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इतिहास के पन्नों से

जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध

क्रान्तदर्शी होना कवि का स्वाभाविक गुण है , उसकी प्रकृति है , उसे नैसर्गिक रूप से मिला हुआ एक वरदान है । कहने का अभिप्राय है कि क्रांतदर्शिता के अभाव में कोई व्यक्ति कवि नहीं हो सकता । जैसे विधाता की रचना और सृष्टा की सृष्टि का होना तभी संभव है , जब रचना और सृष्टि के विषय में वह सGर्वज्ञ हो , वैसे ही कवि की कविता भी तभी फूटेगी जब वह कविता के विषय में सर्वज्ञ हो ।

हमारे वेद भी काव्यमय हैं , हमारे रामायण ,महाभारत , गीता आदि ग्रंथ भी काव्यमय हैं , इसका कारण यही है कि यह सारा जगत ही संगीतमय है । ‘ओ३म ‘ की पवित्र ध्वनि का संगीत इसमें जीवनी – शक्ति का संचार कर रहा है । अब तो इस बात की पुष्टि अमेरिका के ‘ नासा ‘ ने भी कर दी है कि सूर्य की किरणों से भी ‘ ओ३म ‘ की ध्वनि का संगीत निकल रहा है ।

हम कितने सौभाग्यशाली हैं कि विश्व को कविता , काव्य और संगीत का रसास्वादन हमने कराया था । हमारे यहां से कविता ने संसार के अन्य क्षेत्रों के लिए प्रस्थान किया । वह जहां – जहां भी गई वहीं – वहीं उसने भारत के ‘ कृण्वन्तो विश्वमार्यम् ‘ और ‘ वसुधैव कुटुंबकम ‘ का संगीत सुनाया और संपूर्ण वसुधा के निवासियों ,को समरसता और एकता के भावसूत्रों से आबद्ध करने में सफलता प्राप्त की ।

राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर ‘ जी की कविता और उनका साहित्य भी भारत के ‘ कृण्वन्तो विश्वमार्यम् ‘ और ‘ वसुधैव कुटुंबकम ‘ की इसी पवित्र भावना से सिंचित और अभिषिक्त हुआ दिखाई देता है।

भारत के इस वैश्विक चिंतन को जब हम राष्ट्रकवि दिनकर रामधारी सिंह दिनकर के साहित्य और कविता में खोजते हैं तो सर्वत्र उनका वैश्विक मानस हमें प्रस्फुटित होता परिलक्षित होता है । किसी चिंतनशील व्यक्ति के चिंतन की उत्कृष्टता का बोध होना वैसे ही थोड़ा कठिन होता है जैसे किसी स्वाभिमानी व्यक्ति के विषय में यह ज्ञान करना कठिन होता है कि वह स्वाभिमानी होते – होते अभिमानी कब हो गया ? – कवि के हृदय की सरसता , कोमलता , निर्मलता , पवित्रता, उत्कृष्टता ,सहृदयता , सर्व कल्याण की साधना और उसका धर्म उसे कब व्यष्टि से समष्टिमूलक चिंतन में ले गया ? – इसका बोध संभवत: उसे स्वयं भी नहीं होता ।

रामधारी सिंह ‘ दिनकर ‘ ने कहा था, ‘मैं जीवन भर गांधी और मार्क्स के बीच झटके खाता रहा हूं । इसलिए उजले को लाल से गुणा करने पर जो रंग बनता है, वही रंग मेरी कविता का है । मेरा विश्वास है कि अंततोगत्वा यही रंग भारत के भविष्य का रंग होगा ।’

इसका अभिप्राय है कि गांधी की अहिंसा , भ्रातृत्व और प्रेम की वह नीतियां जो भारत के वैदिक धर्म की मूलभूत संरचना को प्रकट करती हैं और मार्क्स की दीन हीन लोगों के प्रति सहानुभूति ही भविष्य के विश्व की नीतियां होंगी । यहां पर यह नहीं देखना है कि वह गांधी और मार्क्स से कितने प्रभावित थे ? देखने की बात केवल यह है कि दिनकर जी ने विश्व शांति के लिए इस प्रकार की नीतियों को उचित माना । यदि शासक वर्ग पूर्ण निष्ठा से इस प्रकार की नीतियों को अपनाए और बिना किसी पक्षपात के सभी के साथ न्याय करने का मार्ग अपनाएं तो निश्चय ही विश्व को पुनः एक परिवार बनाया जा सकता है।

रामधारी सिंह ‘दिनकर ‘ किसी भी प्रकार की ऐसी तटस्थता या पक्षपात की भावना के विरोधी हैं , जो किसी वर्ग विशेष के साथ अन्याय करने के लिए हमको प्रेरित करे । जातीय या सांप्रदायिक आधार पर वह किसी भी प्रकार के तुष्टीकरण को स्वीकार नहीं करते । इसलिए जहां वह गांधी की नीतियों को कहीं अपने लिए स्वीकार्य मान रहे हैं तो वही वह यह भी कहते हैं :–

समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याघ्र
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध

तटस्थता हमसे पाप करवाती है और संसार को किसी ऐसी अनहोनी की ओर लेकर चलती है जो भारी विनाश का प्रतीक हो सकती है । इसलिए संपूर्ण वसुधा को किसी भी भावी संकट से बचाने के लिए वह देश , समाज , राष्ट्र और विश्व के जिम्मेदार लोगों को यह संदेश दे रहे हैं कि जो तटस्थ हैं समय उनका भी अपराध लिखेगा अर्थात समय पर बोलो , जिससे अन्यायी लोगों को अन्याय करने का अवसर ही न मिले। यदि विश्व नेतृत्व आज भी समय पर न्यायसंगत बोलना आरंभ कर दे तो हमारे इस राष्ट्रकवि का विश्व शांति और विश्व – बंधुत्व का सपना साकार हो सकता है ।

‘ दिनकर ‘ जी मानवीय संवेदनाओं का प्रतिनिधित्व करने वाले कवि हैं । उनकी चेतना ने मानवीय संवेदना के साथ पूर्ण समन्वय स्थापित करने में सफलता प्राप्त की है । इसी से उनकी साहित्यिक लेखन शैली में मानवतावाद सर्वत्र बिखर गया है । उन्होंने मनुष्य के विश्व मानस के उलझे हुए तारों को खोलने का हर संभव प्रयास किया है । यही कारण है कि उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार, ज्ञानपीठ पुरस्कार, पद्मविभूषण आदि सभी बड़े पुरस्कारों से सम्मानित किया गया ।

इसके अतिरिक्त दिनकर दो बार राज्यसभा के सदस्य भी रहे । दिनकर की चर्चित पुस्तक ‘संस्कृति के चार अध्याय’ की प्रस्तावना तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने लिखी है । इस प्रस्तावना में नेहरू ने दिनकर को अपना ‘साथी’ और ‘मित्र’ बताया है । दिनकर जी के लिए इन शब्दों का प्रयोग नेहरू ने इसीलिए किया था कि वह उनके अंतरराष्ट्रवाद के सपने को साकार करने में सच्चे सहायक सिद्ध हो सकते थे।

माना कि उनकी उपरोक्त पुस्तक की भूमिका पंडित जवाहरलाल नेहरू जैसे शांति प्रिय प्रधानमंत्री ने लिखी , परंतु अपने लेखनी धर्म का कर्तव्य निर्वाह करते समय उन्होंने प्रत्येक काल के शासक को इस बात के लिए भी सचेत किया –

क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो ।
उसको क्या, जो दंतहीन, विषरहित, विनीत सरल हो।।

बात स्पष्ट है कि अंतर्राष्ट्रीय शांति और विश्व – बंधुत्व की परिकल्पना तभी साकार हो सकती है जब दुष्ट और राक्षस प्रवृत्ति के लोगों के लिए आपके पास क्षत्रबल भी पर्याप्त मात्रा में हो , अन्यथा आपकी अहिंसा या आपके प्रेम और बंधुत्व के भावों को लोग उपहास की दृष्टि से देखेंगे ।यही एक व्यावहारिक सत्य है । ऐसा नहीं है कि यह सत्य वैश्विक शांति की स्थापना में कहीं आड़े आता है , अपितु वह विश्व शांति को और भी अधिक प्रबल करता है । मानो ऐसा कहकर दिनकर जी वेद की इस बात को ही स्पष्ट कर रहे हैं कि वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति – क्योंकि वह दुष्टों और अत्याचारियों का विनाश करने के लिए होती है । इसलिए दिनकर जी का यह स्पष्टवादी चिंतन विश्व के कल्याण के लिए ही है ।

इसका अभिप्राय है कि वह विश्व शांति के लिए युद्ध एक अभिशाप और युद्ध एक वरदान – के बीच समन्वय स्थापित करते हुए यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाने के समर्थक थे । उनका स्पष्ट मानना था कि विश्व शांति में बाधक शक्तियों के विनाश के लिए युद्ध अनिवार्य होता है , यद्यपि युद्ध के लिए उतावला होना या अपनी ओर से आक्रामक होना उन्हें स्वीकार्य नहीं था । विश्व शांति के लिए भटकते आज के विश्व नेतृत्व के लिए राष्ट्रकवि दिनकर जी का यह चिंतन एक मार्गदर्शक की भूमिका निभा सकता है । ‘कुरुक्षेत्र ‘ और ‘परशुराम की प्रतीक्षा ‘ इन दोनों के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि राष्ट्रकवि दिनकर जी ने केवल यही संदेश देने का प्रयास किया है कि ‘ परित्राणाय साधुनाम विनाशाय च दुष्कृताम् ‘ – विश्व शांति का मूल सूत्र है । इससे पलायन करना समझो विश्व को शत्रुओं , राक्षसों व अत्याचारियों के हाथों सौंप देना है।

‘परशुराम की प्रतीक्षा’ से प्रभावित होकर ही हमारे तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी ने 1965 ई0 में ‘जय जवान – जय किसान’ का नारा दिया था । उन्होंने किसान से पहले जवान को इसलिए रखा कि विश्व शांति के लिए ‘परशुराम’ बनना ही पड़ेगा। निश्चित रूप से इसमें हमारे राष्ट्रकवि दिनकर जी की प्रेरणा महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही थी।

आज जो लोग आतंकवाद और आतंकवादियों के साथ खड़े दिखाई दे रहे हैं और संसद में आतंकवाद को रोकने संबंधी आए हुए कानून का विरोध कर रहे हैं वह समझ लें कि उनका यह तटस्थ भाव बहुत बड़ा अपराध है , जिसे समय कभी आने पर लिखेगा।

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