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समाज

रिश्तो के इस पार उस पार

 

_-राजेश बैरागी-_

दो दिन पहले एक विवाह समारोह में रिश्ते की एक बहिन मिली। उम्र लगभग 53 वर्ष, मुझसे दो वर्ष बड़ी।28 वर्ष पूर्व उनका विवाह उनकी बहिन के देवर से हुआ था। उनकी मर्जी नहीं थी परंतु गांव-देहात में स्पष्ट मना करने की परंपरा नहीं थी।। इसलिए उन्होंने विवाह तो कर लिया परंतु एक बार के बाद फिर कभी ससुराल नहीं गयीं, मायके में ही रह गयीं और कालांतर में माता-पिता के गुजर जाने के बाद घर की मुखिया बन गयीं। यह विवाह समारोह उनकी भतीजी का था जिसकी बारात आने वाली थी और ससुराल पक्ष दान-दहेज से असंतुष्ट था।

उन्होंने मुझसे पूछा,-भैया किसी अनहोनी की आशंका तो नहीं है? मैंने अपनी रौ में कहा,-नहीं, कोई आशंका नहीं है और मैं हूं ना। बहिन जी मुझसे चिपट कर गमगीन हो गयीं। मैंने देखा उनकी आंखें सजल थीं। मैं विचारों में खो गया।आज यदि ये अपनी गृहस्थी में होतीं तो संभवतः अपने बच्चों के ब्याह शादी कर रही होतीं।तब शायद उन्हें ऐसी चिंता कदापि न होती। शायद वो अपने अतीत के बदरंग इतिहास से मन-ही-मन घबराई रहती होंगी। उन्होंने दोबारा शादी करने की कभी इच्छा भी नहीं जताई। बुद्ध ने कहा दुखों के मूल में इच्छाओं का दल-दल है। सांसारिक प्राणी इस दलदल से आनंद की प्राप्ति करता है। क्या उनका अन्तर्मन अपनी गृहस्थी न होने का कष्ट सहता होगा? मैं इस उधेड़बुन में डूबा हुआ था कि किसी ने आवाज दी बारात आ गई है चलो बारात की अगवानी कर आएं।

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