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विश्वगुरू के रूप में भारत

भारत के 50 ऋषि वैज्ञानिक अध्याय – 11 , ब्रह्मर्षियों का देश है भारत

वेदों ने मानव जीवन का अंतिम उद्देश्य कैवल्य या मोक्ष की प्राप्ति बताया है। ऐसा काल भारतवर्ष में बहुत लंबा रहा है जिसमें हमारे ऋषि पूर्वजों ने कैवल्य की साधना करते हुए उसे प्राप्त भी किया। मोक्ष की साधना में लगे इन ऋषियों के लिए सुरक्षात्मक वातावरण उपलब्ध कराना हमारे क्षत्रियों का विशेष दायित्व रहा। वैदिक सनातन धर्म में एक ब्रह्मर्षि ऋषियों के उच्चतम वर्ग (“द्रष्टा” या “ऋषि”) का सदस्य है। ब्रह्मर्षि एक ऐसा ऋषि है जिसने आत्मज्ञान ( कैवल्य या मोक्ष ) प्राप्त किया है। अपनी साधना की ऊंचाई पर पहुंचकर अर्थात उसे प्राप्त करके, अपने लक्ष्य की सिद्धि करके जो जीवन मुक्त बन जाए और उच्चतम दिव्य ज्ञान, अनंत ज्ञान परमपिता परमेश्वर की दिव्यता और भव्यता को प्राप्त कर ले, वह ब्रह्मर्षि कहलाता है। ऐसा ऋषि आवागमन के चक्र से छूट जाता है। इसके पश्चात मुक्ति की अवस्था में रहकर वह परमानंद का लाभ प्राप्त करता है।
हमारे देश भारत वर्ष को कभी आर्यवर्त कहा जाता था। उससे पहले इस देश का नाम अजनाभ भी रहा है और उसके पूर्व सृष्टि प्रारंभ में इस देश को ब्रह्मावर्त भी कहते थे।
यह वह काल था जब हमारे देश में अनेक ब्रह्मर्षि हुआ करते थे। उनके सत्याचरण और शुद्धाचरण का अनुकरण करके जनसाधारण भी जीवन को शुद्ध बनाए रखता था। सर्वत्र धर्म का ही साम्राज्य होता था और लोग एक दूसरे के साथ धर्मानुकूल व्यवहार करके ही प्रसन्न होते थे। छल, कपट ,चोरी , चालाकी आदि दुर्गुण समाज में ढूंढने से भी नहीं मिलते थे। वास्तव में उस समय देश को ब्रह्मावर्त कहना पूरे देश की संस्कृति को अभिव्यक्ति देना था।

ब्रह्मावर्त कहते किसे और कहां स्थित अजनाभ?
आर्यावर्त इस देश का , किसने डाला नाम ?

अजनाभ खंड का अर्थ ब्रह्म की नाभि या नाभि से उत्पन्न होना माना जाता है। ब्रह्म की नाभि से उत्पन्न होने का अभिप्राय सही संदर्भ में ग्रहण करना चाहिए। ब्रह्म की नाभि से उत्पन्न होने के जो काल्पनिक चित्र पौराणिक जगत में दिए जाते हैं, वे चित्र वास्तव में हमारे ब्रह्मर्षियों के वैज्ञानिक चिंतन को स्पष्ट करने में समर्थ नहीं होते। लोक व्यवहार में अक्सर हम किसी व्यक्ति के बारे में ऐसा असर सुनते हैं कि अमुक व्यक्ति अमुक व्यक्ति का मानस पुत्र है। ऐसे व्यक्ति को जिसका मानस पुत्र बताया जाता है वह उसका पिता तो नहीं होता परंतु पिता से कम भी नहीं होता। मानस पुत्र की स्थिति तभी प्राप्त होती है, जब कोई व्यक्ति किसी अपने प्रेरणास्रोत के मानस के साथ तारतम्य स्थापित कर लेता है और अपने उसी प्रेरणा स्रोत के मानस से निकलने वाली ज्ञानधारा को अपने मुखारविंद से अमृत वर्षा के रूप में लोगों के बीच प्रकट करने लगता है।

हम सभी जानते हैं कि हमारा देश भारतवर्ष प्राकृतिक सौंदर्य से भरा हुआ देश है । इसमें तीनों ऋतुओं का समागम होता है। यहां जन्म लेने के लिए देवता लोग भी तरसते हैं। क्योंकि संसार के ऐसे अनेक देश हैं जिनमें सूर्य लगातार कई – कई महीने दिखाई नहीं देता । कहीं मारे गर्मी के लोग लोग हांफते हैं तो कहीं मारे ठंड से सिकुड़ते रहते हैं। ब्रह्मा ने भारतवर्ष में ही सृष्टि की उत्पत्ति का क्रम आरंभ किया । कहने का अभिप्राय है कि ब्रह्मा ने अपनी सृष्टि का शुभारंभ भारत की भूमि से किया, इसीलिए इस पवित्र भूमि को अजनाभ भी कहा गया।
परमपिता परमेश्वर ने जीवनमुक्त पवित्र-आत्मा ऋषियों को ही सृष्टि प्रारंभ में वेदों का ज्ञान दिया। ऋषि दयानन्द बताते हैं कि “अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा ऋषि ही सब जीवों से अधिक पवित्रात्मा थे। अन्य उनके सदृश नहीं थे। इसलिये पवित्र वेद विद्या का प्रकाश उन्हीं की आत्माओं में किया।”

अग्नि, वायु ,अंगिरा और ऋषि आदित्य।
वेद ज्ञान इनको मिला वही सनातन नित्य।।

यह एक सर्वमान्य सत्य है कि जैसा बीज होगा या जैसा मूल होगा वैसे ही फल लगेंगे। मानव जाति के मूल में इन चारों ऋषियों की तपस्या व साधना का बीज पड़ा है। यही कारण है कि इनसे चलने वाली आगे की संतति ऐसी रही जिसमें हम अनेक ज्ञानी, महात्मा ऋषियों के फल चखने को मिले। आज के संसार में इन चारों ऋषियों के द्वारा दिए गए वेद ज्ञान को सबसे अधिक आर्य/ हिंदू ही अपने निकट मानते हैं। जो लोग किसी अन्य धर्म ग्रंथ की शिक्षाओं को अपने लिए उत्तम मानने लगे, उन्होंने संसार में अत्याचारों को प्रोत्साहित किया । पर वेदों के ज्ञान को अपने लिए दिया गया ईश्वरीय ज्ञान मानने वाले हिंदू समाज के लोग आज भी संसार में शांति और अहिंसा का संदेश देते हैं।
इन पवित्रात्मा ऋषियों के द्वारा वेद ज्ञान की प्राप्ति के पश्चात ही इस सृष्टि का क्रम आगे बढ़ा। वेद अपौरुषेय ग्रंथ कहे गए हैं। अन्य सभी ग्रंथ पौरुषेय हैं । इस प्रकार हम भारत के लोग जब अपने संविधान में “हम भारत के लोग…” कहकर संविधान की प्रस्तावना का शुभारंभ करते हैं या उसका पाठ करते हैं तो समझिए कि हम “भारत के लोग” का एक अर्थ यह भी है कि हम सब ऋषियों की संतानें हैं और परमपिता परमेश्वर के वेद ज्ञान पर सबसे पहला अधिकार हमारा है। इस प्रकार संसार को व्यवस्था देने वाले और व्यवस्थित रहकर संसार में व्यवस्था के संस्थापक भी हम ही हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि हम ऋषियों की संतानें हैं, बंदरों की नहीं। बीज रूप में मिला वेद ज्ञान संसार में अनेक प्रकार के आविष्कारों का आधार बना। इस ज्ञान के आधार पर ही भारत के ऋषि पूर्वजों ने संसार में मानव सभ्यता का प्रचार, प्रसार और विस्तार किया। हमने कबीलाई खूनी संस्कृति को नहीं फैलाया, इसके विपरीत हमने अहिंसा और प्रेम की संस्कृति को फैलाया।
ब्रह्मऋषि धर्म और आध्यात्मिक ज्ञान का परम विशेषज्ञ होता है जिसे ‘ब्रह्मज्ञान’ कहा जाता है। उनके नीचे महर्षि ( महान ऋषि ) हैं। 
इन ब्रह्मर्षियों के द्वारा आत्मा के लोक से लेकर परलोक तक की यात्रा करने का अनूठा मार्ग अपनाया गया। इसी विशिष्टता और विशिष्ट ज्ञान के कारण हमारे ऋषि पूर्वजों ने अनेक प्रकार के आविष्कार किए। यह क्रम 1 अरब 96 करोड 8 लाख 53 हजार 1सौ 24 वर्ष पुराना है। यही इस समय सृष्टि सम्वत चल रहा है। यदि पश्चिमी जगत और विशेष रूप से यूरोप की ओर देखें तो वहां पर सबसे पहली बार आर्कमिडीज के बारे में माना जाता है कि वह ईसा पूर्व ( 287 से 212 ) था और उसके द्वारा विज्ञान के क्षेत्र में आर्कमिडीज का सिद्धांत प्रतिपादित किया गया। तदुपरांत आइज़क न्यूटन इंग्लैंड में जन्मा जिसका काल 25 दिसंबर 1642 से 20 मार्च 1726 माना जाता है। इसी प्रकार इटली में गैलीलियो 15 फरवरी 1564 को जन्मा जिसका देहांत 8 जनवरी 1642 को हुआ। इतने काल में ही पश्चिम में भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में कुछ उन्नति होती हुई दिखाई देती है। पश्चिमी जगत की इस भौतिक उन्नति पर भी हम देखें तो वह भी भारत के वैदिक ज्ञान से चुराई हुई उन्नति है। यह हमारे लिए कितनी प्रसन्नता का विषय है कि भारत के ऋषि, महर्षि और ब्रह्मर्षियों की भांति पश्चिमी जगत में आज तक एक भी ऐसा वैज्ञानिक नहीं हुआ, जिसने आत्मा के लोक की बात की हो।
हमारे यहां पर आग्नेयास्त्र, ब्रह्मास्त्र, पाशुपतास्त्र, सुदर्शन चक्र पश्चिमी जगत की तथाकथित भौतिक उन्नति से हजारों वर्ष पूर्व उपलब्ध थे। उस पर भी हमारे बौद्धिक विवेक का इतना कड़ा नियंत्रण रहता था कि वे हथियार कभी भी जनसंहार के लिए प्रयोग नहीं किए गए।
अग्नि, वायु ,आदित्य और अंगिरा की इस परंपरा में हमारे पास ऐसे अनेक ऋषि रहे हैं जिन्होंने कैवल्य को प्राप्त किया। उनकी इस महान परंपरा को संसार में आने वाले मत ,पंथ और संप्रदायों ने विनष्ट करने का कार्य किया। इसका कारण केवल एक रहा कि यदि भारतवासियों को भारत के ऋषियों की महान परंपरा से अवगत करा दिया गया तो उनके मत, पंथ और संप्रदायों की सारी पोल खुल जाएगी और भारत अपनी गरिमा से फिर झिलमिला उठेगा। आज आवश्यकता इस बात की है कि हम अपने इन ऋषियों के द्वारा प्रदान किए गए वेद ज्ञान को प्राप्त कर उसके अनुसार अपने जीवन को ढालने, संवारने और सुधारने का प्रयास करें।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

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