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संपादकीय

देश का विभाजन और सावरकर, अध्याय -14 ख सुचेता कृपलानी की पीड़ित महिलाओं को सलाह

वे उनकी बातों को बीच में ही काटते हुए उन पर लगभग गरजते हुए बोलीं कि “मैं पंजाब और नोआखाली में सरेआम घूमती हूँ। मेरी तरफ तो कोई भी मुस्लिम गुंडा तिरछी निगाह से देखने की भी हिम्मत नहीं करता। क्योंकि मैं न तो भड़कीला मेकअप करती हूँ और ना ही लिपस्टिक लगाती हूँ। आप महिलाएँ लो – नेक का ब्लाउज पहनती हैं, पारदर्शी साड़ियाँ पहनती हैं। इसीलिए मुस्लिम गुंडों का ध्यान आपकी तरफ जाता है। और मान लीजिए, किसी गुंडे ने आप पर आक्रमण कर भी दिया, तो आपको राजपूत बहनों का आदर्श अपने सामने रखना चाहिए, ‘जौहर’ करना चाहिए!’
यही वह गांधीवाद था जो उस समय के कांग्रेसी नेताओं पर पूरी रंगत के साथ चढ़ चुका था। यदि कांग्रेस के चरित्र और संस्कृति का गहराई से अवलोकन किया जाए तो आज भी उसका दृष्टिकोण इसी प्रकार का है। हिंदू के साथ उसकी सोच दूसरी होती है और मुस्लिम के साथ दूसरी हो जाती है।

मालवीय जी के विषय में एक नया तथ्य

‘बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय‘ के संस्थापक पंडित मदनमोहन मालवीय जी के विषय में एक नया तथ्य प्रकाश में आया है कि उन्होंने 14 फ़रवरी 1931 को लॉर्ड इरविन के सामने भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की फांसी रोकने के लिए दया याचिका दायर की थी। पंडित मदन मोहन मालवीय जी देशभक्त थे और किसी भी प्रकार की ब्रिटिश चाटुकारिता या जिन्नाहपरस्ती उन्हें पसंद नहीं थी। वे राजभक्त ना होकर राष्ट्रभक्त थे। इसी भाव से प्रेरित होकर उन्होंने भगत सिंह और उनके साथियों की फांसी को रुकवाने के लिए दया याचिका दायर की थी। पंडित मदन मोहन मालवीय जी की दया याचिका को उलझाने के दृष्टिकोण से प्रेरित होकर तत्कालीन वायसराय लॉर्ड इरविन ने उनसे कहा था कि आप कांग्रेस के पूर्व में अध्यक्ष रहे हैं , इसलिए आपको इस दया याचिका के साथ नेहरु, गाँधी सहित कांग्रेस के कम से कम 20 अन्य सदस्यों के पत्र भी लाने होंगे।
बात स्पष्ट है कि गांधी और नेहरू पंडित मदन मोहन मालवीय
जी की उपरोक्त दया याचिका पर हस्ताक्षर करने वाले नहीं थे और उनसे अलग कुछ और कांग्रेसी इसलिए हस्ताक्षर नहीं करते कि जब उनके बड़े नेता ही इस पर हस्ताक्षर नहीं कर रहे हैं तो उनके लिए ऐसा करना असंभव है। लॉर्ड इरविन ने मामले को उलझाया और पंडित मदन मोहन मालवीय जी को निराश कर अपने सामने से लौटा दिया। इसके उपरांत भी पंडित मदन मोहन मालवीय जी ने हार नहीं मानी और उन्होंने गांधी और नेहरू से इस विषय में वार्तालाप किया। कांग्रेस के ये दोनों नेता पंडित मदन मोहन मालवीय जी के उपरोक्त प्रस्ताव पर पूर्णतया मौन हो गए थे। उनके इस प्रकार चुप्पी साध लेने के परिणाम स्वरूप कांग्रेस के अन्य किसी भी नेता ने पंडित मदन मोहन मालवीय जी का साथ नहीं दिया।
भारत से स्वदेश लौटने के उपरांत लॉर्ड इरविन ने स्वयं यह स्वीकार किया था कि “यदि नेहरु और गाँधी एक बार भी भगत सिंह की फांसी रुकवाने की अपील करते तो हम निश्चित ही उनकी फांसी रद्द कर देते, लेकिन पता नहीं क्यों मुझे ऐसा महसूस हुआ कि गाँधी और नेहरु को इस बात की हमसे भी ज्यादा जल्दी थी कि भगत सिंह को फांसी दी जाए।”
प्रोफेसर कपिल कुमार जैसे विद्वान की पुस्तक के अनुसार ”गाँधी और लॉर्ड इरविन के बीच जब समझौता हुआ तो उस समय इरविन इतना आश्चर्य में था कि गाँधी और नेहरु में से किसी ने भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को छोड़ने के बारे में चर्चा तक नहीं की ।”
लॉर्ड इरविन ने अपने मित्रों से कहा कि ‘हम यह मानकर चल रहे थे कि गाँधी और नेहरु भगत सिंह की रिहाई के लिए अड़ जायेंगे और हम उनकी यह बात मान लेंगेl’

गांधीजी की सहमति से हुई थी फांसी

गांधीजी और नेहरू दोनों ही ऐसे नेता थे जिन्हें अपने से आगे निकलता हुआ कोई भी नेता अच्छा नहीं लगता था। उन्होंने किसी भी लोकप्रिय नेता को पसंद नहीं किया। लोकप्रिय नेताओं को रद्दी की टोकरी में फेंकने या उनकी राजनीतिक हत्या करने में कांग्रेस ने अपने इन्हीं दोनों नेताओं से बहुत कुछ सीखा है। उन दिनों भगत सिंह जनता में बहुत अधिक लोकप्रिय हो चुके थे। इसी प्रकार नेताजी सुभाष चंद्र बोस की नेहरू और गांधी से लोकप्रियता में बहुत आगे निकल चुके थे। यही कारण था कि सत्ता के लोभी नेहरू और उनके गुरु गांधी जी को भगत सिंह और नेताजी सुभाष चंद्र बोस जैसे क्रांतिकारी नेताओं की बढ़ी हुई लोकप्रियता रास नहीं आ रही थी। लॉर्ड इरविन ने यह भी कहा है कि अपनी इसी प्रकार की मानसिकता और पूर्वाग्रह के चलते गांधी और नेहरू चाहते थे कि यथाशीघ्र भगत सिंह और उनके साथियों को फांसी पर चढ़ा दिया जाए।
प्रोफेसर कपिल कुमार जी के अनुसार लाहौर जेल के जेलर ने स्वयं गाँधी को पत्र लिखकर पूछा था कि ‘इन लड़कों को फांसी देने से देश का माहौल तो नहीं बिगड़ेगा?‘ तब गाँधी ने उस पत्र का लिखित जवाब दिया था कि ‘आप अपना काम करें कुछ नहीं होगा l’
सावरकर जी के रक्त में इस प्रकार की गद्दारी नहीं थी। वह राष्ट्र भक्तों को ही राष्ट्र भक्त मानते थे । राजभक्तों को दोगला और गद्दार तक कहने में वे संकोच नहीं करते थे। दोगले और गद्दारों के गिरोह ने उनको उनके जीते जी भी घेरा और उसके पश्चात भी घेरते रहे हैं। इसके बीच देशभक्त लोगों को सावरकर जी के वास्तविक चिंतन को समझना चाहिए और यह समझना चाहिए कि यदि वह गांधी जी की भूमिका में होते तो निश्चित रूप से भगत सिंह की फांसी रुकवाने में सफल हो जाते । पंडित मदन मोहन मालवीय को भी यदि लॉर्ड इरविन बातों में नहीं घुमाता तो भी भगत सिंह और उनके साथियों की फांसी रोकी जा सकती थी।
देश के विभाजन के संदर्भ में हमें यह बात समझनी चाहिए कि उस समय राजभक्तों और राष्ट्रभक्तों के बीच सारे राजनीतिक दल या राजनीतिक विचारधाराएं विभाजित हो गई थीं। राजभक्तों को सत्ता प्राप्ति की जल्दबाजी थी और राष्ट्रभक्तों को राष्ट्र की चिंता हो रही थी। इसी द्वंद्व के बीच देश का विभाजन हुआ । जिस पर राष्ट्रभक्तों को कष्ट हुआ तो राजभक्तों को उनकी राज भक्ति का पुरस्कार मिल गया।

डॉ राकेश कुमार आर्य

( यह लेख मेरी नवीन पुस्तक “देश का विभाजन और सावरकर” से लिया गया है। मेरी यह पुस्तक डायमंड पॉकेट बुक्स दिल्ली से प्रकाशित हुई है जिसका मूल्य ₹200 और पृष्ठ संख्या 152 है।)

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