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इतिहास के पन्नों से

गांधीजी की कई नीतियों से असहमत थे डॉ अंबेडकर

गांधीजी और डॉक्टर अम्बेडकर दोनों ही भारतीय इतिहास के महानायक हैं। इसके उपरांत भी इन दोनों में किन्हीं खास मुद्दों को लेकर गंभीर मतभेद थे। गांधीजी जहां कई मुद्दों पर तुष्टीकरण के खेल में लगे रहे या गोलमोल बात कह कर मुद्दों को टरकाते रहे या मुस्लिम लीग और अंग्रेजों का अनेक मुद्दों पर समर्थन कर उन्हें लाभ पहुंचाकर देश का अहित करते रहे, वहीं डॉक्टर अंबेडकर अपनी स्पष्टवादिता और बेबाक राय रखने के लिए इतिहास में विशेष सम्मान रखते हैं।


यह एक बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि आजकल सोशल मीडिया पर ऐसी पोस्ट अक्सर आपको पढ़ने को मिल जाएंगी जिनको देखकर लगता है जैसे डॉ अम्बेडकर जी मुस्लिम धर्म की मान्यताओं से बहुत अधिक सहमत थे और मुस्लिम व दलित समाज के लोग ही वास्तविक भारतीय हैं जबकि शेष सभी लोग विदेशी हैं। ऐसी पोस्ट डालने वाले माँ भारती से द्वेष रखते हैं जो कि जानबूझकर देश में ऐसा परिवेश सृजित कर रहे हैं कि बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर के विषय में ऐसा लगने लगे जैसे कि वह ब्राह्मण विरोधी और मुस्लिम प्रेमी थे। जबकि सच इसके विपरीत है। बाबासाहेब ने जहाँ तथाकथित उस ब्राह्मणवाद का विरोध किया जो किसी वर्ग विशेष के अधिकारों का हनन करने की व्यवस्था करता था वहीं उन्होंने वंचित और दलित समाज को मुस्लिमों के जाल में न फंसने के लिए भी समय समय पर आवश्यक चेतावनी दी। उन्होंने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “थॉट्स ऑन पाकिस्तान” में पाकिस्तान के बनाने में मुस्लिमों के विचारों की गहन समीक्षा की।
जो लोग आज हरिजनों को मुस्लिम प्रेम का पाठ पढ़ा रहे हैं और इस सारे कार्य को बाबासाहेब अम्बेडकर के विचारों के अनुकूल सिद्ध करने का प्रयास कर रहे हैं उन्हें यह पुस्तक अवश्य पढ़नी चाहिए। इसके साथ साथ जो लोग इस प्रकार के षड़यंत्र को भारत में असफल करना चाहते हैं उन्हें भी तर्क देने के लिए इस पुस्तक का अध्ययन करना चाहिए। क्योंकि इसमें बाबासाहेब अम्बेडकर जी ने बहुत कुछ ऐसा स्पष्ट किया है जो आज भी उतना ही प्रासंगिक है, जितना उस समय था जब यह पुस्तक लिखी गई थी। सचमुच इस पुस्तक में उन्होंने बहुत कुछ स्पष्ट किया है।

मुस्लिम भाईचारा केवल मुसलमानों के लिए है

गांधीजी मुस्लिमों को लेकर एक काल्पनिक भाईचारे के मायाजाल में भटके रहे। इतना ही नहीं उन्होंने अपने समर्थकों और देशवासियों को भी इस बात के लिए दबाव में लेने का प्रयास किया कि मुस्लिमों के साथ समन्वय स्थापित करें। मुस्लिमों के साथ समन्वय स्थापित करना और इसके लिए गांधीजी का दबाव बनाना कोई बुरी बात नहीं थी, बुरी बात यह थी कि उन्होंने मुस्लिमों से देश के लिए समर्पित होकर काम करने के लिए कभी नहीं कहा। उन्होंने मुस्लिमों की उन गलत नीतियों या सोच का भी कभी विरोध नहीं किया जो हिंदू समाज के लिए घातक रही थीं। गांधीजी एक तरफा प्यार करने में विश्वास रखते थे। जबकि अंबेडकर जी इस प्रकार की तुष्टीकरण की भ्रम पूर्ण स्थिति से बाहर निकलकर कुछ ऊंचा और बेहतर सोचने का प्रयास करते थे।
आजकल भी मुस्लिमों के भ्रातृभाव की चर्चा अक्सर होती है और इस मजहब को -अमन का धर्म सिद्ध करने का भी प्रयास किया जाता है। जबकि सच यह है कि मुस्लिमों का भाईचारा सार्वभौम नहीं है और ना ही यह सार्वजनीन है। यह एक मुस्लिम का दूसरे मुस्लिम के प्रति है इससे अन्यत्र किसी काफिर या विधर्मी के लिए नहीं ।
अपनी उपरोक्त पुस्तक में बाबासाहेब लिखते हैं “इस्लाम एक बंद निकाय की तरह है। मुसलमानों और गैर मुसलमानों के बीच जो भेद यह करता है वह बिल्कुल मूर्त और स्पष्ट है। इस्लाम का भ्रातृभाव मानवता का भ्रातृत्व नहीं है। मुसलमानों का मुसलमानों से ही भ्रातृभाव मानवता का भ्रातृत्व नहीं है। मुसलमानों का मुसलमानों से ही भ्रातृत्व है। यह बंधुत्व है परन्तु इसका लाभ अपने ही निकाय के लोगों तक सीमित है और जो इस निकाय से बाहर हैं उनके लिए इसमें सिर्फ घृणा और शत्रुता ही है। इस्लाम का दूसरा अवगुण यह है कि यह सामाजिक स्वशासन की एक पद्धति है और स्थानीय स्वशासन से मेल नहीं खाताए क्योंकि मुसलमानों की निष्ठा जिस देश में वे रहते हैं उसके प्रति नहीं होती बल्कि वह उस धार्मिक विश्वास पर निर्भर करती है जिसका कि वे एक हिस्सा हैं। एक मुसलमान के लिए इसके विपरीत या उल्टे सोचना अत्यन्त दुष्कर है। जहाँ कहीं इस्लाम का शासन हैए वहीं उसका अपना विश्वास है। दूसरे शब्दों मेंए इस्लाम सच्चे मुसलमानों को भारत को अपनी मातृभूमि और हिन्दुओं को अपना निकट सम्बन्धी मानने की इजाजत नहीं देता। सम्भवतः यही वजह थी कि मौलाना मुहम्मद अली जैसे एक महान भारतीय परन्तु सच्चे मुसलमान नेए अपनेए शरीर को हिन्दुस्तान की बजाए येरूसलम में दफनाया जाना अधिक पसंद किया।”
गांधीजी इस प्रकार की स्पष्ट सोच को कभी प्रकट नहीं कर पाए और वह मुस्लिमों के बारे में सदा गोलमोल या भ्रम पूर्ण स्थिति बनाए रखने में लगे रहे। उन्होंने कभी यह नहीं कहा कि मुस्लिमों का भाईचारा उस समय हिंदू के लिए घातक हो सकता है जब वह सांप्रदायिक दृष्टिकोण अपनाते हुए हिंदू को अपना ‘चारा’ और अपने मजहबी भाइयों को अपना ‘भाई’ मानता हो। वास्तव में मुस्लिमों का इस प्रकार का भाईचारा भाईचारा न होकर ‘चारा’ ‘भाई’ था । जिसे गांधीजी ने उल्टा समझकर भाईचारा मान लिया। इसके विपरीत डॉक्टर अंबेडकर इसे सही अर्थों और संदर्भों में लेने का प्रयास कर रहे थे।
बाबा साहेब की उपरोक्त चेतावनी को हमारे दलित भाइयों को इस समय अवश्य समझना चाहिए। जिन लोगों ने 1947 में इस चेतावनी को नहीं समझा था उन्होंने पाकिस्तान या बांग्लादेश में जाकर या रहकर इसके घातक परिणाम भुगतकर देख भी लिए हैं। इतना ही नहीं अभी हरियाण के मेवात में जो कुछ हमारे हरिजन भाइयों के साथ मुस्लिमों ने किया है वह भी इसी असावधानी का परिणाम है कि लोगों ने बाबा साहेब की चेतावनी को समझा नहीं।

राष्ट्रीय मुसलमान होना भ्रामक है

कांग्रेस और उसके नेता महात्मा गांधी ने हिन्दू महासभा जैसे राष्ट्रवादी संगठनों के राष्ट्रवादी विचारों का उपहास उड़ाते हुए उस समय कुछ मुस्लिमों के राष्ट्रवादी मुसलमान होने का भी एक पाखण्ड रचा था। जो लोग कांग्रेसी मंच पर आकर हिन्दू महासभा या भारतवर्ष की संस्कृति और इतिहास नायकों को गाली देते थे उन्हें कांग्रेस के लोग महिमामण्डित करते हुए राष्ट्रवादी मुसलमान होने की संज्ञा दिया करते थे। ऐसे राष्ट्रवादी मुसलमानों के लिए इतना होना ही पर्याप्त था कि वे मुस्लिम लीगी न होकर कांग्रेस के होने का नाटक करते थे। यद्यपि अपने अन्तर्मन से वह मुस्लिम लीग का भी कहीं ना कहीं समर्थन करते पाए जाते थे। कांग्रेस की विचारधारा दोगली रही । अतः कांग्रेस के मंच भी इस दोगलेपन से अछूते नहीं थे । यही कारण था कि कांग्रेस के मंचों पर छद्मवेशी लोग अपने आपको राष्ट्रवादी कहते रहे |और कांग्रेस उन्हें राष्ट्रवादी होने का प्रमाण पत्र देती रही। यद्यपि इसी समय इन छद्मवेशियों को पहचानने में यदि कोई व्यक्ति सबसे अधिक सफल हो रहा था तो वह बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर थे।
इस सन्दर्भ में उन्होंने लिखा “लीग को बनाने वाले साम्प्रदायिक मुसलमानों और राष्ट्रवादी मुसलमानों के अन्तर को समझना कठिन है। यह अत्यन्त सन्दिग्ध है कि राष्ट्रवादी मुसलमान किसी वास्तविक जातीय भावनाए लक्ष्य तथा नीति से कांग्रेस के साथ रहते हैं जिसके फलस्वरूप वे मुस्लिम लीग् से पृथक पहचाने जाते हैं। यह कहा जाता है कि वास्तव में अधिकांश कांग्रेसजनों की धारणा है कि इन दोनों में कोई अन्तर नहीं है और कांग्रेस के अन्दर राष्ट्रवादी मुसलमानों की स्थिति साम्प्रदायिक मुसलमानों की सेना की एक चौकी की तरह है। यह धारणा असत्य प्रतीत नहीं होती। जब कोई व्यक्ति इस बात को याद करता है कि राष्ट्रवादी मुसलमानों के नेता स्वर्गीय डॉ. अंसारी ने साम्प्रदायिक निर्णय का विरोध करने से इंकार किया था यद्यपि कांग्रेस और राष्ट्रवादी मुसलमानों द्वारा पारित प्रस्ताव का घोर विरोध होने पर भी मुसलमानों को पृथक निर्वाचन उपलब्ध हुआ ।

(यह लेख मेरे द्वारा पूर्व प्रकाशित हो चुका है)

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक उगता भारत

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