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समाज हमारे क्रांतिकारी / महापुरुष

महर्षि दयानन्द जी का स्वकथित जीवनचरित्र, भाग 3

भाई-बहिन-

मुझ से छोटी एक बहन फिर उससे छोटा भाई फिर एक और भाई हुए अर्थात् दो भाई फिर एक बहन’ और हुए थे । तब तक मेरी १६ वर्ष की अवस्था हुई थी (इससे प्रकट है कि स्वामी जी सब से बड़े थे और उनके ज्ञानानुसार कुल तीन भाई और दो बहनें थीं।)

पहली मृत्यु (बहिन की) देखकर वैराग्य का उदय, सब रोते रहे; मृत्यु से बचने की सोचने में मेरी आंखें सूखी ही रहीं (संवत् १८९६ वि०)—

मेरी सोलह वर्ष की अवस्था के पश्चात्, जो मेरी १४ वर्ष की बहन थी उसके विशूचिका हुई। जिसका वृत्तान्त इस प्रकार है कि एक रात जब कि हम एक मित्र के घर नृत्य’ (सम्भवत: कत्थकों का नाच होगा अथवा भांड़ों का, क्योंकि काठियावाड़ में पंजाब और भारतवर्ष के समान वेश्याओं के नाच की प्रथा नहीं है) के जलसे में गये हुए थे, तब अकस्मात् आकर भृत्य ने सूचना दी कि उसको विशूचिका हो गई है। हम सब तत्काल वहां से आये; वैद्य बुलाये गये; औषधि की, परन्तु कुछ लाभ न हुआ। चार घंटे में उसका शरीर छूट गया। मैं उसके बिछौने के पास दीवार का आश्रय लेकर खड़ा रहा। जन्म से लेकर इस समय तक मैंने पहली बार मनुष्य को मरते देखा था। इससे मेरे हृदय को परले दरजे का धक्का लगा और मुझे बहुत डर लगा। मारे भय के सोचने लगा कि सारे मनुष्य इसी प्रकार मरेंगे और ऐसे ही मैं भी मर जाऊंगा। सोच विचार में पड़ गया कि जितने जीव संसार में हैं उनमें से एक भी न बचेगा। इससे कुछ ऐसा उपाय करना चाहिये कि जिससे जन्म-मरण रूपी दुःख से यह जीव छूटे और मुक्त हो अर्थात् उस समय मेरे चित्त में वैराग्य की जड़ जम गई ।
सब लोग रोते थे परन्तु मेरी छाती में डर घुसने के कारण एक आंसू भी आंख से न गिरा। पिता जी ने मुझे पाषाणहृदय कहा । मेरी माता, जो मुझे बहुत प्यार करती थी, उसने भी ऐसा ही कहा । मुझे सोने के लिए कहा गया परन्तु मुझे शान्ति से निद्रा न आई। भला ऐसी अशान्ति में निद्रा कहां ? बार-बार चौंक पड़ता था और मन में नाना प्रकार की तरंगें उठती थीं। हमारे देश की प्रथा के अनुसार मेरी बहन के रोने के पांच-चार अवसर बीत गये परन्तु मैं तो रोया नहीं। इस कारण बहुत लोग मुझे धिक्कारने लगे ।
<span;>    जिस समय सारा परिवार (घराना) रो रहा था, मैं मूर्ति की भांति चुपचाप अलग खड़ा था। उस समय मुझ को बहुत से मनुष्यों के जीवन, जो संसार में अनित्य हैं, नाना प्रकार के संकल्प-विकल्प अतीव शोक के साथ उत्पन्न हुए और जान पड़ा कि संसार में कोई भी ऐसा नहीं जो निर्दयी मृत्यु के पंजे से बच जाये। निश्चय एक दिन उस मृत्यु का सामना करना पड़ेगा । उस समय मृत्यु के दुःख निवारणार्थ औषधि कहां ढूंढता फिरूंगा और मुक्ति प्राप्त करने के निमित्त किस पर भरोसा करूंगा ? कौन सा उपाय इसके लिए उचित है। सारांश यह है कि उसी समय पूर्ण विचार कर लिया कि जिस प्रकार हो सके मुक्ति प्राप्त करूं जिसके द्वारा मृत्यु समय के समस्त दुःखों से बचूं ।
अन्त को यह हुआ कि इस संसार से मेरा जी एकाएक हट गया और उत्तम विचार करने में संन्नद्ध हो गया। परन्तु यह विचार अपने मन में रखा, किसी से कहा नहीं और यथापूर्व अध्ययनादि में लगा रहा।
चाचा की मृत्यु से वैराग्य की चोट और गहरी, विवाह टलवाने के प्रयत्न । (१८९९ वि०) जब मेरी अवस्था १९ वर्ष की हुई तब जो मुझसे अति प्रेम करने वाले धर्मात्मा विद्वान् मेरे चाचा थे उनको विसूचिका ने आ घेरा। मरते समय उन्होंने मुझे पास बुलाया। लोग उनकी नाड़ी देखने लगे, मैं भी पास ही बैठा हुआ था। मेरी ओर देखते ही उनकी आंखो से आंसू बहने लगे, मुझे भी उस समय बहुत रोना आया। यहां तक हुआ कि मेरी आंखें फूल गईं। इतना रोना मुझे पहले कभी न आया था। उस समय मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि में भी चाचा जी के सदृश एक दिन मरने वाला हूं ।
इसके पश्चात् मुझे ऐसा वैराग्य हुआ कि संसार कुछ भी नहीं किन्तु यह बात माता-पिता जी से तो नहीं कहीं किन्तु अपने मित्रों और विद्वान पंडितों से पूछने लगा कि अमर होने का कोई उपाय मुझे बताओ । उन्होंने योगाभ्यास करने के लिए कहा। तब मेरे जी में आया कि अब घर छोड़कर कहीं चला जाऊं । तब मैंने अपने मित्रों से कहा कि मेरा मन गृहाश्रम में नहीं लगता क्योंकि मुझे निश्चय हो गया है कि इस असार संसार में कोई भी ऐसा पदार्थ नहीं जिसके लिए जीने की इच्छा की जाये या किसी पर मन लगाया जाये। यह बात मेरे मित्रों ने मेरे माता-पिता से कह दी। उन्होंने विचार किया कि इसका विवाह शीघ्र कर देना ठीक है। जब मुझे माता-पिता का यह विचार तथा निश्चय विदित हुआ कि मेरी २० वर्ष की अवस्था होते ही विवाह संस्कार सम्पन्न हो जायेगा तो मैंने अपने मित्रों से सिफारिश करवा कर यहां तक प्रयत्न किया कि मेरे पिता उस वर्ष मेरा विवाह स्थगित कर दें।
(संवत् १९०० वि०) बीसवें वर्ष के पूरे होते ही मैंने पिता जी से यह कहना आरम्भ कर दिया कि मुझे काशी भेज दीजिए, जहां मैं व्याकरण, ज्योतिष और वैद्यक ग्रन्थ पढ़ आऊं । तब माता-पिता और कुटुम्ब के लोगों ने उत्तर में कहा कि हम काशी तो कभी न भेजेंगे। जो कुछ पढ़ना है यहीं पढ़ो और जितना पढ़ चुके हो वह क्या थोड़ा है। थोड़े दिन विवाह होने को शेष है अर्थात् तेरा अगले वर्ष विवाह होगा क्योंकि लड़की वाला नहीं मानता और हमको अधिक पढ़ा कर क्या करना है ? साथ ही माता जी ने भी यह कहा कि मैं भली-भांति जानती हूं कि विशेष पढ़े-लिखे लोग विवाह करना अनुचित समझते हैं और काशी चले जाने से विवाह में विघ्न होगा। परन्तु जब मैंने अपने पिता से दो तीन बार आग्रह किया कि आप मुझको अवश्य काशी भेज देवें और जब तक मैं वहां से पूर्ण पंडित और अच्छा विद्वान् होकर न आऊं तब तक विवाह होना ठीक नहीं तो इस मेरे बार-बार के अनुरोध पर माता भी विपरीत हो गई कि हम कहीं नहीं भेजते और अब शीघ्र विवाह करेंगे । तब मैंने चाहा कि अब सामने रहना अच्छा नहीं, चुप हो गया क्योंकि देखा कि विशेष आग्रह से काम बिगड़ता है। और कार्य सिद्ध नहीं होता । चूंकि घर में मेरा जी नहीं लगता था यह देख पिता जी ने जमींदारी का काम करने के लिए मुझे कहा, परन्तु मैंने उसे स्वीकार न किया।

 

पंडित लेखराम जी कृत स्वामी दयानंद जी के जीवनचरित् से

डॉ राकेश कुमार आर्य

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