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हमारे क्रांतिकारी / महापुरुष

दंडी जी की पाठशाला में दयानन्द लेख संख्या

11

लेखक आर्य सागर खारी 🖋️

(जगतगुरु महर्षि दयानंद सरस्वती जी की 200 वी जयंती के उपलक्ष्य में 200 लेखों की लेखमाला के क्रम में आर्य जनों के अवलोकनार्थ लेख संख्या11)

दंडी जी के द्वारा सार्वभौम सभा की स्थापना के वैचारिक आग्रह , पाठशाला में अध्यापन कराने, पंडितों के साथ शास्त्रार्थ करने देशी राजाओं से पत्र व्यवहार आदि इन सभी बौद्धिक गतिविधियों के मूल में एक ही उद्देश्य था आर्ष ग्रंथों का प्रचार प्रसार हो। वेद ज्ञान का आलोक पूरे भारतवर्ष में फैले। मनुष्य कृत मतमंतरण से भारतवर्ष को मुक्ति मिले।

मूर्ति पूजा व अवतारादि पौराणिक सिद्धांतों की बात उठने पर वह केवल एक ही बात करते थे ।आर्ष ग्रंथों का प्रचार करो ऋषि प्रणीत पुस्तको का प्रचार करो ऐसा होने से यह सब भ्रान्त विश्वास अपने आप ही दूर हो जाएंगे।

जयपुरपति राम सिंह द्वितीय के पास से सार्वभौम सभा के विषय में असफल मनोरथ होने के पश्चात दंडी जी बहुत विचलित रहते थे। मनुष्य गरीबी, शत्रु, सांप बिच्छू आदि व प्रिय जनो के अलगाव के दंश को सह सकता है लेकिन अपने जीवन के उस लक्ष्य जिसे वह अपने जीवन में लंबे समय तक पालित पोषित करता है उस लक्ष्य की असिद्धि से जो दंश होता है ,वह सर्वाधिक पीड़ा दायक होता है दंडी जी भी उसी दंश से पीड़ित हुये ।
दंडी जी कभी-कभी एकांत में रोने लगते थे ।सोचते थे क्या इस देश में एक भी ऐसा मनुष्य नहीं है जो आर्ष ग्रंथों के प्रचार उनकी पुनः स्थापना के कार्य को सिद्ध कर सके। मेरे हृदय के भीतर जल रही अग्नि से अग्निमय हो जाए। आर्ष विद्या का आलोक चारों ओर फैला दे अपने जीवन का उत्सर्ग तक कर दें।

दरअसल दंडी जी अनेक दशकों से जिन विद्यार्थियों को निस्वार्थचित होकर पढ़ाते आए थे जिनके हृदय को आर्ष ज्ञान की अग्नि से संक्रमित करने के लिए उन्होंने यथाशक्ति यत्न किया उनमें से एक भी इतना साहसी उद्यमी नहीं हुआ कि वह दंडी जी के संकल्पों को पूरा कर सके किसी ने पाठ मात्र के लिए विद्या पढी तो किसी ने आजिविकार्थ। विद्या स्नातक होने पर सभी ग्रहस्थ आश्रम में रमण करने लगे कुछ तो पहले से ही गृहस्थी थे।

दंडी जी अपनी पीड़ा व्यक्त करते हुए कहते थे हमारा उद्देश्य सर्वाश में इतना अच्छा महान लोकहितकारी है तो क्या परमात्मा एक भी ऐसे मनुष्य को नहीं भेजेगा जो इस बुढ़े के कंधे से इस कर्तव्य को भार को लेकर उसे चिंताशून्य कर दे ।दिन यूं ही कटते रहे यह सोचते विचारते , अक्टूबर 1860 का महिना आ गया।

शेष अगले लेख में ।

आर्य सागर खारी✍

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