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महत्वपूर्ण लेख संपादकीय

‘लोकनायक’ होने के भ्रम से जूझते विपक्ष के नेता

अभी हाल ही में संपन्न हुए पांच राज्यों की विधानसभा के चुनावों में जिस प्रकार वहां के मतदाताओं ने देश के विपक्ष का सफाया किया है उससे सारा विपक्ष इस समय सदमे की अवस्था में है। विपक्ष के सभी बड़े नेताओं को चुनाव परिणाम के पश्चात सांप सूंघ गया था। उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि जनता से संवाद करने के लिए किस प्रकार आगे बढ़ा जाए ? तीन दिन पश्चात जाकर नेताओं ने जनता से मुंह छुपाने के स्थान पर स्वयं को पुनः स्थापित करने के दृष्टिकोण से प्रेरित होकर जनता को फिर भ्रमित करने का प्रयास करते हुए उससे संवाद स्थापित करने का बहाना ईवीएम को गाली देते हुए खोजा।
वास्तव में भारत के लोकतंत्र की सबसे बड़ी त्रासदी ही यह है कि यहां नेता सामने दीवार पर लिखी इबारत को न पढ़कर जनता को भ्रमित करने में लगे रहते हैं। इनके भीतर संघर्ष करने और जनता के हितों के लिए जूझने की प्रवृत्ति समाप्त हो गई है। देश के विपक्ष के पास इस समय राजनेताओं का अभाव है, यद्यपि उसके पास राजनीतिज्ञों की भरमार है। ये नेता जानते हैं कि इस समय देश के भीतर इतनी अधिक जनसमस्याएं हैं कि कोई भी पार्टी सत्ता में अधिक देर तक रह नहीं सकती। क्योंकि 5 वर्ष में ही सत्तासीन पार्टी से लोगों का मोह भंग हो जाता है और वे अपनी समस्याओं को निपटवाने या सुलझवाने के दृष्टिकोण से प्रेरित होकर फिर किसी दूसरे राजनीतिक दल को अवसर दे ही देते हैं। भारतीय लोकतंत्र की इस विडंबना को ही कुछ राजनीतिक दलों ने अपने लिए सौभाग्य में परिवर्तित करके देखना आरंभ कर दिया है। जिससे उनके भीतर निष्क्रियता का भाव पैदा हुआ है।
यदि इस समय के विपक्ष की बात करें तो वह निष्क्रियता के साथ-साथ ‘विचारहीनता’ की स्थिति में भी डूबा हुआ है और इस स्थिति में ही सत्ता में लौटने के सब्जबाग देख रहा है। राजनीति में विचारहीनता तब आती है जब राजनीतिक दलों और उनके नेताओं को कोई ठोस मुद्दा नहीं मिलता है और वे मुद्दों के लिए इधर-उधर भटकते हुए दिखाई देते हैं। अपनी इस भटकन के वशीभूत होकर अधिकांश नेता जब जनता को बरगलाने और बहकाने की बात करते हुए दिखाई दें तब समझना चाहिए कि उनके पास इस समय कोई ठोस विचार नहीं है। वे विचारहीनता के उस भंवर जाल में फंस चुके हैं , जिससे निकलना अब उनके लिए संभव नहीं रहा है।
इस समय भी कई नेता ऐसे हैं जो या तो किसी जयप्रकाश नारायण को ढूंढ रहे हैं या स्वयं को ही जयप्रकाश नारायण का अवतार दिखाने का कार्य कर रहे हैं। इस दिशा में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का नाम सर्वोपरि है। उन्होंने अपने बारे में अपने आप ही यह भ्रम पाल लिया है कि वह लोकनायक जयप्रकाश नारायण के अवतार के रूप में इस समय अवतरित हो चुके हैं। अपने इस भ्रम को वह ‘लोकभ्रम’ के रूप में परिवर्तित करने को आतुर दिखाई देते हैं। उनकी जिद है कि जिस भ्रम में वह जी रहे हैं उसी में देश का मतदाता जीने के लिए बाध्य हो जाए और उन्हें लोकनायक मान ले। इस सब के उपरांत भी उनका सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि उन्हें अपनी पार्टी और अपने गठबंधन के लोगों ने भी इस रूप में स्वीकार नहीं किया है। यही कारण रहा कि उन्होंने ‘इंडिया गठबंधन’ को जन्म देकर भी उससे किनारा कर लिया। वह इस घमंड में आ गए कि यदि मैं नहीं तो बकौल प्रधानमंत्री मोदी के ‘घमंडिया गठबंधन’ भी नहीं।
यदि कांग्रेस के नेता राहुल गांधी की बात करें तो वह भी नीतीश कुमार से कम नहीं हैं। उन्होंने इस भ्रम को पाल लिया था कि वर्तमान परिस्थितियों में मध्य प्रदेश उन्हें इसलिए मिल जाएगा कि वहां पर सत्ता विरोधी लहर चलेगी और शिवराज सिंह चौहान को जनता उखाड़कर राज कमलनाथ के हाथों में दे देगी। पर ऐसा हुआ नहीं। राजस्थान के बारे में भी संभवत: उनको यह भ्रम हो गया था कि वहां इस बार रिवाज बदलेगा, राज नहीं।
इसके साथ ही वह छत्तीसगढ़ को अपना मानकर चल रहे थे और तेलंगाना को भी अपनी झोली में आता हुआ देख रहे थे।
उनकी सोच थी कि जब चार राज्यों में उनकी सरकार बन जाएगी तो सारा ‘इंडिया गठबंधन’ उनके पीछे लगने के लिए मजबूर हो जाएगा और वह विपक्ष का नेतृत्व करते हुए लोकनायक जयप्रकाश नारायण के रूप में उभर कर सामने आएंगे। अब उनका भी वही हश्र हो गया है जो वर्तमान के बिहारी बाबू अर्थात नीतीश कुमार का हुआ है। बिहारी बाबू की दुनिया उजड़ चुकी है । उनके सपनों पर पानी फिर गया है । उन्होंने समझ लिया है कि दिल्ली दूर ही नहीं , दिल्ली असंभव है। राहुल गांधी को समझ आ गया है कि दिल्ली अभी दूर है। इसी समय सपा के अखिलेश यादव सहित उन जैसे कई नेताओं को भी समझ में आ गया है कि संभल कर नहीं चले तो केंद्र के साथ-साथ प्रदेश भी हाथों से चले जाएंगे।
2024 के चुनावों के बारे में विपक्ष को समझ लेना चाहिए कि लोग अब यह भी देख रहे हैं कि किस पार्टी के सत्ता में आने पर समाज में अराजकता फैलती है या अराजक तत्वों को बढ़ावा मिलता है ? विपक्ष को ईमानदारी से इन्हीं चीजों पर आत्मावलोकन करना चाहिए। उन्हें यह समीक्षा करनी चाहिए कि उनके शासन में किसी वर्ग विशेष को बढ़ावा मिलता है या नही?
जब शासन में बैठे लोग पक्षपाती हो जाते हैं तो जनता का भला नहीं हो पाता है। बात उत्तर प्रदेश की करें तो यहां पर सपा के शासनकाल में एक वर्ग विशेष को आतंक फैलाने की छूट मिलती है जिसे लोग भली प्रकार समझ चुके हैं। पार्टी के कार्यकर्ता जिस प्रकार लोगों के साथ बदतमीजी करते हैं उसे भी इस पार्टी के खिलाफ माहौल बनाने में प्रयोग किया जाता है। यही स्थिति बंगाल में टीएमसी की है। वहां की नेता ममता बनर्जी जिस प्रकार हिंदुओं पर खुला अत्याचार करती हैं , वह किसी से छुपा नहीं है। ममता बनर्जी चाहे कितना ही इंडिया गठबंधन को मजबूत करने की बात करती हों पर जब उनकी कार्य शैली को देश के अन्य प्रांतों का हिंदू देखता है तो वह न केवल ममता बनर्जी से दूरी बनाता है अपितु उस मंच से भी दूरी बनाने की सोच लेता है जिस पर वह दिखाई देती हैं। यही कारण है कि ममता बनर्जी को भी देश का जनमानस लोकनायक जयप्रकाश नारायण के अवतार के रूप में नकार चुका है।
विपक्ष के सभी नेताओं को इस समय समझ लेना चाहिए कि यदि विचारधारा मजबूत है तो देश का परिपक्व मतदाता अब विचारधारा के आधार पर ही निर्णय लेने की अकल पैदा कर चुका है। उसे नारों से या रेवड़ियों से बहकाया जाना अब संभव नहीं है। राष्ट्रीय मुद्दों को समझने और उन पर अपना निर्णय देने की समझ देश के मतदाताओं के भीतर अब स्थाई भाव दिखाने लगी है। जिससे पता चल रहा है कि भारत का लोकतंत्र सचमुच सुदृढ़ हो रहा है।
लोगों के लिए सुरक्षा सबसे पहले है। सुरक्षा दो प्रकार की होती है। एक तो सामाजिक सुरक्षा, दूसरे व्यक्तिगत शारीरिक सुरक्षा। देश की महिला को इन दोनों प्रकार की सुरक्षा की आवश्यकता होती है। इसके लिए देश की महिलाएं उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के मॉडल को अपने लिए सुरक्षा का अचूक कवच मानकर चल रही हैं। जहां तक पुरुषों की बात है तो उनके लिए भी इसी प्रकार की दोनों सुरक्षाओं की आवश्यकता होती है। यद्यपि सामाजिक सुरक्षा में उनकी परिभाषा का थोड़ा सा आयाम परिवर्तित हो जाता है।
ऐसी परिस्थितियों में यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि देश के विपक्ष के पास इस समय नेतृत्व का अभाव है । सर्वमान्य छवि का कोई भी नेता विपक्ष के पास नहीं है। अपनी इस कमजोरी को सारा विपक्ष जानता है। पर दुख की बात यह है कि जानकर भी वह अपने सत्ता स्वार्थ में इतना डूबा हुआ है कि एक दूसरे की टांग खींचने से उस समय भी बाज नहीं आ रहा है जब वह अपने आप को प्रधानमंत्री मोदी का विकल्प बताकर लोगों के बीच प्रस्तुत कर रहा है। इससे पहले कि विपक्ष 2024 के चुनाव परिणाम आने के बाद फिर ईवीएम पर दोषारोपण करे वह समय रहते सावधान होकर अपने गिरेबां में झांके और अपने तरकश को कारगर तीरों से भरकर अपने सामने खड़ी चुनौती को ढाने का प्रयास करे।

डॉ राकेश कुमार आर्य

( लेखक सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता हैं।)

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