✍🏻 – भाई परमानन्द
निवृत्ति-मार्ग का अर्थ अपने लिए मुक्ति या शान्ति प्राप्त करना है। संसार में बहुत-से मनुष्य ऐसे हैं जो प्रवृत्ति-मार्ग की अपेक्षा इसे अच्छा समझते हैं। जिस समय समाज अपनी प्राकृतिक अवस्था में होता है तो इस सिद्धान्त पर न कोई आपत्ति आती है, न कोई विघ्न पड़ता है। निःसंदेह यह ठीक है कि मनुष्य के लिए अपने-आपको सुधारना और पूर्ण बनाना उसका एक बड़ा भारी उद्देश्य है। जब हर एक मनुष्य अपने-आपको उच्च बनाता है तब समाज आपसे-आप उन्नति करता है।यह व्यक्तिगत उन्नति का मार्ग है।
मनुष्य की उन्नति का एक दूसरा मार्ग भी है जो पहले से ऊंचा है। इस पर चलते हुए मनुष्य अपनी ओर ही नहीं देखता प्रत्युत समस्त समाज को ध्यान में रखता है। जहां कहीं समाज किसी बीमारी में फंसा हो, कोई रोज दीमक की तरह उसे अन्दर से खा रहा हो, या कोई बाह्य शक्ति उसे ऊपर से नष्ट कर रही हो, तो उस समय निवृत्ति-मार्ग पाप से भरा है। जाति के लाखों-करोड़ों सदस्यों का समुद्र के तूफान में डूबने का भय हो, तो जो इस समय व्यक्तिगत उन्नति के मार्ग का प्रचार करता है, वह जाति का सबसे बड़ा वैरी और शत्रु है। इसकी बातें कितनी ही शांतिदायक हों, इसके जीवन में कितने ही नैतिक गुण हों, ये सब विष के समान हैं।
स्वामी दयानन्द के सामने भी यह समय आया। वह योग जानते थे, योग द्वारा बड़ी आसानी से अपनी मुक्ति प्राप्त कर सकते थे। परन्तु दूसरी ओर उनकी अपनी जाति अंधेरे में गोते खा रही थी। धर्म का नाश हो रहा था। सब प्रकार के ठग लोगों को धोखा देकर अपने अपने सम्मान और सुख की चिन्ता में थे। स्वामी दयानन्द ने सोचा – मैं उस मुक्ति को क्या करूंगा जिससे मेरा भला तो सम्भवतः हो जाए किन्तु मेरी जाति नरक में पड़ी रहे। स्वामी जी ने त्याग का रास्ता (निवृत्त-मार्ग) छोड़ दिया और धार्मिक आंदोलन के क्षेत्र में उतर पड़े और सिंह की तरह गर्जना शुरू कर दी।
[स्रोत : वीर वैरागी, पृष्ठ 43-44, सार्वदेशिक सभा का प्रकाशन, छठा संस्करण, प्रस्तुतकर्ता : भावेश मेरजा]