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वैदिक संपत्ति

वैदिक संपत्ति 315* *[चतुर्थ खण्ड] जीविका , उद्योग और ज्ञानविज्ञान*

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(यह लेख माला हम पंडित रघुनंदन शर्मा जी की वैदिक सम्पत्ति नामक पुस्तक के आधार पर सुधि पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं ।)

प्रस्तुति: – देवेंद्र सिंह आर्य
( चेयरमैन ‘उगता भारत’ )

गताक से आगे …

वेद में परमात्मा की स्तुति और प्रार्थना करने का उपदेश इस प्रकार है-

यत्र ब्रह्मा पवमान छन्वस्या३ पाचं वदन् ।
ग्राव्णा सोमे महीयते सोमेनानन्वं जनयन्निन्द्रायेन्दो पति स्रव ।।६।।

यत्र ज्योतिरजस्त्र यस्मिल्लोके स्वहितम् ।

तस्मिन्मां धेहि पवमानामृते लोके अक्षित इन्द्रायेन्द्रो० ।।७।।

यत्र राजा वैवस्वतो यत्रावरोधनं दिवः ।

यत्राभूयंह्वतीरापस्तत्र माममृतं कृचीन्द्र ।येन्द्रो० ।।८।।

यत्रानुकामं चरणं त्रिनाके त्रिदिवे दिवः ।

लोका यत्र ज्योतिष्मन्तस्तत्र माममृतं कृधीन्द्रायेन्दो० ।।६।।

यत्र कामा निकामाश्च यत्र ग्रश्नस्य विष्टपम् ।

स्वधा च यत्र तृप्तिव तत्र साममृतं कृधीन्द्रायेन्दो० ।।१०।।

यत्रानन्दाश्व मोदाच मुवः प्रभुद आसते ।

कामस्य यत्राप्ताः कामास्तत्र माममृतं कृधीन्द्रायेन्दो० ।।११।। (ऋ० १/११३/६-११)

यत्र ब्रह्मविदो यान्ति बीक्षया तपसा सह ।

ब्रह्मा मा तत्र नयतु ब्रह्मा ब्रह्म दधातु मे । ब्रह्मणे स्वाहा ।। (अथवं० १६/४३/८)

अर्थात् जहाँ वेदवेत्ता ब्रह्मा अथर्ववाणी को बोलता हुआ योगद्वारा परमात्मा को प्राप्त होता है और परमात्मा के द्वारा आनन्द पाता है, वहीं हे परमात्मन् ! इस योगी को भी अमृतबिन्दु देकर दर्शन देकर पहुँचाइये। जहाँ निरन्तर ज्योति का प्रकाश होता है और जहाँ सब सुख ही सुख है, उस अक्षय आनन्द में मुझे पहुँचाइये । जहाँ वैवस्वत राजा है, जहाँ का द्यौलोक दरवाजा है और जहाँ अमृत जल की वृष्टि होती है, वहाँ मुझे अमर कीजिये । जहाँ इच्छानुसार विचरण होता है और जहाँ ज्योतिरूप स्थान है, उसी तीसरे द्यौलोक के उस पार मुझे अमर कीजिये । जहाँ सब कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं, जहाँ सबसे बड़ा सुख प्राप्त होता है और जहाँ स्वधा तथा हर प्रकार की तृप्ति प्राप्त होती है, वहाँ मुझे अमर कीजिये। जहाँ पूर्ण हर्ष, पूर्ण प्रसन्नता, पूर्ण सुख और पूर्ण आनन्द प्राप्त होता है और जहाँ सब इच्छाएं पूर्ण हो जाती हैं, वहीं हे परमात्मन् ! दर्शन देकर मुझे पहुँचाइये। जहाँ ब्रह्मविद् विद्वान तप और दीक्षा के प्रताप से जाते हैं हे ब्रह्म ! मुझ में ब्रह्म को धारण करके वही पहुँचाइये। इन मन्त्रों में परमात्मा से प्रार्थना की गई है कि मुझे पहिले दर्शन दीजिये जिससे मैं जीवन्मुक्त हो जाऊं और फिर मरने के बाद तृतीय लोक के बाहर जहाँ प्राकृतिक जगद का लेश भी नहीं है और जहाँ केवल ब्रह्म ही ब्रह्म है, वहाँ हमेशा के लिए पहुँचा दीजिये। इस प्रकार की निरन्तर प्रार्थना से समाधिस्थ निश्चल आत्मा में परमात्मा प्रकट हो जाता है। उस समय वह जीवन्मुक्त कहता है कि-

यो भूतानामधिपतिर्यस्मिल्लोका अधि श्रिताः ।

य ईशे महतो महाँस्तेन गृह्णामि त्वामहं मयि गृह्णामि त्वामहम् ।। (यजु० २००३२)

अर्थात् जो सब भूतों का अधिपति है, जिसमें सब लोक ठहरे हैं और जो बड़ों से भी बड़ों का स्वामी है, उस तुझ परमात्मा को मैं ग्रहण करता हूँ- अपने अन्दर तुझको ग्रहण करता है। इस मन्त्र में जीवन की अन्तिम सफलता का वर्णन है। इस प्रकार मनुष्य ईश्वरदर्शन से कृतार्थ होकर, सब प्रकार की शंकाओं से निवृत्त होकर और सब कुछ जानकर शेष जीवन में लोगों को ब्रह्मज्ञान का उपदेश करता हुआ प्रसन्नता से मृत्यु को प्राप्त होता है ओर मुक्त हो जाता है। यह वैदिक उपनिषद् का उत्तरार्ष है।

वेदों में आरम्भ से लेकर अन्त तक इसी प्रकार की शिक्षा है, जिसका नमूना हमने इन शिक्षा के पृथक् पृथक् आठ विभागों में अच्छी तरह दिखला दिया है। हमारा दृढ़ विश्वास है कि जितनी विस्तृत शिक्षा वेदों में है, यदि उतनी शिक्षा विधिपूर्वक किसी भी मनुष्यसमाज को दी जाय, तो वह समाज अपनी उन्नति हर विभाग में आसानी से अच्छी तरह कर सकता है। परन्तु आजकल की सी विस्तृत उन्नति वेदों की दृष्टि से समस्त मनुष्यजाति और समस्त प्राणि- समूह के लिये कल्याणकारी नहीं है, इसीलिए वैदिको ने अकेले वेद ही को एक पूर्ण साहित्य का काम देनेवाला माना है। वेद स्वयं समस्त मनुष्योपयोगी शिक्षा दे देते हैं, इसलिए वे किसी अन्य ग्रन्थ या अन्य साहित्य के मोहताज नहीं हैं। वेद अकेले ही अपनी शिक्षा से मनुष्य को इस योग्य बना देते हैं कि वह अपना हर एक आवश्यक कार्य आसानी से कर सकता है और अपने ज्ञान को विस्तृत भी कर सकता है। यज्ञों का वर्णन करते हुए द्वितीय खण्ड में हम लिख आये हैं कि आदिमकाल से मध्यमकाल पर्यंत वैदिक आर्यों ने इसी मौलिक ज्ञान की बदौलत बहुत बड़ी उन्नति की थी और अपनी एक खास सभ्यता स्थापित की थी, जिस में आदि से अन्त तक सम्पूर्ण वेद ही चरितार्थ थे। आगे हम उसी आदिम वैदिक आर्यसभ्यता के आदर्श का वर्णन करते हैं और दिखलाते हैं कि किस प्रकार अकेला वैदिक ज्ञान मनुष्यसमाज को आदर्श उन्नति के शिखर तक पहुँचाता है।
क्रमश:

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