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मुसलमानों के खून से सना हुआ है ईसाई राष्ट्रवाद , लेकिन विदेशी मीडिया साध लेती है चुप्पी

मुस्लिमों पर ईसाई देशों की ज्यादती… लेकिन विदशी मीडिया करती है वॉर कवरेज!

आजकल विदेशी मीडिया को भारत के आंतरिक मामलों में बहुत दिलचस्पी रहती है। साल 2014 के बाद तो इसमें इजाफा हो गया है। हिन्दू राष्ट्रवाद को आधार बनाकर भारत को मुस्लिम अथवा अल्पसंख्यक विरोधी बताने का झूठा प्रचार किया जा रहा है। भारतीय जनता पार्टी या वर्तमान सरकार संबंधी किसी भी खबर में हिन्दू नेशनलिस्ट (राष्ट्रवादी) शब्द लगाना एक शौक बन गया है। हालाँकि, राष्ट्रवादी होना कोई गुनाह नहीं है, यह एक गर्व की बात है। किसी भी भारतीय को हिन्दू होने में भी कोई शर्म नहीं है। समस्या हिन्दू राष्ट्रवाद की व्याख्या को लेकर है, जो इस तरह से होती है, जैसे भारत में मुसलमानों पर अत्याचार किया जाता है और इसके जिम्मेदार हिन्दू राष्ट्रवादी हैं।

वॉशिंगटन पोस्ट ने अभी कुछ दिनों पहले लिखा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के राजनैतिक करियर में यह (दिल्ली हिंसा) दूसरा मौक़ा है, जब किसी सांप्रदायिक हिंसा के दौरान वे शासन संभाल रहे हैं। गार्डियन तो एक कदम आगे निकल गया। अख़बार ने प्रधानमंत्री मोदी को विभाजनकारी बता दिया। जबकि, तथ्य कुछ अलग ही हालात बयान करते हैं। लगभग हर अमेरिकी राष्ट्रपति का हाथ विश्व भर के मुसलमानों के नरसंहार में शामिल रहा है। पाकिस्तान, ईराक और अफगानिस्तान में अमेरिकी सेना लगभग 5 लाख निर्दोष मुस्लिम नागरिकों की हत्या कर चुकी है। इसमें घायलों की संख्या शामिल नहीं है। इस दौरान कितने ही निर्दोष मुसलमानों को अनाथ और बेघर कर दिया, इसके कोई आँकड़ें तक नहीं हैं।

अमेरिकी सेना 1980 से कई मुस्लिम देशों पर हमला कर चुकी है। इसमें ईरान, लीबिया, लेबनान, कुवैत, इराक, सोमालिया, बोस्निया, सऊदी अरेबिया, अफगानिस्तान, सूडान, कोसोवो, यमन, पाकिस्तान और सीरिया शामिल है। कई देशों में तो आज भी इस देश की सेना डेरा जमाए हुए है, जोकि किसी देश की संप्रभुता के खिलाफ है। आतंकवाद को जड़ से मिटाने को लेकर कोई एतराज नहीं है। मगर साल 2018 में एक खबर प्रकाशित हुई जोकि शर्मनाक ही नहीं बल्कि मानवता को झकझोर देने वाली थी। अमेरिकी सेना ने 2010 से 2016 के बीच 6,000 से अधिक मुस्लिम अफगान लड़कों के साथ शारीरिक उत्पीड़न किया था। ताज्जुब की बात है कि किसी भी अमेरिकी अखबार और न्यूज चैनल ने इस अमानवीय कृत्य पर कोई प्रतिक्रिया तक नहीं की।

इतना कुछ हो गया और हो रहा है, फिर भी क्या कभी विदेशी अखबार अथवा न्यूज चैनल ने कहा कि अमेरिका की ‘क्रिस्चियन नैशलिस्ट रिपब्लिकन पार्टी’ ने निर्दोष मुस्लिम नागरिकों की हत्या कर दी। अब एक नजर न्यूयॉर्क टाइम्स की दिसंबर 2019 खबर पर डालते हैं। जिसके अनुसार 25 साल की एक अफगान मुस्लिम महिला अपने नवजात बच्चे को अस्पताल दिखाने ले जा रही थी। वह महिला न तो कोई आतंकवादी थी, और न ही किसी अपराध के लिए दोषी करार दी गई थी। उसकी बदकिस्मती थी कि अचानक से एक ड्रोन हमले में उसकी कार को बम से उड़ा दिया गया। अखबार ने इसे एक मामूली घटना से जोड़कर देखा। अमेरिकी राष्ट्रपति और सरकार के प्रतिनिधियों को इस जघन्य अपराध के लिए माफ कर दिया गया। जबकि भारत में कोई लॉ-एंड-आर्डर संबंधी मामूली घटना के लिए भी अमेरिकी पत्रकारों का नजरिया धार्मिक अथवा साम्प्रदायिक हो जाता है।

इस प्रकार के एक नहीं बल्कि हज़ारों उदाहरण हैं। अमेरिका में 2011 के आतंकी हमले के बाद सरकार और बहुसंख्यक ईसाई जनता दोनों इस्लाम विरोधी हो गए थे। अमेरिकी सुरक्षा अधिकारियों द्वारा मुसलमानों को अमेरिकी हवाई अड्डों पर पूछताछ के लिए रोका जाता था। ऐसी ही एक दास्तां अमेरिकी मुस्लिम मोहम्मद फ़िरोज़ की है। उसे लंदन के हीथ्रो हवाई अड्डे से न्यूयॉर्क की यात्रा करनी थी। जॉन एफ केनेडी हवाई अड्डे पर पहुँचते ही उसे सुरक्षा अधिकारियों ने गिरफ्तार कर लिया। उसका सामान जब्त कर लिया और चार घंटों की पूछताछ के बाद उसे छोड़ दिया गया। यह खबर ब्रिटेन के इंडिपेंडेंट अखबार ने प्रकाशित की थी, जिसके अनुसार यह एक सामान्य प्रक्रिया थी। दरअसल, अमेरिकी अखबारों को कभी नजर नहीं आता कि उनके देश में मुसलमानों के साथ कैसा दोयम दर्जे का व्यवहार किया जाता है।

पश्चिमी मीडिया को भारत में धार्मिक स्वतंत्रता पर बोलना आसान रहता है। भारत में दो समुदायों के व्यक्तियों का आपसी झगड़ा भी उनके संपादकीय पृष्ठ का हिस्सा बन जाता है। जबकि उनके अपने देश के ईसाई बहुसंख्यक मस्जिदों पर हमले और मुसलमानों को धमकियाँ देने में कोई कसर नहीं छोड़ते। साल 2016 में लॉस एंजलिस के रहने वाले मार्क फएगीं ने ट्वीट किया कि ‘गंदे इस्लामी जानवरों की अमेरिका में कोई जगह नहीं है’। ऐसे ही साल 2019 में कैलिफोर्निया की एक मस्जिद में आगजनी की गई। वॉशिंगटन पोस्ट ने हमलावर के लिए बताया कि वह न्यूजीलैंड के आतंकी हमले से नाराज़ था। यानी वह एक ईसाई था।

हिंसा का कोई भी प्रारूप जायज़ नहीं कहा जा सकता। आतंकवाद से भारत अमेरिका से भी ज्यादा पीड़ित है। हमने भी वैश्विक स्तर पर आतंकवाद को समाप्त करने का अभियान चलाया हुआ है। मगर, हमारी नीतियों में आम नागरिकों के प्रति हिंसा शामिल नहीं है। अगर बात आंतरिक क़ानूनी व्यवस्था की है तो भारत सरकार उसे ठीक करने के लिए सक्षम है। दूसरी बात, भारत में विश्व के सभी धर्मों के अनुयायी रहते हैं। यह हमारी संस्कृति की विशेषता है कि हमने सभी धर्मों का स्वागत किया है। भारतीय संविधान में धार्मिक अधिकारों को लिखित रूप से स्वीकार्यता दी गई है। मैं भारत का नागरिक हूँ और हिन्दू धर्म में मेरी आस्था है, यही हिन्दू-राष्ट्रवाद है। किसी व्यक्तिगत झगड़े को हिन्दू-राष्ट्रवाद के नाम पर भारत और हिन्दू दोनों को बदनाम नहीं किया जा सकता। इसलिए अंत में, पश्चिमी मीडिया खासकर अमेरिका को ईसाई राष्ट्रवाद का हिंसात्मक चेहरा दुनिया को आगे रखने का साहस करना चाहिए।

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