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वैदिक संपत्ति

वैदिक सम्पत्ति (चतुर्थ खण्ड) जीविका,उद्योग और ज्ञानविज्ञान

(ये लेखमाला हम पं. रघुनंदन शर्मा जी की ‘वैदिक संपत्ति’ नामक पुस्तक के आधार पर सुधि पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहें हैं ]

प्रस्तुति: देवेन्द्र सिंह आर्य (चेयरमैन ‘उगता भारत’)

गतांक से आगे…..

इसके आगे नक्षत्रों का वर्णन इस प्रकार है-

यानि नक्षत्राणि दिव्य१न्तरिक्षे अप्सु भूमौ यानि नगेषु दिक्षु ।
प्रकल्पय श्रवन्द्रमा यान्येति सर्वाणि ममैतानि शिवानि सन्तु ॥ १ ॥
अष्टाविशानि शिवानि शग्मानि सह योगं भजन्तु मे ।
योगं प्र पद्ये क्षेमं च क्षेमं प्र पद्ये योगं च नमोऽहोरात्राभ्पामस्तु ॥२॥ (अथर्व० १९/८/१–२)

अर्थात् जिन नक्षत्रों को आकाश के मध्यलोक में, जिनको जल के ऊपर, भूमि के ऊपर, बादलों के ऊपर सब दिशाओं में चन्द्रमा समर्थ करता हुआ चलता है, ये सब मेरे लिए सुखदायक हो। अट्ठाईस नक्षत्र मेरे लिए कल्याण- कारी और सुखदायक हो तथा योगक्षेम अथवा क्षेमयोग को मैं पाऊँ । यहाँ तक वेदमन्त्रों के द्वारा पृथिवी, सूर्य, चन्द्र और नक्षत्रों का वर्णन हुआ। इन्हीं सूर्य, पृथिवी ओर चन्द्रमा तथा नक्षत्रों से ही वर्ष और कालविभाग होता है। इस समस्त विभाग की गणना इस प्रकार की गई है-

संवत्सरोऽसि परिवत्सरोऽसीदावत्सरोऽसी इस्सरोऽसि वत्सरोऽसि ।
उषसस्ते कल्पन्तामहोरात्रास्ते कल्पन्तामर्ध मासास्ते कल्पन्ता मासास्ते कल्पन्तामृतवस्ते कल्पन्ता संवत्सरस्ते कल्पताम्० ॥ (यजुर्वेद २७/४५)
अर्थात् तू संवत्सर, परिवत्सर इदावत्सर और वत्सर है। तूने प्रातःकाल, अहोरात्र, अर्धमास, मास, ऋतु और वर्ष को बनाया है। इसके आगे अधिक मास अर्थात् लौद मास का वर्णन इस प्रकार है-

अहोरात्रैविमितं त्रिशदङ्ग त्रयोदशं मासं यो निर्मिमीते ।। (अथर्व० १३/३/८) अर्थात् उसके क्रोध से डरो जिसने तीस अहोरात्र और तेरहवाँ महीना निर्माण किया है। प्रत्येक वर्ष में लग-भग १२ दिन अथवा १२ रात्रि का अन्तर पड़ता है, तभी तीसरे वर्ष में अधिक मास होता है। इन १२ दिनों और १२ रात्रियों का वर्णन इस प्रकार है–

द्वादश वा एता रात्रीव्रत्या आहुः प्रजापतेः ।
तत्रोप ब्रह्म यो वेद तद्वा अनडुहो व्रतम् ॥ (अथर्व० ४।११।११)

अर्थात् ये बारह रात्रियाँ संवत्सर की यज्ञ के योग्य कही गई हैं। उनमें जो सूर्य का यज्ञ करता है, वही जीवन पहुँचानेवाले वर्ष को जानता है। इन बारह दिनों की बारह रात्रियों का वर्णन इस प्रकार है-

द्वादश द्यू न्यदगोह्यस्यातिथ्ये रणन्नुभवः ससन्तः ।
सुक्षेत्राकृण्वन्नयन्त सिन्धून्धन्वातिष्ठन्नोषधी निम्नमापः ॥ (ऋ० ४।३३।७)

अर्थात् सोती हुए ऋतुएँ आकाश में प्रत्यक्ष आतिथ्य ग्रहण करने को १२ दिन अच्छी तरह ठहरती हैं। इससे नदियों का जल नीचे आता है, औषधियाँ खेतों में होती हैं और सब प्रकार के सुख होते हैं। इसका अभिप्राय यही है कि १२ दिन साल में घट बढ़कर चान्द्र और सौर वर्ष बराबर हो जाते हैं, जिससे ऋतुएँ ठीक समय में पानी बरसाती हैं और फल फूल होते हैं। इस घटाव बढ़ाव से चान्द्रवर्ष और सायनवर्ष बराबर हो जाता है। सायनवर्ष के १२ मास और प्रत्येक मास के ३० अंशों का वर्णन इस प्रकार है-

द्वादश प्रधयश्चक्रमेकं त्रीणि नभ्यानि क उ तिच्चिकेत ।
तत्राहृतास्त्रोणि शतानि शङ्कयः षष्टिश्च खीला अविचाचला ये ।। (अथर्व० १०/८/४)

अर्थात् वर्षचक्र के बारह मास पुट्ठी हैं, पूरा वर्ष पहिया है, तीन ऋतुएँ नाभि हैं और तीन सौ साठ दिन काँटे है,जो टेढ़े टेढ़े चलते हैं। इसके आगे इस सायनवर्ष के दोनों अयनों का वर्णन इस प्रकार है-

द्वे स्त्रुती अश्रृणवं पितॄणामहं देवानामुत मत्र्याऩाम् ।
ताभ्यामिदं विश्वमेजरसमेति पदन्तरा पितरं मातरं च ॥ (ऋ० १०/८८/१५)

अर्थात् देवयान और पितृयान दो मार्ग हैं, इन्हीं के द्वारा मोक्ष और आवागमन होता है। इन्हीं को उत्तरायन ओर दक्षिणायन कहते हैं । अथर्ववेद में इनके लिए लिखा है कि ‘षडाहु: ऊष्णान् षडाहु: शीतान्’ अर्थात् छै मास गर्मी और छै मास शीत होता है। इसी तरह वेद में अनेक ऋतुओं का वर्णन है। यजुर्वेद २२।३१ और ७३० में छै ऋतुओं के अतिरिक्त एक सातवी ऋतु ‘अंहसस्पतय’ का भी नाम आता है और अथर्व०८/९/१८ में ‘मधूनि सप्त’ तथा ‘ऋतवो ह् सप्त’ का वर्णेन भी हुआ है। इसी तरह अथवं० ८।६।१५ में ‘ऋतवोनु पञ्च’ कहकर पाँच ऋतुओं का भी वर्णन कहा गया है। ऋतुएं तो प्रसिद्ध है ही। इस प्रकार से संसार की अनेक परिस्थितियों के कारण अनेक प्रकार की ऋतुएं बतलाई गई है।

क्रमशः

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