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संपादकीय

देश का विभाजन और सावरकर : अध्याय 15 क निजाम हैदराबाद का देश विरोधी आचरण

‘सावरकर समग्र’ के खंड 6 के पृष्ठ संख्या 342 पर सावरकर जी तैमूर लंग के विषय में बताते हैं कि तैमूर लंग तुर्क था। प्रारंभ में उसने इस्लाम धर्म स्वीकार नहीं किया था। उसने बगदाद को जीतने के पश्चात वहां के समस्त मुस्लिम ग्रंथों और अनेक स्थानों की मस्जिदों को जला डाला था। ईसवी सन 1369 में वह समरकंद का सुल्तान बना।…..
तत्पश्चात उसकी दृष्टि हिंदुस्तान पर पड़ी। बाद में उसका उद्देश्य राज्य सत्ता और साम्राज्य का लोभ ही नहीं था अपितु उसके मन में हिंदुस्तान के विषय में दूसरे प्रकार का एक बड़ा द्वेष उत्पन्न हो गया था। कारण इस बीच वह इस्लाम स्वीकार कर कट्टर मुसलमान बन गया था। उसके मूलतः अत्यंत विध्वंसक स्वभाव के कारण इस नए धर्म का भूत पूर्णत: संचरित हुआ। उसने अपने आत्मचरित्र में लिखा है ‘भारत पर आक्रमण करने का मेरा उद्देश्य वहां के हिंदू काफिरों का वध कर उनकी मूर्तियों का विध्वंस कर उन्हें इस्लामी धर्म की दीक्षा देकर अल्लाह के दरबार में गाजी पद प्राप्त करना है।’

नेहरू जी का लेखन बनाम सावरकर जी का लेखन

‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ के लेखक पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कहीं भी मुसलमानों की इस वास्तविकता का सही चित्रण नहीं किया है। वह बर्बर आक्रमणकारियों को भी सराहते हुए दिखाई देते हैं। यदि सावरकर जी और नेहरू जी दोनों के इतिहास लेखन पर दृष्टिपात किया जाए तो इन दोनों के लेखन में जमीन आसमान का अंतर है। एक पर राष्ट्रभक्ति का प्रभाव है तो दूसरे पर राजभक्ति का प्रभाव है। सावरकर जी का लेखन राष्ट्र को प्राथमिकता देते हुए लिखा गया है। इस प्रकार उनके लेखन में राष्ट्रभक्ति झलकती है। जबकि नेहरू जी के द्वारा राजभक्ति को दृष्टिगत रखकर लिखा गया है। यही कारण है कि उनके लेखन में भारत की उपेक्षा और अपने राजनीतिक आकाओं की चाटुकारिता अधिक दिखाई देती है। नेहरू जी अपने काल में ब्रिटिश लोगों की कृपा के चलते भारत को एक राष्ट्र बनता हुआ देख रहे थे। जबकि सावरकर जी अंग्रेजों के काल में बने बनाए वैदिक हिंदू राष्ट्र को उजड़ता हुआ देख रहे थे। भारत को इस प्रकार उजाड़ने में वह न केवल अंग्रेजों को एक महत्वपूर्ण कारक मानते थे अपितु मुसलमानों को भी इसका बराबर का भागीदार मानते थे। नेहरू जी जहां मुसलमानों को उनके द्वारा किए गए सब प्रकार के अत्याचारों के उपरांत भी इस देश का मूलनिवासी मानने की दोगली चाल चल रहे थे, वहीं सावरकर जी इस बात को मानने को तैयार नहीं थे। वह हर उस व्यक्ति को इस देश का मूलनिवासी या एक अच्छा नागरिक मानने को वरीयता देते थे, जो भारत भूमि को अपनी पवित्र भूमि ,पुण्य भूमि और पितृभूमि स्वीकार करता हो।

हिंदू की संख्या के बारे में सावरकर जी का मूल्यांकन

सावरकर जी ने तैमूर लंग के जिस कथन को यहां प्रस्तुत किया है, उससे हर उस लेखक या इतिहासकार की पोल खुल जाती है जो मुसलमानों के भारत पर किए गए आक्रमणों को राजनीतिक दृष्टिकोण से ही प्रेरित मानते आए हैं। ऐसी ही बीमारी गांधीजी और नेहरू जी को भी लगी हुई थी। वह भी इन तथाकथित विदेशी आक्रमणकारियों को कभी भी भारत द्वेषी स्वीकार नहीं करते थे। यदि सावरकर जी के दृष्टिकोण से भारत में मुस्लिमों के आक्रमण और उनके प्रवेश के परिणामों पर विचार किया जाए तो हमें यह समझने में देर नहीं लगेगी कि आज के संपूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप में जितना भर भी मुसलमान बसा हुआ है उसका पूर्वज हिंदू ही है। कहने का अभिप्राय है कि यदि भारत का हिंदू आर्यों की संतान है तो भारतीय उपमहाद्वीप का मुसलमान भी आर्यों की सन्तान ही है। इस प्रकार यदि बांग्लादेश, पाकिस्तान ,अफगानिस्तान, भारत और श्रीलंका सहित उपमहाद्वीप के किसी भी देश में मुसलमानों की संख्या को निकाला जाए और इन सबको आज थोड़ी देर के लिए यदि हिंदू मान लिया जाए तो पता चलेगा कि जितना हिंदू भारत में रहता है उतना ही भारत से बाहर इस भारतीय उपमहाद्वीप में रहता है। भारत की यह कितनी बड़ी हानि है? इस हैं का मूल्यांकन करने के उपरांत ही सावरकर जी धर्मांतरण से मर्मांतरण और मर्मांतरण से राष्ट्रांतरण की बात कहते थे।

नेहरू जी उलझ गए ‘भारत संघ’ तक

 अपनी इसी प्रकार की सोच के चलते पंडित जवाहरलाल नेहरू और उनके राजनीतिक गुरु महात्मा गांधी ने हैदराबाद और जूनागढ़ के नवाबों द्वारा जब भारत के साथ विलय न करके देश के कई टुकड़े करने की राह अपनाई गई तो उसे ये दोनों बड़े नेता इस रूप में ले रहे थे कि स्वतंत्रता की इस बेला में अपने अपने ढंग से निर्णय लेने का सबको अधिकार है। इसका कारण था कि 'डिस्कवरी ऑफ इंडिया' के लेखक नेहरू हमारे देश को एक प्राचीनतम राष्ट्र न मान कर नवोदित राष्ट्र के रूप में देख रहे थे। जो विभिन्न प्रकार की राष्ट्रीयताओं का एक समुच्चय उन्हें दिखाई देता था। इसका अभिप्राय है कि सावरकर जी यदि भारत में हिंदू मुस्लिम नाम के दो राष्ट्र देख रहे थे तो नेहरू जी और गांधी जी भारत में अनेक राष्ट्र देख रहे थे । सावरकर जी गांधी एंड नेहरू कंपनी के भारत में अनेक राष्ट्र होने के चिंतन के घोर विरोधी थे। वह चाहते थे कि भारत के मुसलमान भी भारत को अपना राष्ट्र समझें और यहां के रीति-रिवाजों को अपनाकर हिंदू के साथ वैसे ही संबंध स्थापित करें जैसे उनके पूर्वज आर्यों की संतान होने के रूप में स्थापित किए रहे थे। 

राष्ट्र के बारे में अपना स्पष्ट और ठोस चिंतन न होने के कारण गांधीजी और नेहरू जी दोनों ही भारत संघ की एक गलत अवधारणा के जंजाल में उलझ कर रह गए। जबकि सावरकर जी ऐसे किसी जंजाल को खड़े करने के ही समर्थक नहीं थे। वे भारत को विभिन्न राष्ट्रीयताओं का समूह न मानकर एक राष्ट्र आर्य वैदिक राष्ट्र अर्थात हिंदू राष्ट्र के रूप में देखने के समर्थक थे। अपनी इस बात के समर्थन में वह शिवाजी जैसे अनेक हिंदू सम्राटों के महान कार्य का गौरवशाली ढंग से उल्लेख करते थे। वह हमें बताते थे कि भारत के आर्य हिंदू राष्ट्र के लिए अब से पूर्व कितने महान शासकों, राष्ट्रचिंतकों, महात्माओं और महानायकों ने परिश्रम किया है? जबकि मुगलों के काल से राष्ट्र बनने की स्थिति में भारत को रखने वाले नेहरू जी एक झटके में ही आर्य हिंदू राजाओं की दीर्घकालिक श्रंखला को उपेक्षित कर देते थे।
अपनी इसी सोच के कारण उन्होंने भारत का नाम भारत संघ रखवाया था। इसके विपरीत सावरकर जी भारत को प्राचीनतम राष्ट्र के रूप में मानते थे और यह भी मानते थे कि इस देश ने दूसरों से कुछ सीखा नहीं है, उन्हें सिखाया है। वे मानते थे कि भारत राष्ट्र का निर्माण यहां के विभिन्न ऋषियों , चिंतकों, साधकों, अनेक सम्राटों, समाज सुधारकों के द्वारा किया गया है और जितने भर भी विदेशी आक्रमणकारी यहां पर आए, उन सबने भारतीय राष्ट्र की राष्ट्रीयता के साथ खिलवाड़ किया है। नेहरू जी की मान्यता थी कि बाहर से काफिले आते गए और हिंदुस्तान बनता गया। मौलिक चिंतन के इस भेद ने सावरकर जी को जहां भारतीय राष्ट्रीयता के साथ संबद्ध किया , वहीं नेहरू और गांधी को उनकी उस दोगली राष्ट्रीयता का संवाहक बनाया जो हमारे देश की मौलिक चेतना के साथ कभी सहकार कर ही नहीं सकती थी।

डॉ राकेश कुमार आर्य

( यह लेख मेरी नवीन पुस्तक “देश का विभाजन और सावरकर” से लिया गया है। मेरी यह पुस्तक डायमंड पॉकेट बुक्स दिल्ली से प्रकाशित हुई है जिसका मूल्य ₹200 और पृष्ठ संख्या 152 है।)

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