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संपादकीय

देश का विभाजन और सावरकर, अध्याय 8 ( ख ) राष्ट्रीय प्रतीक और देशवासी

प्रत्येक राष्ट्र जीवित रहने के लिए अपने ऐसे प्रतीकों की खोज करता है और उनके प्रति समर्पित होकर रहता है। जिनके भीतर राष्ट्रभक्ति होती है ऐसे लोग भूख प्यास सहन कर सकते हैं, रोग और शोक को सहन कर सकते हैं, गरीबी - फटेहाली और भूखमरी को भी सहन कर सकते हैं पर उन्हें अपने राष्ट्रीय प्रतीकों का अपमान सहन नहीं होता। जो राष्ट्र अपने राष्ट्रीय प्रतीकों का अपमान सहन करने का अभ्यासी हो जाता है, वह दब्बू होकर धीरे-धीरे मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। संसार के अनेक देशों की सभ्यताएं केवल इसीलिए काल कलवित हो गईं कि वे समय के अनुसार अपने राष्ट्रीय प्रतीकों के प्रति अपनी गहन निष्ठा को बनाए रखने में असफल हो गई थीं। सावरकर इस तथ्य को भली प्रकार जानते थे। जबकि कांग्रेस अपने सपनों में खोई रहकर एक नए राष्ट्र को जन्म देने की अतार्किक कोशिश कर रही थी।

सावरकर जी इतिहास के गंभीर विद्यार्थी थे। वे भली प्रकार जानते थे कि भारत ने अपने भीतर राष्ट्र की पवित्र भावना को पराभव के उस काल में भी मरने नहीं दिया जब सर्वत्र निराशा ही निराशा दिखाई देती थी। वे चाहते थे कि राष्ट्र की यह पवित्र भावना राष्ट्रवासियों का आज भी उतनी ही मजबूती से नेतृत्व करती रहे जितनी मजबूती से उसने पराभव के उस काल में नेतृत्व किया था। हम सभी जानते हैं कि भारत के पराभव के काल में एक ओर यदि राष्ट्रवादी लोग देश की एकता और अखंडता के लिए अपना बलिदान दे रहे थे तो उन बलिदानों को लेने वाले उस समय मुसलमान ही थे। अब जबकि अंग्रेज एक तीसरा पक्ष बनकर इन दोनों के बीच में आ गए थे तो मुसलमान इस तीसरे पक्ष के साथ मिलकर इतिहास के अतीत को अपने पक्ष में दोहराने की कोशिश कर रहे थे जबकि सावरकर जी इस बात को भली प्रकार समझते थे कि मुसलमान और अंग्रेज दोनों ही भारतीय राष्ट्रीयता के शत्रु हैं । वह मानते थे कि वर्तमान परिस्थितियों में इन दोनों से लड़ने की आवश्यकता है। सावरकर जी की यह स्पष्ट मान्यता थी कि यदि मुसलमान पूर्ण राष्ट्रभक्त होकर साथ देता है तो उसे साथ लिया जा सकता है और यदि वह किसी अपवित्र पापपूर्ण भावना के वशीभूत होकर साथ रहता है तो उसके ऐसे नाटक का भंडाफोड़ किया जाना अपेक्षित है। गांधी और नेहरू जैसे नेताओं का चिंतन इस ओर पूर्णतया शून्य ही था।
जहां तक कांग्रेस की बात है तो उसे जीवंत वैदिक राष्ट्र स्वीकार नहीं था । यही कारण है कि कांग्रेस वैदिक राष्ट्र अर्थात हिंदू राष्ट्र की अवधारणा को उग्र राष्ट्रवाद का प्रतीक कहती है और वह उस काल्पनिक राष्ट्र की बात करती है जो गांधी और नेहरू का राष्ट्र था और जो 15 अगस्त 1947 को टूट भी चुका है।

नेपाल को दी प्रेरणा

‘सावरकर समग्र’ के उपरोक्त खंड से ही हमको जानकारी मिलती है कि नेपाल को संबोधन करके निकाली गई पत्रिका में सावरकर ने लिखा “चीन-जापान से सबक सीखकर नेपाल अपना भूदल तथा वायुदल अत्याधुनिक बनाए।”
नेपाल को अपना धर्म का भाई मानकर सावरकर जी उसे कभी पड़ोसी देश के रूप में नहीं मानते थे। स्वाधीन भारत के लिए भी उनका यही सपना था कि अपने सभी धर्म के भाइयों के साथ मिलकर काम किया जाए । यदि विश्व में कुछ राष्ट्र अपने आपको मुस्लिम और कुछ अपने आपको ईसाई राष्ट्र के रूप में देखते हैं तो हमें भी अपने धर्म के भाइयों के साथ मिलकर एक तीसरा सशक्त संघ स्थापित करना चाहिए। ऐसा कहने के पीछे उनका उद्देश्य केवल एक ही था कि जिन देशों में हिंदू या हिंदू की विचारधारा के अनुकूल धर्म अभी जीवित हैं, वे सब इस्लाम या ईसाइयत की चपेट में ना आ जाएं। इन सब का ‘एक’ रहना आवश्यक है तभी इनके अस्तित्व की रक्षा हो सकती है।
ज्यू लोगों के संबंध में-जिन्हें यूरोप से निष्कासित किया गया है-सहानुभूति व्यक्त करते हुए सावरकर ने लिखा है कि “उन्हें भारत में बसाने की अपेक्षा फिलिस्तीन में बसाया जाए। क्योंकि वही उनकी पितृभूमि तथा पुण्यभूमि है।” किसी अन्य पत्रिका में सावरकर ने लिखा है कि “भारत के राजबंदियों को तुरंत मुक्त किया जाए। उसी तरह परदेश में रह रहे देशभक्त चट्टोपाध्याय बै. राणा, रासबिहारी बोस, हरदयाल, महेंद्र प्रताप आदि पर लगाई गई पाबंदी हटाकर उन्हें भारत में आने की अनुमति दी जाए।”
सावरकर जी इतिहास के मर्मज्ञ थे। उन्होंने इतिहास का अध्ययन बहुत ही व्यवहारिक दृष्टिकोण अपनाकर किया था। अतीत से शिक्षा लेना और उसे वर्तमान में लागू करना उनके इतिहास अध्ययन की अनोखी परंपरा का ही परिणाम था। इसके विपरीत कांग्रेस ने इतिहास को अतीत का पृष्ठ मानकर उसे अंधेरे में फेंक देने का या निष्प्रयोज्य भंडार में रख देने का काम किया। जहां आवश्यक समझा वहां उसने भारत के गौरव को पूर्णतया विलुप्त कर देने का काम भी किया। इसे सावरकर जी कतई भी सहन नहीं कर सकते थे।

निजाम हैदराबाद और सावरकर जी

जब निजाम हैदराबाद के हिंदू विरोधी आचरण और हिंदुओं पर किए जा रहे अत्याचारों के दृष्टिगत आर्य समाज के नेतृत्व में अनेक हिंदुओं के बलिदानी जत्थे हैदराबाद में प्रवेश करने लगे तो उस समय सावरकर जी को अत्यंत प्रसन्नता की अनुभूति हो रही थी। वे दुष्ट के साथ दुष्टता का व्यवहार करने की नीति में विश्वास रखते थे। अत्याचार को सहन करना भी उनकी दृष्टि में पाप था। जिसका अभिप्राय यह नहीं था कि वह किसी संप्रदाय विशेष के विरुद्ध घृणा से भरे हुए थे, अपितु राष्ट्रीय संदर्भ में और अपने जातीय अस्तित्व की रक्षा के दृष्टिगत ऐसा किया जाना प्रत्येक राष्ट्रभक्त के लिए आवश्यक होता है। भारतवर्ष की भूमि पर जो मजहब अतिथि बन कर आया यदि वह अपनी सीमाओं का उल्लंघन करे और गृहपति का विनाश कर सर्वस्व अपना अधिकार स्थापित करने की कोशिश करे तो ऐसे अतिथि के विरुद्ध हथियार उठाना पूर्णतया धार्मिक कर्तव्य है, नैतिकता है, राष्ट्रीय कर्तव्य है।
उस समय सैकड़ों निहत्थे प्रतिकारक प्रकट रूप में तथा भूमिगत कार्यकर्ता भी मराठों के लड़ाकू संकल्प से निजामशाही में घुसपैठ कर रहे थे। उन्हें अधिक प्रोत्साहित करने के लिए तथा यह युद्ध अधिक तीव्र करने के लिए वीर सावरकर ने ३१ मार्च, १९३९ के दिन एक प्रेरणामय चुनौतीपूर्ण पत्रक प्रकाशित किया— “सोलापुर के आर्यसमाज के तथा नागपुर की हिंदू महासभा के अधिवेशन के पश्चात् विगत तीन महीनों में निजाम निःशस्त्र प्रतिकार के आंदोलन की अपेक्षा से भी अधिक प्रबल आक्रमण चारों ओर से चल रहा है, यह देखकर संतोष हुआ। महाराष्ट्र ने पाई-पाई एकत्रित करते हुए दस सहस्र रुपयों की निधि जमा की। उसमें से दो-ढाई हजार रुपए निजाम रियासत के दंगों में अथवा आंदोलनों में हमारे जो हिंदू बांधव बंदीगृह में बंद थे अथवा आहत हो गए थे उनके मुकदमों के लिए, उनके अनाथ परिवारों की सहायता के लिए प्रत्येक के घर पहुँचा दिए। सिंध से बंगाल तक तथा लाहौर से नागपुर तक हर राज्य की राजधानियों में तथा नगर-नगर में ‘निजाम निषेध दिन’ धूमधाम से मनाया गया। निजाम रियासत के दो हजार छात्रों ने ‘वंदेमातरम्’ प्रकरण में हड़ताल करके मुसलिम धौंस की परवाह न करते हुए मुसलिम स्कूलों, कॉलेजों का बहिष्कार किया और तेजस्वी वृत्ति से रियासत छोड़कर वे विद्यार्जनार्थ कहीं अन्यत्र चले गए। अर्थात् निजाम रियासत के हिंदुओं की नई पीढ़ी में हिंदुत्व के अभिमान तथा उसके लिए त्याग एवं क्लेश का बीजारोपण मुसलमान एकता का प्रश्न ‘आओगे तो तुम्हारे साथ, नहीं चलोगे तो तुम्हारे बिना और विरोध करोगे तो तुम्हारा प्रतिकार करके हम देश का
भवितव्य बिगाड़ेंगे’ इस सूत्र के अनुसार ही हल करना चाहिए।’

मोपला कांड और सावरकर जी

सावरकर जी ने 1921 में हिंदुओं पर मोपला कांड के आयोजकों द्वारा संगठित अपराध होते हुए देखे थे। मोपला कांड में जिस प्रकार हजारों की संख्या में हिंदुओं को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा था, उसके दृष्टिगत सावरकर जी की आत्मा मारे पीड़ा के कराह उठी थी। आज जब वह हिंदू महासभा के अध्यक्ष बन चुके थे, तब उनके ऊपर पूरे राष्ट्र के बहुसंख्यक हिंदू समाज की जिम्मेदारी थी। हिंदू समाज की जिम्मेदारी का अभिप्राय यह नहीं था कि वह केवल और केवल हिंदू समाज के लिए ही सोचते थे, और मुसलमानों से उन्हें किसी प्रकार की घृणा थी? उन्होंने अनेक बार यह स्पष्ट कर दिया था कि देश का जो भी नागरिक हिंदुस्तान को अपनी पितृभूमि और पुण्य भूमि मानता है उसे हम भी गले लगाने को तैयार हैं। उनकी लड़ाई केवल उन लोगों से थी जो हिंदुस्तान को अपनी पुण्य भूमि और पित्र भूमि मानने को तैयार नहीं होते थे। निजाम शाही के द्वारा वहां के हिंदुओं के विरुद्ध जो कुछ भी हो रहा था उसे वह सुनियोजित और संगठित अपराध के रूप में देखते रहे थे। उस सुनियोजित संगठित अपराध को गांधीजी लीपापोती करके खिलाफत आंदोलन की चादर नीचे ढंककर समाप्त करने का कार्य कर रहे थे और सावरकर गांधीजी के ऐसा करने को उनकी सोच के साथ जोड़कर उनके द्वारा देश के साथ किए जा रहे घात के रूप में उजागर कर रहे थे। गांधीजी उस समय यह नहीं समझ रहे थे कि वह सुनियोजित और संगठित अपराध को जिस प्रकार चादर के नीचे छुपाते जा रहे हैं, वह वास्तव में ऐसा करके जहरीले नागों को चादर का संरक्षण प्रदान कर रहे हैं। जब यह जहरीले नाग इस चादर के बाहर निकलेंगे तो राष्ट्र के लिए कितने हानिकारक होंगे ? - इस ओर गांधीजी का ध्यान नहीं था।

गांधीजी की लीपापोती की यह नीति किसी भी दृष्टिकोण से देश और हिंदू समाज के हित में नहीं थी। उनकी यह लीपापोती कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता की और तुष्टिकरण की नीति के रूप में प्रकट होती थी। जिसके परिणामस्वरूप कांग्रेस मुसलमानों की जिद और हठधर्मिता का मूल्य लगाती चली गई और मुस्लिम अपना मूल्य बढ़ाते चले गए। इस समय कांग्रेस की ओर से मुसलमानों की हठधर्मिता की बोली लग रही थी और अंतिम बोली पाकिस्तान के निर्माण पर जाकर समाप्त हुई। यदि घटनाक्रम को इस दृष्टिकोण से समझा जाएगा तो अपने आप ही स्थिति स्पष्ट हो जाएगी कि देश के विभाजन के दोषी कौन था।

डॉ राकेश कुमार आर्य

( यह लेख मेरी नवीन पुस्तक “देश का विभाजन और सावरकर” से लिया गया है। मेरी यह पुस्तक डायमंड पॉकेट बुक्स दिल्ली से प्रकाशित हुई है जिसका मूल्य ₹200 और पृष्ठ संख्या 152 है।)

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