गांधीजी की धर्मनिरपेक्षता
गांधीजी की धर्मनिरपेक्षता को गांधीवाद का एक महान लक्षण बताकर महिमामंडित किया गया है। हिंदू उत्पीडऩ, हिंदू दमन, हिन्दू का शोषण और विपरीत मजहब वालों का तुष्टिकरण गांधीवाद में धर्मनिरपेक्षता की यही परिभाषा है। इस पर हम पूर्व लेखों में पर्याप्त प्रकाश डाल चुके हैं। अपनी इसी धर्मनिरपेक्षता के कारण गांधीजी ने नोआखाली रक्तपात के सूत्रधार सुहरावर्दी को ‘भला व्यक्ति’ कहा था। इसी प्रकार 13 जनवरी सन 1947 ई. से उन्होंने पाकिस्तान को 55 करोड़ रूपये भारत के कोष से उस समय दिलाने के कारण आमरण अनशन आरंभ कर दिया था कि जब देश के कोष में अपने कर्मचारियों को भी वेतन देने के लिए रूपया नहीं था। उनके शिष्य पंडित नेहरू की सरकार उनकी इस बेतुकी मांग के आगे अगले दिन ही झुक गयी। इस प्रकार जिस तुष्टिकरण के परिणामस्वरूप राष्ट्र का मजहब के आधार पर गांधीजी की अहिंसा विभाजन नहीं रूकवा पायी उससे कोई शिक्षा न लेते हुए उन्हीं उन्मादियों के लिए गांधीजी ने 55 करोड़ रूपया भारत सरकार से दिलवा दिया, जो कल तक ‘भारत विभाजन’ की मांग कर रहे थे। उन लोगों का देश के पुन: विभाजन के लिए उस समय नारा था-
हँस कर लिया पाकिस्तान।
लड़ कर लेंगे हिन्दुस्तान।।
धर्मनिरपेक्ष (राष्ट्रधर्म से हीन) बने गांधीजी के कान पाकिस्तानी उन्मादियों की इस विखण्डनवादी सोच के नारों को सुन नहीं पाये। गांधीवाद का तकाजा भी वही है। बाद की घटनाओं ने यही सिद्घ किया कि उन्मादी, विघटनवादी और विखण्डनकारी शक्तियों का तुष्टीकरण तो किया जाएगा, किंतु उनकी सोच और नारों को अनदेखा और अनसुना किया जाएगा। यह गांधीवादी दृष्टिकोण हमारे नेताओं का आज तक बना हुआ है। गांधीजी की इसी धर्मनिरपेक्षता का विरोध करते हुए 13 जनवरी सन 1948 ई. को विस्थापितों का एक जुलूस बिड़ला हाउस के पास नारे लगा रहा था-‘गांधी मरता है तो मरने दो’। आखिर क्यों? क्योंकि गांधीजी की धर्मनिरपेक्षता ‘मर्मनिरपेक्ष’ भी हो गयी थी। इसलिए धर्मनिरपेक्ष गांधीजी विस्थापितों के मर्म को नहीं समझ पा रहे थे। देखिये जैसा कि विराज महोदय लिखते हैं-
”लुट-लुटकर, पिट-पिटकर, आहत, लांछित और त्रस्त होकर उस समय लाखों हिन्दुओं का सिर फिर गया था। वे गोली भले ही न चला रहे हों, गालियां तो बरसा ही रहे थे। भले आदमी के लिए गाली भी किसी गोली से कम नही होती।” जब विभाजन के समय से थोड़ा पूर्व मुसलमान हिंदुओं की हत्याएं कर रहे थे तो गांधीजी की धर्मनिरपेक्षता ये उपदेश दे रही थी कि-”अगर सब हिंदू और सिख अपने मुसलमान भाईयों के हाथों दिल में गुस्सा लाये बिना मर भी जाएं तो वे केवल हिंदू सिख मजहब की ही नहीं अपितु इस्लाम व विश्व की भी रक्षा करेंगे।”
दुर्भाग्य से इसी गांधीवाद ने हमारे लिए इसी लज्जास्पद धर्म को राष्ट्र धर्म बना दिया है। कश्मीर में हो रही हिन्दू हत्याओं के प्रति इनका यही दृष्टिकोण है। कैसे बोलें ‘गांधीजी की जय’ कुछ भी समझ में नही आता। धर्मनिरपेक्षता की यह परिभाषा गांधीजी का मौलिकचिंतन था। इसलिए वे गांधीवाद का एक अंग अवश्य माना जाना चाहिए और यदि हम देखें तो भारत में गांधीवाद किसी क्षेत्र में जीवित है तो वह इसी क्षेत्र में (धर्मनिरपेक्षता के नाम पर मुस्लिम तुष्टिकरण के रूप में) जीवित है। इस गांधीवाद से इस राष्ट्र को कितनी क्षति हुई है? इसे इस राष्ट्र का प्रत्येक ऐसा व्यक्ति जानता है जो कि राष्ट्रीय समस्याओं के प्रति तनिक सा भी जागरूक अथवा संवेदनशील है। इस गांधीवाद के चलते इस राष्ट्र में वह व्यक्ति गिरफ्तार नहीं किया गया, जिसने सार्वजनिक रूप से स्वयं को आईएसआई का एजेंट कहा और सारी हिन्दुस्तानी सरकार को चुनौती दी कि ‘यदि उसमें साहस है तो मुझे गिरफ्तार करे।’ जबकि समाजसेवा और राष्ट्रसेवा को अपने जीवन का लक्ष्य बनाकर चल रहे कांचीपीठ के शंकराचार्य ‘जयेन्द्र सरस्वती’ को राजनीतिक विद्वेष भावना के कारण गिरफ्तार करन् उन्त्पीडि़त किया गया है।
जय हो गांधीवाद की! गांधीवादियों की !! और गांधी के ध्वजवाहकों की !!! गांधीजी के इस विचित्र गांधीवाद की। सुबुद्घ पाठकवृन्द! आप निर्णय करें कि-
क्या गांधीवाद एक षडय़ंत्र नहीं है?
क्या गांधीवाद राष्ट्रद्रोह नहीं है?
क्या गांधीवाद षडय़ंत्रकारी नहीं है?
क्या गांधीवाद राष्ट्र के लिए घातक नहीं है?
गांधीजी और नैतिक मूल्य
नैतिक मूल्यों के आधार बनाकर भी गांधीवाद का एक धूमिल चित्र भारत में गांधीवादियों ने खींचने का प्रयास किया है। गांधीजी भारतीय राजनीति को धर्महीन बना गये। वह उसे संप्रदाय निरपेक्ष नहीं बना सके, अपितु उसे इतना अपवित्र करन् दिया है कि वह सम्प्रदायों के हितों की संरक्षिका सी बन गयी जान पड़ती है। इससे भारतीय राजनीति पक्षपाती बन गयी। जहां पक्षपात हो वहां नैतिक मूल्य ढूंढऩा ‘चील के घोंसले में मांस ढूढऩे के बराबर’ होता है। नैतिक मूल्य, नीति पर आधारित होते हैं नीति दो अक्षरों से बनी है-नी+ति। जिसका अर्थ है एक निश्चित व्यवस्था। नीति निश्चित व्यवस्था की संवाहिका है, ध्वजवाहिका है और प्रचारिका है। यह निश्चित व्यवस्था मानव को मानव से जोड़ती है। मानव को मानव बनाती है, राष्ट्रवासियों में संप्रदाय, वर्ग, पंथ और जाति की दीवारों को गिराने में सहायक बनती है।
(लेखक की पुस्तक ‘वर्तमान भारत में भयानक राजनीतिक षडय़ंत्र : दोषी कौन?’ से)