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संपादकीय

देश का विभाजन और सावरकर, अध्याय -11 ख हिंदू और मुस्लिम : दो राष्ट्र

आज भी देश में मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति करने वाले कई लोग ऐसे हैं जो बड़ी सहजता से सावरकर जी पर हिंदू सांप्रदायिकता को भड़काने का आरोप लगा देते हैं और यह भी कह देते हैं कि उनकी सरकार की नीतियों के चलते ही देश का विभाजन हुआ था। इस पर हम पूर्व में भी स्थान – स्थान पर प्रकाश डाल चुके हैं। यहां पर हम सावरकर जी के एक उद्धरण को प्रस्तुत कर रहे हैं। जिसे उनके आलोचक यह कहकर बार-बार दोहराते हैं कि मोहम्मद अली जिन्नाह ने तो 1939 में देश में द्विराष्ट्रवाद की बात की थी , जबकि सावरकर उसके 2 वर्ष पहले ही कह चुके थे कि भारत में एक साथ दो राष्ट्र बसते हैं।
उन्होंने हिन्दू महासभा के 1937 के अहमदाबाद में हुए राष्ट्रीय अधिवेशन में अध्यक्ष की आसंदी से कहा, ”भारत में दो विरोधी राष्ट्र एक साथ बसते हैं, कई बचकाने राजनेता यह मानने की गंभीर भूल करते हैं कि भारत पहले से ही एक सद्भावनापूर्ण राष्ट्र बन चुका है या यही कि इस बात की महज इच्छा होना ही पर्याप्त है। हमारे यह सदिच्छा रखने वाले किन्तु अविचारी मित्र अपने स्वप्नों को ही यथार्थ मान लेते हैं। इस कारण वे सांप्रदायिक विवादों को लेकर व्यथित रहते हैं और इसके लिए सांप्रदायिक संगठनों को जिम्मेदार मानते हैं, किन्तु ठोस वस्तुस्थिति यह है कि कथित सांप्रदायिक प्रश्न हिंदुओं और मुसलमानों के बीच सदियों से चली आ रही सांस्कृतिक, धार्मिक और राष्ट्रीय शत्रुता… की ही विरासत है… भारत को हम एक एकजुट (Unitarian) और समरूप राष्ट्र के तौर पर समझ नहीं सकते, बल्कि इसके विपरीत उसमें मुख्यतः दो राष्ट्र बसे हैं: हिंदू और मुस्लिम।” (समग्र सावरकर वाङ्गमय, हिन्दू राष्ट्र दर्शन, खंड 6, महाराष्ट्र प्रांतिक हिन्दू सभा पूना, 1963, पृष्ठ 296)
हम यहां पर फिर अपनी उसी मान्यता को दोहराना चाहेंगे कि सावरकर जी इस्लामिक दर्शन के गंभीर विद्यार्थी थे। वे जानते थे कि इस्लामिक चिंतन क्या है और किस प्रकार यह सारी दुनिया से ही काफिरों को मिटा देना चाहता है? इस दृष्टिकोण से आर्य वैदिक धर्मी हिंदू कभी भी इस्लाम के मित्र नहीं हो सकते थे। उनका अंतिम उद्देश्य भारत के अस्तित्व को मिटाना था। इस्लाम को मानने वाले लोगों की गतिविधियों को देखने से आज भी यह स्पष्ट हो रहा है कि स्वाधीनता के पश्चात भी इस्लाम अपने इसी लक्ष्य पर कार्य कर रहा है। उन्होंने अबसे पूर्व के सर सैयद अहमद खान जैसे अनेक मुस्लिम विद्वानों और नेताओं के वक्तव्यों का गहन अध्ययन किया था और उसके आधार पर वह कोई नई बात ना कहकर देश के लोगों को खतरे से सावधान करते हुए कह रहे थे कि भारत में दो राष्ट्र बसते हैं अर्थात आप इस भूल में ना रहे कि भारत के भीतर हिंदू मुस्लिम एकता स्थापित हो चुकी है और मुस्लिमों ने अपने अलगाववाद को भारत के विशाल हिंदुत्व के साथ समन्वित करना सीख लिया है।
जो लोग देश के हिंदू जनमानस को इस बात की भ्रान्ति में रखने का प्रयास कर रहे थे कि मुसलमानों ने इस देश को अपना देश मानकर इसके प्रति माता और पुत्र का संबंध स्थापित कर लिया है, सावरकर जी उन्हें ‘ बचकाना नेतृत्व’ कहकर संबोधित करते थे।

सावरकर जी के ‘अविचारी मित्र’

ऐसे किसी भी बचकाने नेतृत्व की बचकानी बातों में सावरकर जी कभी नहीं फंसे कि भारत पहले से ही एक सद्भावनापूर्ण राष्ट्र बन चुका है या यही कि इस बात की महज इच्छा होना ही पर्याप्त है। सावरकर जी महज इच्छा को ही राष्ट्र बन जाने का निश्चायक प्रमाण नहीं मानते थे। महज इच्छा तो किसी दबाव, परिस्थिति या किसी तात्कालिक कूटनीति के चलते भी हो सकती है। मूल बात है ह्रदय में क्या चल रहा है और आप भीतर से क्या चाहते हैं या क्या सोचते हैं? यदि भीतर पवित्रता नहीं है तो बाहर पवित्रता कभी नहीं हो सकती। भीतर का जगत कई बार अंतर्द्वंद्वों में घिरा हो सकता है या कई प्रकार की गांठों को लगाए बैठा हो सकता है और बाहरी जगत में लोग दिखावे के लिए दूसरा रूप धारण कर लेते हैं। हमसे कई बार चूक हो जाती है कि हम बाहरी जगत के छलावे में आ जाते हैं और भीतर की गांठों को नाप नहीं पाते हैं । सावरकर जी भीतर की गांठों को जानते थे। यही उनकी महानता थी और उनके विरोधी लोगों की दृष्टि में यही उनकी सबसे बड़ी कमजोरी या मूर्खता थी।
जो लोग उस समय सावरकर जी की इस प्रकार की विचारधारा या चिंतन को उनकी सबसे बड़ी कमजोरी या मूर्खता मान रहे थे उन्हीं लोगों को संकेतों में सावरकर जी अपने ‘अविचारी मित्र’ मित्र कह रहे थे। वास्तव में उस समय इन अविचारी मित्रों से ही सावरकर जी का एक वैचारिक संघर्ष चल रहा था। दुर्भाग्यवश सत्ता के स्वामी सावरकर जी या उनकी विचारधारा के लोग न बनकर यह ‘अविचारी मित्र’ ही बन गए। जिन्होंने सत्ता संभालने के बाद फिर उनसे चुन-चुनकर प्रतिशोध लिया।

‘कांग्रेसी हिंदुओं’ का राजनीतिक अपराध

  सावरकर जी के अपने इन 'अविचारी मित्रों' के साथ चल रहे संघर्ष का एक उदाहरण और देखिए। 1938 के नागपुर अधिवेशन में अपने इन 'अविचारी मित्रों' की पोल खोलते हुए सावरकर जी ने कहा था कि - 'जो मूल राजनीतिक अपराध हमारे कांग्रेसी हिंदुओं ने इंडियन नेशनल कांग्रेस आंदोलन की शुरुआत में किया और जो अभी भी वे लगातार करते आ रहे हैं वह है टेरीटोरियल नेशनलिज्म की मरु मरीचिका के पीछे भागना और इस निरर्थक दौड़ में आर्गेनिक हिन्दू नेशन को बाधा मानकर उसे कुचलना।'

कॉन्ग्रेस पराधीन भारत को यथावत बनाए रखकर औपनिवेशिक स्वराज्य या गृह-शासन की गारंटी सुनिश्चित कर जिस टेरिटोरियल नेशनलिज्म की बात कर रही थी वह सचमुच एक अव्यावहारिक और मूर्खतापूर्ण धारणा ही थी। कांग्रेस के इस सच का तत्कालीन भारत के लोग अर्थ नहीं समझ पाए थे। बाद में जब कांग्रेस ने 1930 के पश्चात पूर्ण स्वाधीनता लेने की बात कही तो उसने अगले 17 वर्ष के घटनाक्रम को ही अपना आजादी का आंदोलन घोषित कर दिया। परिणामस्वरूप कांग्रेस के टेरिटोरियल नेशनलिज्म की मूर्खतापूर्ण धारणाएं दबकर रह गई। सावरकर जी का यह कहना पूर्णतया सही था कि कांग्रेस अपने इस नेशनलिज्म के द्वारा हिंदू नेशन को कुचल रही थी।
सावरकर जी के समक्ष उस समय देश के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को जीवंत बनाए रखने का प्रश्न एक चुनौती के रूप में खड़ा था।
भारत के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की इस चादर को जहां कांग्रेस और मुस्लिम लीग नाम के दो चूहे कुतर रहे थे, वहीं ब्रिटिश शासन नाम का बाज इस चादर को ही लेकर उड़ जाना चाहता था। इस चादर की सुरक्षा को ही सावरकर जी अपने जीवन का सबसे बड़ा मिशन बना चुके थे। उनके जाने के पश्चात आज जिस प्रकार इस्लामिक सांप्रदायिकता देश को फिर जहरीली
हवाओं को चलाकर दम घोटकर मारने की तैयारी कर रही है, तब देश के अधिकांश लोगों को उन दोनों चूहों और बाज वाले खेल के बीच सावरकर जी का चिंतन याद आने लगा है। ऐसे में इतिहासकार आर सी मजूमदार यह कथन पूर्णतया निरर्थक सिद्ध हो जाता है कि ”साम्प्रदायिक आधार पर बंटवारे के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार एक बड़ा कारक… हिन्दू महासभा थी… जिसका नेतृत्व महान क्रांतिकारी नेता वी डी सावरकर कर रहे थे।” (स्ट्रगल फ़ॉर फ्रीडम, भारतीय विद्या भवन, 1969, पृष्ठ 611)
सावरकर जी ने भारत को समग्रता के साथ समझा था। वह इसके अतीत के आर्यत्व को वर्तमान के संदर्भ में हिंदुत्व के साथ समन्वित कर रहे थे ।

डॉ राकेश कुमार आर्य

( यह लेख मेरी नवीन पुस्तक “देश का विभाजन और सावरकर” से लिया गया है। मेरी यह पुस्तक डायमंड पॉकेट बुक्स दिल्ली से प्रकाशित हुई है जिसका मूल्य ₹200 और पृष्ठ संख्या 152 है।)

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