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विशेष संपादकीय संपादकीय

योगी का पराक्रम और प्रताप

‘कटती गैया करे पुकार, बंद करो यह अत्याचार’-यह एक नारा था, जिसे भारत में गोभक्त लंबे समय से लगाते चले आ रहे थे। पर देश की सरकारें थीं कि गोभक्त और गोवंश को मिटाने पर लगी थीं। सर्वत्र हाहाकार मची थी। भारतीय गोभक्त संस्कृति का आंखों देखते-देखते सर्वनाश हो रहा था। अवैध बूचड़खानों की बाढ़ आ गयी थी। एक ‘पैक्ट’ के अंतर्गत वोट उसी पार्टी या नेता को दिये जा रहे थे जो अवैध कार्यों को चलने देने की गारंटी दे। सारा लोकतंत्र और लोकतांत्रिक मशीनरी अवैध कार्यों को पोषित करने की व्यवस्था में परिवर्तित हो गयी थी। जब व्यवस्था अवैध कार्यों को कराने की पोषक हो जाती है-तभी उसे दुव्र्यवस्था कहा जाता है और जब व्यवस्था में सज्जन व्यक्ति को सांस लेना कठिन हो जाए या व्यवस्था गला घोंटने लगे तब उस अवस्था को अराजकता कहा जाता है। भारत में यही हो रहा था- व्यवस्था दुव्र्यवस्था से भी आगे जाकर अराजकता में परिवर्तित हो चुकी थी।
उत्तर प्रदेश की जनता को पुन: एक बार बधाई, जिसने परिपक्व निर्णय लिया और सत्ता की चाबी सत्ता के दलालों (त्रिशंकु विधानसभा बनने पर जो लोग सत्ता में अपनी-अपनी भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए अपना-अपना हिस्सा मांगते) के हाथों में न देकर सीधे एक ऐसे व्यक्ति के हाथों में सौंप दी-जिसके आने की आहट से ही गौमाता को राहत की सांस मिलनी आरंभ हो गयी। पराक्रम इसी का नाम होता है कि जिसके पुण्य कर्मों से निर्मित उसका पुण्यमयी प्रतापी आभामण्डल समाज के अतिवादी लोगों को कंपायमान कर दे और सज्जनों को चैन की सांस दिला दे। योगी आदित्यनाथ ने मुख्यमंत्री की कुर्सी की ओर पांव बढ़ाया तो अवैध बूचड़खानों की जानकारी सारे देश को होने लगी कि वैध के नाम पर कितने अवैध बूचड़खाने इस प्रदेश में चल रहे थे। तुष्टिकरण और वोटों की राजनीति करने वाले राष्ट्रघाती राजनीतिज्ञों की काली करतूतें और कारनामे अपने आप सामने आने लगे। जिनके चलते वोट प्राप्ति के बदले लोगों को अवैध बूचड़खाने चलाने की अवैध अनुमति दी जाती रही है।
सत्ता कितनी निर्दयी होती है और राजनीति कितनी स्वार्थी होती है इसका प्रमाण अब हम आप सभी अपनी नंगी आंखों से देख रहे हैं। यह सत्ता ही थी जो गोभक्तों को और गोवंश को काटने का प्रबंध कर रही थी और यह राजनीति ही थी जो पर्यावरण संतुलन को बिगाडऩे की पूरी व्यवस्था केवल इसलिए कर रही थी कि गोमांस के बदले उसे सत्ता मिल रही थी। गोवंश कटे और उसकी चीख इस वायुमंडल में जाकर इसे चाहे कितना ही वेदनामयी बना डाले, उनका रक्त नालियों में बहकर चाहे नदियों को कितना ही प्रदूषित क्यों न करे इन सत्ता स्वार्थी लोगों को इससे कोई लेना देना नहीं था। इन्हें तो सत्ता चाहिए थी और सत्ता के बिना ये रह नहीं सकते थे। इसलिए चाहे जितना गिरना पड़े ये गिरने को तैयार थे। अपने गिरने को भी इन्होंने विकास और प्रगतिशीलता के साथ जोडक़र दिखाना आरंभ कर दिया था। इनकी मान्यता थी कि मांसाहार मनुष्य का स्वाभाविक भोजन है और यदि मांसाहार को बंद कर दिया गया तो धरती पर मानव का जीना कठिन हो जाएगा। मनुष्य के अस्तित्व को बनाये रखने के लिए मांसाहार आवश्यक है। अपने इन तर्कों से इन राजनीतिज्ञों के खरीदे हुए चैनल और तथाकथित विद्वानों की उन चैनलों पर होने वाली चर्चाओं से इसी प्रकार लोगों को भ्रमित करने का प्रयास किया जा रहा था। यहां तक भी कहा जाने लगा था कि आप क्या खाते हैं-इससे मुझे क्या लेना देना। आप क्या खा रहे हैं और क्या नहीं-यह आपका अपना निजी विषय है। यह तर्क सरकार की मानव स्वास्थ्य के प्रति उपेक्षापूर्ण कार्यशैली को तो स्पष्ट करता ही था-साथ ही टीवी चैनलों पर बैठकर ऐसी बातें करने वाले तथाकथित विद्वानों के वैचारिक खोखलेपन को भी स्पष्ट करता था। इनसे कोई यह पूछने वाला नहीं था कि मानव स्वास्थ्य की सुरक्षा करना सरकार का और (बुद्घिजीवियों से निर्मित) समाज का कार्य है। यदि लोग ऐसा भोजन करने लगते हैं जो मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण पर विपरीत प्रभाव डाल रहा है तो उधर से उन्हें रोकना सरकार और समाज दोनों का कत्र्तव्य है।
हम योगी आदित्यनाथ के विषय में कहना चाहेंगे कि वे अपने क्रांतिकारी आंदोलन को निरंतर जारी रखें। जनता का अधिकांश भाग यही चाहता है-जो वह करने लगे हैं। हो सकता है कुछ लोगों को कष्ट हो रहा हो, परंतु यह कष्ट उन लोगों को हो रहा है जो अवैध कार्यों को करते हुए अपना जीवन यापन तो कर रहे थे पर शेष लोगों का जीना जिन्होंने कठिन कर दिया था, और जीवधारियों की हत्या कर-करके पर्यावरण संतुलन को भी बिगाड़ रहे थे। इतना ही नहीं समाज में अधिकांश सांप्रदायिक दंगे भी इसीलिए होते थे कि गायों को कुछ लोग सार्वजनिक रूप से काटने लगे थे, जिससे गोभक्तों को कष्ट होता था। ‘बिसाहड़ा काण्ड’ का सच यदि सामने आ जाए तो पता चलेगा कि यहां क्या हुआ था? और फिर उसे किस प्रकार ‘एक प्रतिबंधित पशु की हत्या’ कहकर दबा लिया गया था।
अच्छा हो कि योगी आदित्यनाथ गाय को एक पशु न मानकर उसे मनुष्य मानें और उसकी हत्या करने वाले को मनुष्य की हत्या करने वाले के समान दंडित कराने की व्यवस्था करें। गाय के दूध से बनी छाछ को होटलों रेस्तरांओं में ठंडे पेय के स्थान पर दिलाने की व्यवस्था करायें और गोमूत्र और गोघृत से अधिक से अधिक औषधियां बनाने के लिए लोगों को प्रेरित करें। इससे गाय हमारी अर्थव्यवस्था के केन्द्र में आ जाएगी और उसके आर्थिक उपयोग को समझकर लोग उसे पालने के प्रति प्रेरित होंगे। साथ ही योगी को यदि प्रदेश में अवैध बूचड़खाने चलाने वाले लोग यह आश्वासन दें कि भविष्य में इस व्यवसाय को पुन: नहीं अपनाएंगे तो ऐसे लोगों के पुनर्वास की व्यवस्था भी गौ से उत्पादित उत्पादों के माध्यम से ही करायें अर्थात उन्हें गोमूत्र और गोघृत से औषधियां बनाने का कौशल सिखाया जाए। योगी जी की बूचड़खाने बंद करने की मुहिम अभी तो यही बता रही है कि उनका पराक्रम उनके पुण्य कार्यों के प्रताप से बड़ा प्रबल बन पड़ा है। योगी जी…..तुम जियो हजारों साल…..।

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