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भारतीय संस्कृति

अघोरी साधु*

अघोरी साधु

डॉ डी के गर्ग

पौराणिक मान्यता: अघोर पंथ, अघोर मत या अघोरियों का संप्रदाय, हिंदू धर्म का एक संप्रदाय बताया गया है। इस संप्रदाय की मान्यताओं का पालन करने वालों को ‘अघोरी‘ कहते हैं। अघोरी या औघड़ शब्द की शुरुआत अघोरपंथ से हुई है,जिसका संस्कृत में अर्थ है ‘उजाले की ओर‘ अथवा ‘पवित्र‘ और इसका जन्मस्थान काशी एवं इतिहास अमूमन १०००-१५०० वर्ष पुराना माना जाता है।
इस पंथ के अनुयायी अपने मत को गुरु गोरखनाथ द्वारा प्रवर्तित मानते हैं।
इस पंथ के प्रमुख प्रचारक मोतीनाथ हुए जिनके विषय में अभी तक अधिक पता नहीं चल सका है। इसकी तीन शाखाएँ (१) औघर (२) सरभंगी तथा (३) घुरे नामों से प्रसिद्ध हैं, जिनमें से पहली में कल्लूसिंह वा कालूराम हुए जो बाबा किनाराम के गुरु थे। अघोराचार्य बाबा कीनाराम (जन्मः१६९३-१७६९, काशी) अघोर सम्प्रदाय के अनन्य आचार्य थे। इनका बारह वर्ष की अवस्था में विवाह अवश्य हुआ पर वैराग्य हो जाने के कारण गौना नहीं कराया। ये देश के विभिन्न भागों का भ्रमण करते हुए गिरनार पर्वत पर बस गये। सन् १७६९ को काशी में ही इनका निधन हुआ।
अघोरी, भैरव (शिव) और भैरवी(काली) के असीम उपासक माने जाते हैं इसलिए उन्हें भगवान शिव का जीवित रूप भी माना जाता है।औघड़ साधना ३ साधनाओं में विभाजित हैः
१. शिव साधनाः भगवान शिव के अनन्य उपासक अघोरी होते हैं जिसमें शिव का स्वरूप देखा जाता है।
२. शव साधनाः ऐसा कहा जाता है कि अघोरी साधना के बल पर मुर्दों से बात करते हैं इसी को शव साधना कहते हैं।
३. श्मशान साधनाः मोक्ष स्थल को संसार का सबसे शक्तिशाली जगह माना जाता है और यही कारण भी है कि यहां पर अघोरी आकर अपनी साधना करते हैं।
‘विवेकसार’ इस पंथ का एक प्रमुख ग्रंथ है जिसमें बाबा किनाराम ने आत्माराम की वंदना और अपने आत्मानुभव की चर्चा की है। उसके अनुसार सत्य वा निरंजन है जो सर्वत्र व्यापक और व्याप्य रूपों में वर्तमान है और जिसका अस्तित्व सहज रूप है।
अघोरी की सबसे बड़ी पहचान है उसका राख से लिपटे रहना, मुर्दे का मांस खाना, उसकी खोपड़ी में मदिरा पान करना तथा घिनौना व्यवहार करना,मल खाना, मूत्र पीना, मृत लाशो के साथ सम्भोग करना भी दिखाई पड़ता हैं जानवर में कुत्तों को पालना और किसी से कुछ ना मांगना,आमतौर पर अघोरी अपना जीवन श्मशान और जंगलों में बिताते हैं, जहां उनकी साधना चरम पर होती है।
नागा साधु और अघोरी बाबा में अंतर
1. नागा साधु और अघोरी बाबा को काफी परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है. साधु बनने में लगभग इनकों 12 साल का वक्त लगता है. नागा साधु बनने के लिए अखाड़ों में रहा जाता है परन्तु अघोरी बनने के लिए श्मशान में तपस्या करनी पड़ती है और जिंदगी के कई साल काफी कठिनता के साथ श्मशान में गुजारने पड़ते हैं.
2. नागा साधु बनने के लिए गुरु का निर्धारण करना अनिवार्य होता है. वह अखाड़े का प्रमुख या कोई भी बड़ा विद्वान हो सकता है. गुरु की दिक्षा और शिक्षा में ही नागा साधु बनने की प्रक्रिया पूर्ण होती है. दूसरी तरफ अघोरी बनने के लिए कोई गुरु का निर्धारण नहीं किया जाता है. उनके गुरु स्वयं शिव भगवान होते हैं.
3. नागा साधु और अघोरी बाबा दोनों ही मांसाहारी होते हैं. कुछ शाकाहारी भी नागा साधुओं में पाए जाते हैं. अघोरी न केवल जानवरों का मांस खाते हैं बल्कि ये इंसानों के मांस का भी भक्षण करते हैं. श्मशान में ये मुर्दों के मांस का भक्षण करते हैं.
4. नागा साधू कपड़ों के बिना रहते हैं और वहीं अघोरी साधु जानवरों की खाल से अपने टन का निचला हिस्सा ढकते हैं. शिव भगवान की तरह ही ये जानवरों की खाल को पहनते हैं.
5. अकसर नागा साधुओं के दर्शन कुंभ मेले में या उनके अखाड़ों में हो जाया करते हैं. लेकिन अघोरी बाबा अधिकतर कहीं भी नजर नहीं आते हैं. ये केवल श्मशान में ही वास करते हैं. इस पंथ को साधारणतः ‘औघड़पनथ‘ भी कहा जाता है।
विश्लेषण:
जैसा की ये संप्रदाय स्वयं को अंधेरे से उजाले की ओर कहते है ऐसा दूर दूर तक नही है अपितु इसका उल्टा है। कहते है की ये मत 1000/1500 साल पुराना है लेकिन ये मत 500 साल पुराना है।
नागा साधु कहो या अघोरी साधु , ये सभी संप्रदाय अशिक्षा और पाखंड की दैन है । कोई भी विचारधारा जिसमे मांस खाना ,शराब पीना, नशा आदि शामिल हो वह किसी भी कारण से स्वीकार्य नहीं हो सकती। ये लोग शमशान में तंत्र मंत्र के नाम पर लोगो को बेवकूफ बनाते है ,ऐसे व्यक्ति भी बोधिहीन कहे जायेंगे जो ऐसे बाबाओ के पास दुःख निवारण के लिए जाते है। ये बाबा मांसाहारी के अतिरिक्त शिव भक्ति के नाम पर नाटक करते है ,अपना मल तक खाते है और इसके समर्थन में तरह तरह के कुतर्क का सहारा लेते है। इनके सभी कार्य मनुष्य की सभ्यता से परे है। इनका कोई भी प्रामाणिक साहित्य उपलब्ध नहीं है -खाता ना बही ,जो बाबा बोले वही सही। ‘‘
दरअसल मुगल काल हमारे देश पर बहुत प्रभावी रहा है और उस समय अपनी जान बचाने के लिए लोग जंगलो में मारे -मारे फिरते रहे और तरह तरह के रूप ग्रहण करके अपना गुजरा बसर करते रहे ,आगे चलकर इसने अंधविस्वास का रूप ले लिया।
मेरी यही सलाह है की वैदिक साहित्य का अध्ययन करें ,सत्य को स्वीकार करें और भारतीय संस्कृति को उपहास का पत्र होने से बचाये।

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