैं। जहां हमास पहले आतंकी हमला करता है और उसके बाद कई लोग मुसलमानों पर इजरायल के अत्याचारों की दुहाई देते हुए उसे कोसते हुए देखे जाते हैं। कोई यह नहीं देखता कि पहले आक्रमण करने वाला कौन था ? यदि हमास बहुत देर से इसराइल के विनाश की तैयारी कर रहा था और वह सुरंगों में बारूद भर भर के दुनिया से यहूदी लोगों को मिटाने की तैयारी में लगा हुआ था तो सबसे बड़ा पापी और सबसे पहले पापी वही था। उसका इलाज करने वाला इसराइल यदि अपने अस्तित्व के लिए कुछ सीमाओं को लांघता भी है तो वह उतना पापी नहीं है। इस बात को दुनिया को मानना और समझना होगा। यदि सबसे पहले और सबसे बड़े पापी को बचाने की कोशिश की जाती रहेगी तो दुनिया में कभी शांति नहीं आएगी। शांति लाने के लिए सबसे पहले और सबसे बड़े पापी को ही ढूंढने की आवश्यकता होती है और सब एक मत से बिना किसी सांप्रदायिक पूर्वाग्रह और सोच के ऐसे पापी के विरुद्ध कार्यवाही करने पर एक मत होने चाहिए।

चीन वह कर रहा है जो किसी भी देश को करने का अधिकार होता है और अधिकार होना भी चाहिए । भारत को भी चीन से सबक लेने की आवश्यकता है । जिस प्रकार यहां खुले मंचों से सांप्रदायिक शक्तियों की वकालत की जाती है या देश तोड़ने वाली गतिविधियों को बढ़ावा देने वाले भाषण दिए जाते हैं और उन्हें संवैधानिक ठहराने के लिए टीवी चैनलों पर बड़े-बड़े कथित विद्वान उपस्थित हो जाते हैं, उन सब लोगों के विरुद्ध भी कार्यवाही होनी चाहिए , जो ऐसी गतिविधियों को किसी भी दृष्टिकोण से प्रोत्साहित करते हुए देखे जाते हैं।
जो लोग चोर होते हैं उनका मनोबल टूटा हुआ रहता है । बात स्पष्ट है कि जो लोग गलत चीजों की वकालत करते हैं या गलत चीजों को दुनिया पर लादने के प्रयास करते हुए देखे जाते हैं वे भीतर से मरे हुए होते हैं। इसी को समझाते हुए गीता में अर्जुन को स्पष्ट करते हुए सामने खड़े क्षत्रियों के बड़े दल की ओर संकेत करते हुए कहा था कि यह सब अपने धर्म से पतित होने के कारण पहले ही मर चुके हैं। क्योंकि ये अन्याय के पक्ष में आकर यहां खड़े हो गए हैं। इसलिए अर्जुन ,! इन मरे हुए लोगों को देखकर परेशान मत हो। अब तुझे निमित्त मात्र बनना है और इनका सफाया होना निश्चित है। यही बात इस समय उन लोगों के बारे में माननी व समझनी चाहिए जो किसी भी देश या सारे संसार में आग लगाने की गतिविधियों में सम्मिलित हैं।

राकेश कुमार आर्य

( लेखक सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता हैं।)

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