Dr DK Garg
भाग;१
पौराणिक विश्वास : आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को ही देवशयनी एकादशी कहा जाता है। कहीं-कहीं इस तिथि को ‘पद्मनाभा’ भी कहते हैं। देव शयनी एकादशी को भगवान विष्णु चार महीने के लिए सो जाते है । इस दिन से भगवान श्री हरि विष्णु क्षीरसागर में शयन करते हैं
शुक्ल पक्ष की एकादशी के बाद गुरु पूर्णिमा का पर्व आता है और सृष्टि को चार दिन सँभालने का कार्य गुरुदेव करते है। लेकिन इसके तुरंत बाद ही श्रावण माह सुरु हो जाता है और इस माह ये कार्य भगवान शिव ने एक महीने के लिए संभाल लेते है ।फिर आता है भाद्रपद माह और इसी में भगवान कृष्ण जन्माष्टमी भी आती है ।भाद्रपद के 19 दिन भगवान कृष्ण सृष्टि को संभालते है फिर आई गणेश चतुर्थी और दस दिन गणेश जी सृष्टि को संभालते है । उसके बाद 16 दिन पितृदेवों को सृष्टि को संभालने का काम दिया जाता है और इसके बाद आते है नवरात्रि और नवरात्री में मां अम्बे गौरी दुर्गा ने सृष्टि का कार्यभार दस दिन संभाल लिया। इसके बाद फिर शुरू हुए दीवाली के 20 दिन मां लक्ष्मी ने सृष्टि को संभाल लिया। दीवाली के बाद दस दिन संभाला कुबेर जी सृष्टि को सम्हालते है।
इसके बाद देव उठनी एकादशी आती है तब भगवान विष्णु निद्रा से उठाया जाता है और दुबारा से सृष्टि का कार्यभार संभाल लेते हैं। इस दिन को देवोत्थानी एकादशी कहा जाता है। इस बीच के अंतराल को ही चातुर्मास कहा गया है।
इसके अलावा इस विषय में अन्य कई विरोधाभाषी कहानिया उपलब्ध है जो कहती है की देव सो गए है।और तरह तरह की पूजा उपवास बताये जाते है ताकि घर में पैसा आये और उन्नति हो ,बिगड़े काम बन जाये।
वैज्ञानिक विश्लेषण : पहले मुख्य शब्द और इनके अर्थ लेते है पर ध्यान देना जरुरी है ताकि इस मान्यता का वास्तविक भावार्थ समझ आ जाए।
१.देव किसे कहते है: देवो दानाद्वा, दीपनाद्वा द्योतनाद्वा , द्युस्थानो भवतीति वा।
दान देने से देव कहाते है , और दान का अर्थ है अपनी वस्तु दूसरे को देना जो उसके काम आ सके। दीपन कहते है प्रकाश करने को और द्योतन कहते है सत्योपदेश को।इनमें सबसे बडा दान का दाता ईश्वर है जिसने सब कुछ दिया है। विद्वान भी विद्या आदि का दान देने से देवता कहाते है ” विद्वानसो ही देवा ” । सब मूर्ति मान पदार्थों का प्रकाश करने से सूर्य आदि को भी देवता कहते है।
देवता दो प्रकार के होते है -१-जड देवता ।२- चेतन देवता ।
माता , पिता , गुरु , आचार्य , अतिथि , पति पत्नी ये सब चेतन देवता है। और इन चेतन देवो की पूजा करनी चाहिये क्योंकि ये हमारा पालन पौषण करते है , हमारी रक्षा करते है हमे ज्ञान देकर मनुष्य बनाते है।और पूजा का अर्थ है सत्कार करना इन सबका सम्मान करना इनकी आज्ञा का पालन करना , इनकी आवश्यकता पूरी करना यही इनकी पूजा है ।और जो ऐसा नहीं करता उसे कृत्घ्नता का पाप लगता है।
हां, इतना जरूर है की यदि माता पिता उल्टी गलत शिक्षा दे तो उनकी गलत बात बिल्कुल न माने यदि वे चोरी आदि या मद्यपान आदि बुरी सलाह दे तो उसको न माने लेकिन सेवा फिर भी करे।
प्रश्न : फिर तैंतीस कोटि के देवता क्या है ?
उत्तर : ये सभी जड देवता तैंतीस प्रकार के है।
• आठ वसु अग्नि , पृथ्वी , जल ,वायु ,सूर्य ,आकाश,चन्द्रमा और नक्षत्र । इन्हें वसु इसलिए कहते है कि सब पदार्थ इन्ही मे वसते है।
• ग्यारह रुद्र –शरीर मे दश प्राण जिनमे प्राण , अपान , व्यान , उदान ,समान , नाग , कुर्म , कृकल,देवदत्त ,धनञ्जय और ग्यारहवा जीवात्मा ।क्योंकि जब ये शरीर से निकलते है तो मरण होने से सब सम्बन्धी रोते है इसलिए इन्हें रुद्र कहते है।
• बारह आदित्य जो की बारह महिनो को कहते है क्योंकि सब जगत के पदार्थों का ये आदान करते है सबकी आयु को ग्रहण करते है।
• इन्द्र बिजली को कहते है क्योंकि सब ऐश्वर्य की विद्या का आधार वही है।
• यज्ञ को प्रजापति इसलिए कहते है क्योंकि सब वायु और वृष्टिजल की शुद्धि द्वारा प्रजा का पालन होता है तथा पशुओं को भी यज्ञ कहते है क्योंकि उनसे भी प्रजा की पालन होता है।
उपरोक्त सभी ये तैंतीस देव कहाते है। जड देवता (ईश्वर द्वारा दिये जड पदार्थ) का अपने व दूसरे के सुख के लिए सदुपयोग करना ही जड़ पूजा है।ईश्वर द्वारा बनाये पदार्थों की रक्षा करना उन्हें गन्दा न करना ही पूजा है क्योंकि ये अमूल्य है ।
इसलिए ये सारे देव उपास्य नहीं है क्योकि ईश्वर सब देवो का देव होने से महादेव कहाता है और केवल वही उपास्य है दूसरा नहीं।
2.एकादशी और एकादशी का व्रत क्या हैं ?
एकादशी क्या है इसे समझ लीजिए। हमारे शरीर में पाँच ज्ञानेन्द्रिय और पाँच कर्मेन्द्रिय तथा एक मन―ये ग्यारह तत्व होते हैं ।इन सबको ठीक रखना और अपने वश में रखना बहुत जरूरी है जैसे कि आँखों से शुभ देखना, कानों से शुभ सुनना, नासिका से अच्छी स्वास लेते रहना, वाणी से मधुर बोलना, जिह्वा से शरीर को बल और शक्ति देने वाले पदार्थों का ही सेवन करना, हाथों से उत्तम कर्म करना, पाँवों से उत्तम सत्सङ्ग में जाना, जीवन में ब्रह्मचर्य का पालन करना―यह है सच्चा एकादशी-व्रत।
विस्तार से समझाने के लिए ५ ज्ञानेंद्रिया और ५ कर्मेन्द्रिया कौन से है जिनको शुद्ध रखने का नाम व्रत है -पांच ज्ञानेंद्रियां- आंख, कान, नाक, जीभ और त्वचा; पांच कर्मेंद्रियां- हाथ, पैर, मुंह, गुदा और लिंग और चार अंतःकरण- मन बुद्धि चित्त और अहंकार।
एकादशी साल में 24 बार आती है इसका मतलब है की हर माह में दो बार यानी अमावस्या और पूर्णिमा को उपवास द्वारा अपनी ज्ञानेंद्रिय शुद्ध करें।
3 व्रत का अर्थ क्या है ?
यजुर्वेद में बहुत स्पष्ट रुप में बताया गया है। देखिए―
अग्ने व्रतपते व्रतं चरिष्यामि तच्छकेयं तन्मे राध्यताम्।
इदमहमनृतात्सत्यमुपैमि।।―(यजु० 1ध्5)
भावार्थ―हे ज्ञानस्वरुप प्रभो! आप व्रतों के पालक और रक्षक हैं। मैं भी व्रत का अनुष्ठान करुँगा। मुझे ऐसी शक्ति और सामर्थ्य प्रदान कीजिए कि मैं अपने व्रत का पालन कर सकूँ। मेरा व्रत यह है कि मैं असत्य-भाषण को छोड़कर सत्य को जीवन में धारण करता हूँ।
इस मन्त्र के अनुसार व्रत का अर्थ हुआ किसी एक दुर्गुण, बुराई को छोड़कर किसी उत्तम गुण को जीवन में धारण करना।
4 अन्य प्रमुख शब्दार्थ : इस कथानक में कुछ और प्रमुख नाम प्रयोग किये है जिनका भावार्थ भी समझाना चाहिए –
गणेश : (गण संख्याने) इस धातु से ‘गण’ शब्द सिद्ध होता है, इसके आगे ‘ईश’ वा ‘पति’ शब्द रखने से ‘गणेश’ और ‘गणपति शब्द’ सिद्ध होते हैं। ‘ये प्रकृत्यादयो जडा जीवाश्च गण्यन्ते संख्यायन्ते तेषामीशः स्वामी पतिः पालको वा’ जो प्रकृत्यादि जड़ और सब जीव प्रख्यात पदार्थों का स्वामी वा पालन करनेहारा है, इससे उस ईश्वर का नाम ‘गणेश’ वा ‘गणपति’ है।
भगवान कृष्ण: श्री कृष्ण का तो जन्माष्टमी को जन्म दिन मानाया जाता है फिर जन्म होते ही सृष्टि को कैसे सम्हालते ? महाभारत के कृष्ण के तो देहांत का उल्लेख भी मिलता है लेकिन महापुरुष के रूप में उनको याद किया जाता है। लगता है की कृष्ण का नाम लेकर ये कहानी पूरी करने का प्रयास किया गया है और कुछ नहीं।
गुरु : यहाँ सृष्टि को सम्हालने के लिए गुरु शब्द का प्रयोग ईश्वर के लिए ही हुआ है क्योकि ईश्वर ही इस सृस्टि का निर्माता और चालाने वाला है। (गॄ शब्दे) इस धातु से ‘गुरु’ शब्द बना है। ‘यो धर्म्यान् शब्दान् गृणात्युपदिशति स गुरुः’ ‘स पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात्’। योग०। जो सत्यधर्मप्रतिपादक, सकल विद्यायुक्त वेदों का उपदेश करता, सृष्टि की आदि में अग्नि, वायु, आदित्य, अंगिरा और ब्रह्मादि गुरुओं का भी गुरु और जिसका नाश कभी नहीं होता, इसलिए उस परमेश्वर का नाम ‘गुरु’ है।