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इतिहास के पन्नों से हमारे क्रांतिकारी / महापुरुष

भारतीय स्वाधीनता का अमर नायक राजा दाहिर सेन,  अध्याय – 11 (1) राजा दाहिर की रानी का बलिदान

भारत के क्षत्रिय धर्म के बारे में महाभारत में बड़ा  विशद विवेचन किया गया है। वहाँ पर बताया गया है कि सभी पुरुष देखने में तो समान ही होते हैं, परन्तु युद्धभूमि में जब सैनिकों के परस्पर लड़ने – भिड़ने का समय आता है और चारों ओर से वीरों की पुकार होने लगती है, उस समय उनमें जो महान् अन्तर दृष्टिगोचर होता है उससे उनके विषय में बहुत कुछ जानने को मिलता है।
       प्रथम श्रेणी के वीर वह होते हैं जो निर्भय होकर शत्रुओं पर टूट पड़ते हैं। इसके पश्चात वे आगे पीछे नहीं देखते। उन्हें अपने लक्ष्य के प्रति समर्पित होकर लड़ने के अतिरिक्त और कुछ नहीं सूझता। दूसरी श्रेणी के लोग जब भयंकर युद्ध होता हुआ देखते हैं तो वे भयभीत हो जाते हैं और प्राण बचाने की चिन्ता में पड़ जाते हैं। शूरवीर शत्रु के विनाश की योजनाओं पर कार्य करते हुए वेग से आगे बढ़ता है और भीरू पुरुष युद्ध भूमि को छोड़कर शत्रु को पीठ दिखाकर भागने लगता है। ऐसा भीरू व्यक्ति स्वर्गलोक के मार्ग पर पहुँचकर भी अपने सहायकों को उस संकट के समय अकेला छोड़ देता है। क्योंकि उसके लिए अपनी प्राण रक्षा सर्वोपरि होती है, जबकि जो व्यक्ति राष्ट्र रक्षा के लिए कार्य कर रहा होता है वह प्राण रक्षा के बारे में सोचता भी नहीं है।
      युद्ध भूमि से पीठ दिखाकर या अपने सहायकों को अकेला छोड़कर घर लौट जाने वाले लोगों की निन्दा करते हुए भीष्म पितामह के द्वारा महाभारत में कहा गया है कि- “तात ! जो लोग रणभूमि में अपने सहायकों को छोड़कर कुशलपूर्वक अपने घर लौट जाते हैं, वैसे नराधमों को तुम कभी पैदा मत करना। उनके लिये इन्द्र आदि देवता अमंगल मनाते हैं। जो सहायकों को छोड़कर अपने प्राण बचाने की इच्छा रखता है, ऐसे कायर को उसके साथी क्षत्रिय लाठी या ढेलों से पीटें अथवा घास के ढेर की आग में जला दें या उसे पशु की भाँति गला घोटकर मार डालेें।”
      इस प्रकार पीठ दिखाकर युद्ध भूमि से भागने वाले लोगों की भारतीय क्षत्रिय परम्परा में सर्वत्र निन्दा की गई है। कायरता और भीरुता का प्रदर्शन करना किसी भी क्षत्रिय के लिए उचित नहीं माना गया है। इसका कारण केवल एक ही है कि क्षत्रिय वर्ण के लोगों पर राष्ट्र ,समाज, धर्म और संस्कृति की रक्षा का दायित्व होता है । यदि वह भी अपने कर्तव्य निर्वाह या धर्म के पालन में कायरता और भीरुता का प्रदर्शन करेंगे या राष्ट्र के साथ द्रोह करते हुए शत्रु को किसी प्रकार से लाभ पहुंचाएंगे तो उनके क्षत्रिय धर्म के लिए इससे अधिक निन्दनीय कृत्य कोई नहीं हो सकता। भारत ने लूटमार, डकैती, हत्या व अपराध की स्वार्थ पूर्ण मनोवृति को वीरता नहीं माना है। इस प्रकार के कार्यों के साथ परद्रव्य हरण करने या परनारी का शील भंग करने जैसी प्रत्येक प्रकार की चेष्टा का पूर्णतया निषेध किया गया है। भारत ने सात्विक वीरता को प्रधानता दी है। जिसमें क्षत्रिय वर्ण के लोग युद्ध के मैदान में भी संयम और नियम के अधीन रहकर युद्ध करते हैं। उनके युद्ध और क्रोध में किसी प्रकार का अतिवाद, उग्रवाद, उत्पात, अनीति या अधर्म नहीं होता।
       भीष्म पितामह इसी प्रसंग में आगे कहते हैं कि खाट पर सोकर मरना क्षत्रिय के लिये अधर्म है। जो क्षत्रिय कफ और मल-मूत्र छोड़ता तथा दु:खी होकर विलाप करता हुआ बिना घायल हुए शरीर से मृत्यु को प्राप्त हो जाता है, उसके इस कर्म की प्राचीन धर्म को जानने वाले विद्वान् पुरुष प्रशंसा नहीं करते हैं।
इसका अभिप्राय है कि छत्रिय को ऐसा कर्तव्य कर्म करते हुए ही मृत्यु को प्राप्त होना चाहिए जो उसको क्षत्रिय सिद्ध कराए।
क्योंकि तात ! वीर क्षत्रियों का घर में मरण हो, यह उनके लिये प्रशंसा की बात नहीं है। वीरों के लिये यह कायरता और दीनता अधर्म की बात है। ‘यह बड़ा दुःख है। बड़ी पीड़ा हो रही है! यह मेरे किसी महान् पाप का सूचक है।’ इस प्रकार आर्तनाद करना, विकृत-मुख हो जाना, दुर्गन्धित शरीर से मन्त्रियों के लिये निरन्तर शोक करना, नीरोग मनुष्यों की सी स्थिति प्राप्त करने की कामना करना और वर्तमान रूग्णावस्था में बारम्बार मृत्यु की इच्छा रखना-ऐसी मौत किसी स्वाभिमानी वीर के योग्य नहीं है।
         क्षत्रिय को तो चाहिये कि अपने सजातीय बन्धुओं से घिरकर समरांगण में महान् संहार मचाता हुआ तीखे शस्त्रों से अत्यन्त पीड़ित होकर प्राणों का परित्याग करे-वह ऐसी ही मृत्यु के योग्य है। शूरवीर क्षत्रिय विजय की कामना करते हुए शत्रु के प्रति रोष से युक्त हो बड़े वेग से युद्ध करता है। शत्रुओं द्वारा क्षत-विक्षत किये जाने वाले अपने अंगों की उसे सुधबुध नहीं रहती है। वह युद्ध में लोकपूजित सर्वश्रेष्ठ मृत्यु एवं महान् धर्म को पाकर इन्द्रलोक में चला जाता है। शूरवीर प्राणों का मोह छोड़कर युद्ध के मुहाने पर खड़ा होकर सभी उपायों से जूझता है और शत्रु को कभी पीठ नहीं दिखाता है; ऐसा शूरवीर इन्द्र के समान लोक का अधिकारी होता है। शत्रुओं से घिरा हुआ शूरवीर यदि मन में दीनता न लावे तो वह जहाँ कहीं भी मारा जाय, अक्षय लोकों को प्राप्त कर लेता है।”

रानी हो गई थी अचेत

   इसी प्रकार की वीरगति को प्राप्त हुए राजा दाहिर सेन की पत्नी रानी लाडी को जब यह समाचार प्राप्त हुआ कि राजा वीरगति को प्राप्त हुए हैं तो वह ऐसे समाचार को सुनकर अचेत हो गईं। पर उन्होंने एक वीरांगना की भान्ति इस पर अधिक देर तक कोई शोक नहीं किया, अपितु शत्रु का सामना करने के लिए उठ खड़ी हुईं। वेदना की उन असहनीय घड़ियों में भी रानी को कर्तव्य बोध ने  शीघ्र ही उस राष्ट्रबोध के प्रति समर्पित कर दिया जो राजा की मृत्यु के उपरांत पैदा हुए शून्य ने उनके लिए उत्पन्न कर दिया था । फलस्वरुप रानी शीघ्र ही यह समझ गई कि यदि उन्होंने अपने पति की वीरोचित मृत्यु पर इस समय  किसी प्रकार का  विलाप किया तो यह उनके पति की मृत्यु का अपमान होगा।  इस समय पति के लिए सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि वह  युद्ध क्षेत्र की ओर प्रस्थान करें और अपने पति के अधूरे कार्य को पूर्ण करें । इसके लिए उन्हें चाहे जो भी बलिदान देना पड़े उससे पीछे न हटें।
    रानी शत्रु को यह दिखा देना चाहती थीं कि राजा यदि स्वर्ग सिधार गए हैं तो भी उनकी वीरता और देशभक्ति की महान विरासत को संभालने के लिए वह स्वयं अभी जीवित हैं और जब तक वह जीवित हैं तब तक शत्रु को यह भ्रान्ति नहीं पालनी चाहिए कि युद्ध समाप्त हो गया है। रानी ने यह प्रतिज्ञा कर ली की वह जीते जी शत्रु को राजधानी में प्रवेश नहीं करने देंगी और ना ही अपने केसरिया ध्वज को झुकने देंगी।

रानी ने लिया महत्वपूर्ण निर्णय

         रानी को यह समाचार प्राप्त हो गया था कि शत्रु की सेना अब अलोर की ओर बढ़ती आ रही है। निश्चित रूप से रानी के पास इस समय सोचने के लिए अधिक समय नहीं था। उन्हें यथाशीघ्र महत्वपूर्ण निर्णय लेना था और अपने पति को वैसी ही श्रद्धांजलि अर्पित करनी थी जैसी श्रद्धांजलि के वह पात्र थे। रानी ने यथाशीघ्र अपने सहायकों और सलाहकारों की आवश्यक बैठक बुलाई । उसमें आवश्यक विचार विमर्श किया गया और निर्णय लिया गया कि शत्रु का अन्तिम क्षणों तक सामना किया जाएगा। रानी ने बड़े स्पष्ट शब्दों में अपनी बात अपने लोगों के सामने रख दी कि जब तक उनके शरीर में प्राण हैं तब तक वह अपने पति की वीर परम्परा का निर्वाह करते हुए माँ भारती की सेवा करती रहेंगी। उनके लिए राष्ट्र सर्वोपरि है और उसके लिए वह किसी भी बलिदान को देने के लिए तैयार हैं। रानी यदि चाहती तो वह अपने पति के लिए जौहर कर सकती थी। पर उस वीरांगना ने जौहर के रास्ते को न चुनकर इस बात को उचित माना कि शत्रु संहार करते हुए यदि प्राण त्याग किए जाएं तो कहीं अधिक उचित रहेगा।
     रानी के इस निर्णय की सूचना जब शत्रु पक्ष में पहुंची होगी तो निश्चय ही उसके भी प्राण सूख गए होंगे। क्योंकि सम्भवत: भारत से पहले शत्रु पक्ष ने कहीं रानियों के इस प्रकार के साहस के किस्से कहानी नहीं सुने होंगे और ना ही अपनी आंखों के सामने किसी रानी को लड़ने की प्रतिज्ञा करते हुए देखा होगा । उसने नारी के अबला स्वरूप को ही देखा था जिस पर वह मनमाने अत्याचार करता रहा था। अतः भारत की वीरांगनाओं की ऐसी महान परम्परा ने उसे निश्चय ही हतप्रभ कर दिया होगा।

रानी ने त्याग दिया राज भवन

      वीरता और देशभक्ति के भावों को अपने हृदय में संजोकर रानी ने रनिवास या राजमहल को  सदा- सदा के लिए त्याग दिया और अब वह राष्ट्र के लिए सजने वाले बलिदानी मार्ग पर चल पड़ीं। उन्हें इस समय न केवल अपने सुहाग के उजड़ जाने की असीम वेदना ने आ घेरा था बल्कि उन बहनों के सुहाग उजड़ जाने से भी रानी उतनी ही दु:खी थी जितनी स्वयं अपने सुहाग के उजड़ जाने से दु:खी थीं और इन सबसे भी अधिक उन्हें चिंता इस बात की थी कि माँ भारती के सम्मान की रक्षा कैसे की जाए ? रानी आज चंडी का रूप धारण कर मैदान में आई थी। रानी की नजरों में आज सर्वत्र शत्रु संहार की योजना तैर रही थी । उन्हें सर्वत्र शत्रु के नरमुंड कटे पड़े दिखाई दे रहे थे। रानी के विचारों में ना तो कहीं कोई विकल्प था और ना ही कहीं कोई समझौते की संभावना थी। संधि के लिए किसी भी प्रकार का कोई प्रस्ताव रानी के लिए कोसों तक नहीं था। बस, एक ही संकल्प था और एक ही उद्देश्य था कि आज शत्रु का अंत किया जाए और जैसे भी हो भारत माता की रक्षा करते हुए अपने पति को वीरोचित श्रद्धांजलि अर्पित की जाए।
       रानी ने अपनी सेना का नेतृत्व संभाल लिया। युद्ध के मैदान में खड़े शत्रु को उन्होंने एक राष्ट्रभक्त वीरांगना की भांति जा ललकारा । एक रानी द्वारा इस प्रकार अपने लिए चुनौती खड़ी प्रस्तुत हुए देखकर शत्रु की सेना में हड़कम्प मच गया । सम्भवत: विश्व इतिहास में अरब की सेनाओं का किसी ऐसी वीरांगना से पहली बार मुकाबला होने जा रहा था ।
   सिन्धुसुता ने आज जिस दुर्गा रूप को अपने शत्रु को दिखाया उसे देखकर शत्रुओं में हाहाकार मच गया। रानी अपने मुट्ठी भर सैनिकों के साथ जिधर भी निकलती उधर ही शत्रु की लाशों के ढेर लग जाते । अभी कुछ समय पहले तक जो शत्रु अपनी विजय का उत्सव मना रहा था अब उसका उत्साह ठंडा पड़ रहा था। अब वह चारों ओर अपनी लाशों को गिरते हुए देखकर  दंग था । रानी की वीरता देखते ही बन रही थी। शत्रु सेना में रानी का आतंक फैल गया था।

(हमारी यह लेख माला मेरी पुस्तक “राष्ट्र नायक राजा दाहिर सेन” से ली गई है। जो कि डायमंड पॉकेट बुक्स द्वारा हाल ही में प्रकाशित की गई है। जिसका मूल्य ₹175 है । इसे आप सीधे हमसे या प्रकाशक महोदय से प्राप्त कर सकते हैं । प्रकाशक का नंबर 011 – 4071 2200 है ।इस पुस्तक के किसी भी अंश का उद्धरण बिना लेखक की अनुमति के लिया जाना दंडनीय अपराध है।)

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत एवं
राष्ट्रीय अध्यक्ष : भारतीय इतिहास पुनर्लेखन समिति

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