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संपादकीय

अफगानिस्तान के वर्तमान हालात पर मोदी सरकार की नीति कितनी सार्थक ?

 

अफगानिस्तान में जिस प्रकार तालिबान ने सत्ता पर कब्जा किया है उसे लेकर भारत की चिंताएं बढ़ गई हैं । भारत सरकार ने अफगानिस्तान के ताजा घटनाक्रम पर जो नीति रणनीति अपनाई है उसकी भी कई लोगों ने यह कहकर आलोचना की है कि भारत सरकार को समय रहते अफगानिस्तान में हस्तक्षेप करना चाहिए था।  उधर अफगानिस्तान के भीतरी हालात भी बहुत ही चिंताजनक हैं। लोग भयभीत हैं और तालिबान के पहले शासन की क्रूरता लोगों की बेचैनी को और भी अधिक बढ़ा रही है।


बहुत ही निष्पक्ष होकर और ईमानदारी के साथ यदि अफगानिस्तान के ताजा घटनाक्रम की समीक्षा की जाए तो भारत सरकार ने इस समय जिस प्रकार की नीति रणनीति अफगानिस्तान को लेकर अपनायी है, उसे गलत नहीं कहा जा सकता। हमें भारत सरकार की नीति की आलोचना करने से पहले यह विचार करना चाहिए कि संसार की सुपरपावर्स इस समय क्यों मौन साधे बैठी हैं ? अमेरिका ने जब देख लिया कि अफगानिस्तान में उसका रहना घाटे का सौदा है और पिछले 20 वर्ष में जिस प्रकार तालिबानी वहां की फौज में भर्ती हो गए हैं उसके चलते फौज में भी बड़ी संख्या में तालिबानियों का वर्चस्व स्थापित हो गया है, तो वह चुपचाप वहां से निकल गया। जबकि चीन और पाकिस्तान ने भारत और अमेरिका दोनों के अफगानिस्तान की सरकार से मित्रतापूर्ण संबंध होने के कारण तालिबानियों को अपना समर्थन दिया है। इसके साथ ही रूस भी तालिबानियों के साथ खड़ा हुआ दिखाई दे रहा है। इतना ही नहीं अन्य मुस्लिम देश भी अफगानिस्तान को लेकर या तो चुप हैं या फिर तालिबान के साथ सहानुभूति दिखाते हुए दिखाई दे रहे हैं।
ऐसे में इस समय भारत के लिए यही उचित था कि वह भी अफगानिस्तान के ताजा घटनाक्रम पर चुप रहे और आने वाले समय में मुस्लिम देशों और सुपरपावर्स के दृष्टिकोण को देखकर अपनी नीति रणनीति की घोषणा करे।
हमें यह भी समझना चाहिए कि कई मुस्लिम देश ऐसे हैं जो तालिबान की विजय को उनके अपने देश की आजादी कह रहे हैं, यहां तक कि भारत में भी सपा के शफीक उर रहमान ने कह दिया है कि जैसे अंग्रेजों से हमने अपने देश को आजाद कराया था वैसे ही तालिबान ने अपने देश को अमेरिका से आजाद कराया है। इस पर हमें जश्न मनाना चाहिए।
जो लोग इस समय नरेंद्र मोदी सरकार की इस बात को लेकर आलोचना कर रहे हैं कि उन्होंने समय रहते अफगानिस्तान में हस्तक्षेप नहीं किया, उनके विषय में हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि यह वही लोग हैं जो मोदी सरकार के अफगानिस्तान में सीधे हस्तक्षेप करने पर भी अपना विरोध ही व्यक्त करते और कहते कि एक मुस्लिम देश में यदि मुस्लिम आपस में लड़ भिड़कर मर रहे थे तो उसमें हिंदुस्तान की सेना को भेजने का मोदी सरकार का आखिर औचित्य क्या था ? इसलिए ऐसे लोगों की आलोचना पर कोई ध्यान नहीं देना चाहिए जो केवल आलोचना के लिए आलोचना करते हैं और वस्तुस्थिति से आंखें मूंदकर चलते हैं।
मोदी सरकार की चुप्पी के विरोधी लोगों के बारे में मैं एक बात कहना चाहूंगा कि 1976 में इंदिरा गांधी ने जब बाबासाहेब संविधान की मूल आत्मा अर्थात भारतवर्ष में धर्म, जाति और लिंग के आधार पर किसी को ना तो प्रोत्साहन दिया जाएगा और ना ही किसी के अधिकारों का हनन किया जाएगा, का विनाश करते हुए भारत के संविधान में ‘सेकुलर’ शब्द स्थापित किया था तो उस समय भारतवर्ष का एक ही प्रांत ऐसा था जो कह रहा था कि सेकुलर शब्द को हम अपने यहां लागू नहीं करेंगे । उस प्रान्त का नाम था जम्मू कश्मीर। जम्मू कश्मीर की सरकार ने कुछ समय धारा 370 की आड में यह कहा था कि वह सेकुलरिज्म को स्वीकार नहीं करती । क्योंकि धारा 370 उसे विशेष अधिकार देती है। इसका अभिप्राय हुआ कि जम्मू-कश्मीर की सरकारों ने कभी भी भारत के सेकुलर ढांचे में विश्वास नहीं किया । वह अपने ढंग से सरकार चलाती रही। इसके चलते ही वहां हिंदुओं का नरसंहार होता रहा और कश्मीरी हिंदुओं को बड़ी संख्या में कश्मीर छोड़ना पड़ा।
आज जब केंद्र की मोदी सरकार ने धारा 370 हटा दी है तो जिस कांग्रेस के प्रस्ताव को जम्मू कश्मीर की सरकार ने 1976 में मानने से इनकार कर दिया था, वहीं कांग्रेस इस समय कह रही है कि धारा 370 के चलते कश्मीर में सेकुलरिज्म सुरक्षित था। इसके हटते ही सेक्युलरिज्म की और लोकतंत्र की हत्या हो गई है। बस, इसी को ध्यान से समझ लिया जाना चाहिए कि कुछ लोग विपक्ष की राजनीति करते हुए धारा 370 के रहते जैसे देश को तोड़ने की चालों में लगे रहे और उसके हटने पर कहते हैं कि लोकतंत्र और सेकुलरिज्म की हत्या हो गई है, वैसे ही कुछ लोग हैं जो बुद्धिजीवी होकर भी सरकार की प्रत्येक नीति की आलोचना करने को अपना धर्म मानते हैं। ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों में लगे रहने का संकल्प लेकर भी जो लोग किसी पार्टी विशेष से बंध कर अपनी बौद्धिक क्षमताओं को गिरवी रख देते हैं और उचित निर्णय का स्वागत करने का लोकतांत्रिक भाव भी खो देते हैं, उनसे कैसे ‘राष्ट्र निर्माण’ की अपेक्षा की जा सकती है ?
मैंने देखा है कि कुछ लोग ‘राष्ट्र निर्माण’ का संकल्प लेकर भी किसी जाति विशेष से प्रभावित होकर अपने संगठन चलाते हैं। उनसे आप कोई अपेक्षा राष्ट्र निर्माण की नहीं कर सकते हैं, जो खुल्लम-खुल्ला जातिवाद के नारों से प्रेरित होकर काम करने के अभ्यासी हों। अस्तु।
इस सब के उपरांत भी हमारा इंद्र की मोदी सरकार से आग्रह है कि अफगानिस्तान के ताजा घटनाक्रम के पश्चात जिस प्रकार शरणार्थी भारत में आ रहे हैं, उनके प्रति सरकार को अपनी ठोस और स्पष्ट नीति अपनानी चाहिए। थोक के भाव में भारत में अफगानिस्तानी शरणार्थियों को शरण देना किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं है। ऐसे शरणार्थियों को ले लेकर पहले भी भारत ने हानि  उठाई है। उस उदाहरण को सामने रखकर सरकार को इस समय शरणार्थियों के प्रति अपनी परंपरागत नीति पर विचार करना चाहिए। केंद्र की वर्तमान सरकार वीर सावरकर जी के सिद्धांतों में विश्वास रखने वाली सरकार है। सावरकर जी ने कई अवसरों पर यह कहा है कि भारत के नेतृत्व ने सद्गुणों को अपनाकर देश के साथ घात किया है। जैसे पृथ्वीराज चौहान गोरी के साथ अपना अंतिम युद्ध केवल इसलिए हार गये कि गौरी ने अपने सैन्य दल के सामने गायों को कर लिया था। पृथ्वीराज चौहान ने गायों पर हथियार चलाने से इंकार कर दिया। इतिहासकारों का मानना है कि यदि उस दिन कुछ गाय मर जातीं और शत्रु को भगा दिया जाता तो बाद में मरने वाली करोड़ों गायों की रक्षा हो सकती थी। साथ ही उन करोड़ों लोगों को धर्मांतरण से रोका जा सकता था जिन्होंने मुस्लिम शासन में अत्याचार सहते हुए अपना धर्मांतरण कर लिया। पृथ्वीराज चौहान के इस सद्गुण ने हमारे भीतर विकृति पैदा की। बस ,यही बात आज भी है कि हम शरणार्थियों को शरण देने के अपने सद्गुण से फिर किसी नई विकृति को पैदा ना करें । पहले ही रोहिंग्या और दूसरे शरणार्थियों ने  देश के लिए कई प्रकार की समस्याओं को जन्म दे दिया है ।
‘सद्गुण विकृति’ का परंपरागत भूत यदि इस समय केंद्र की हिंदूवादी राष्ट्रवादी सरकार के सिर पर भी चढ़ा तो वह हमारे लिए किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं होगा । हमें स्पष्ट कर देना चाहिए कि जो भी शरणार्थी भारत की ओर बढ़े चले आ रहे हैं, उन्हें किसी मुस्लिम देश में जाकर शरण लेनी चाहिए । वैसे भी इस समय भाईचारे में विश्वास रखने वाले ‘शांति के मजहब’ के मानने वाले लोगों और देशों को अपने इन गुणों को प्रदर्शित करने का उचित अवसर प्राप्त है। उन्हें स्वयं ही अपने ‘भाइयों’ को अपने देश में शरण देनी चाहिए।
तालिबान को लेकर हमें यह समझना चाहिए कि भारतीय उपमहाद्वीप में यदि इसका सबसे बड़ा शत्रु है तो वह भारत ही है। यद्यपि तालिबान सरकार लोगों को और संसार के शेष देशों को यह बताने का प्रयास कर रहे हैं कि उनकी शत्रुता किसी से भी नहीं है । वह अपने देश को अपने तरीके से चलाने में विश्वास रखते हैं, परंतु यह जो कुछ कह रहे हैं, उसका अभिप्राय वही नहीं है । निश्चित रूप से उनका छुपा हुआ एजेंडा भारत के लिए घातक हो सकता है। भारत के भीतर भी तालिबानी सोच रखने वाले लोग तालिबान से ऊर्जा ले रहे हैं और उन ऊर्जा लेने वाले लोगों की पीठ पर देश के कई राजनीतिक दल अपना आशीर्वाद का हाथ फेरते हुए दिखाई दे रहे हैं। इन लोगों को देश की सुरक्षा, एकता और अखंडता से इतना प्यार नहीं है, जितना सत्ता से है। उसके लिए ये कुछ भी कर सकते हैं । किसी से भी हाथ मिला सकते हैं और वोटों को अपने पक्ष में लेने के लिए कोई भी हथकंडा अपना सकते हैं।
अफगानिस्तान की नई तालिबान सरकार अभी सत्ता में नहीं आई है ,परंतु उसने पहले ही एक महत्वपूर्ण फैसला लेते हुए अफगानिस्तान की जेलों में बंद बड़े 2300 खूंखार आतंकवादियों को छोड़ दिया है। इन खूंखार आतंकियों में टीटीपी के डिप्टी चीफ फकीर मोहम्मद को भी जेल से बाहर कर दिया गया है। जिन आतंकियों को जेलों से बाहर किया गया है उनमें तहरीक-ए-तालिबान, अलकायदा और आईएसआईएस के हैं। ये सब अफगानिस्तान की अलग-अलग जेलों में बंद थे।
कहने के लिए तो तालिबान ने भारत सरकार से कहा है कि वह अफगानिस्तान में अपनी परियोजनाओं को पूर्ण करे। लेकिन उसकी नीति भारत के प्रति क्या होगी और उसके द्वारा छोड़े गए इन खूंखार आतंकवादियों का नजरिया भी भारत के बारे में क्या होगा ? – यह देखना अभी शेष है । यद्यपि तालिबान के पहले शासन को देखते हुए यह बात कही जा सकती है कि उसका दृष्टिकोण भारत के बारे में कठोर ही रहेगा। जिन आतंकी संगठनों के लोगों को आतंकवादियों को तालिबान ने जेलों से बाहर किया है उनके संपर्क सूत्र भारत में पहले से रहे हैं। निश्चित रूप से अब भारत में उनके लोग और भी अधिक अतिवादी दृष्टिकोण अपनाएंगे। जिससे भारत की भीतरी समस्याएं बढ़ सकती हैं।
चीन और पाकिस्तान दोनों ही यह चाहेंगे कि भारत में अस्थिरता बढ़े। अमेरिका का वर्तमान नेतृत्व भी भारत को इतना पसंद नहीं करता जितना पहला नेतृत्व करता था। जहां तक रूस की बात है तो वह अमेरिका को नीचा दिखाने के लिए तालिबान को अपना समर्थन दे रहा है। ऐसे में उसकी तालिबान के साथ सहानुभूति उसके मित्र भारत को परेशान कर सकती है। पर उस परेशानी पर रूस क्या दृष्टिकोण अपनाएगा ?  इसे अभी स्पष्ट किया जाना संभव नहीं।
भारत के लोगों को आज इतिहास से भी सबक लेने की आवश्यकता है। मैं कहना चाहूंगा कि आज तालिबान के भय से जिस प्रकार अफगानिस्तान में लोग अपने परिजनों और प्रियजनों को छोड़ छोड़कर भी विदेशों को भाग रहे हैं और हवाई जहाज के पहियों तक पर लटक कर अपनी प्राण रक्षा करने को आतुर दिखाई दे रहे हैं, कभी यही स्थिति इस देश में हिंदुओं की उन मुस्लिम आक्रमणकारियों के समय होती होगी जो हमारे शहरों, गांवों ,कस्बों को उजाड़ते थे और बड़ी संख्या में हिंदू नरसंहार करते इस्लाम की तलवार की प्यास बुझाते थे। तब क्या मंजर होता होगा और किस प्रकार लोग उस समय अपने प्राणों की रक्षा के लिए भयभीत होकर इधर-उधर भागते होंगे? उसे आज का अफगानिस्तान समझाने के लिए पर्याप्त है। देश के कम्युनिस्टों, कांग्रेसियों और उन धर्मनिरपेक्षियों को भी अफगानिस्तान के मंजर से सबक लेने की आवश्यकता है जो कहते हैं कि हिंदुस्तान में इस्लाम ने कभी कोई नरसंहार किया ही नहीं या इस्लाम तो ‘शांति का मज़हब’ है। इस्लाम की शांति खून की प्यासी रही है और रहेगी। इसलिए खून के प्यासे लोगों को मोदी सरकार अपने देश में शरण ना दे और उनसे उचित दूरी बनाकर चलती रहे, इसी में देश का लाभ है । शफीक उर रहमान जैसे लोगों का ‘इलाज’ भी इस समय होना आवश्यक है। क्योंकि ये ही वे लोग हैं जो देश में आग लगाने का काम करते हैं। ये लोग ही देश में तालिबानी विचारों का बीजारोपण कर उन्हे खुराक देते हैं। इससे पहले कि यह अपने उद्देश्य में सफल हो सरकार इन्हें ही उचित ‘खुराक’ दे दे तो अच्छा है।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

 

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