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मैथिलीशरण गुप्त की अमर कृति “भारत भारती”

राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी (1886-1964) की ‘भारत-भारती’ से कौन हिन्दीप्रेमी परिचित नहीं है? ‘भारत-भारती’, गुप्त जी की सर्वाधिक प्रसिद्ध काव्यकृति है जो विक्रम संवत् 1969 (1912-13) में पहली बार प्रकाशित हुई थी और अब तक इसके पचासों संस्करण निकल चुके हैं। एक समय था जब ‘भारत-भारती’ के पद्य प्रत्येक हिन्दीभाषी की जिह्वा पर थे। भारतीय राष्ट्रीय जागरण में इस पुस्तक की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। इसकी लोकप्रियता का आलम यह रहा है कि इसकी प्रतियां रातोंरात खरीदी गईं। प्रभातफेरियों, राष्ट्रीय आंदोलनों, शिक्षा-संस्थानों, प्रात:कालीन प्रार्थनाओं में ‘भारत भारती’ के पद गांवों-नगरों में गाए जाने लगे। आज भी यह कृति उतनी ही प्रासंगिक है जितनी आज से सौ वर्ष पूर्व थी। इसकी प्रति घर-घर में होनी चाहिए और प्रत्येक भारतवासी को इसका पारायण करना चाहिए।

‘भारत-भारती’ की प्रस्तावना में गुप्तजी ने लिखा है— ‘यह बात मानी हुई है कि भारत की पूर्व और वर्तमान दशा में बड़ा भारी अन्तर है, अन्तर न कहकर इसे वैपरीत्य कहना चाहिए। एक वह समय था कि यह देश विद्या, कला कौशल और सभ्यता में संसार का शिरोमणि था और एक यह समय है कि इन्हीं बातों का इसमें सोचनीय अभाव हो गया है। जो आर्य जाति कभी सारे संसार को शिक्षा देती थी वही आज पद-पद पर पराया मुँह ताक रही है। ठीक है, जिसका जैसा उत्थान, उसका वैसा ही पतन। परन्तु क्या हम लोग सदा अवनति में ही पड़े रहेगे?’ वह लिखते हैं :

‘हाँ’ और ‘ना’ भी अन्य जन करना न जब थे जानते,
थे ईश के आदेश तब हम वेदमंत्र बखानते।
जब थे दिगम्बर रूप में वे जंगलों में घूमते,
प्रासाद-केतन-पट हमारे चन्द्र को थे चूमते।

जब मांस-भक्षण पर वनों में अन्य जन थे जी रहे,
कृषिकी कार्य करके आर्य शुचि सोमरस थे पी रहे।
मिलता न यह सात्त्विक सु-भोजन यदि शुभाविष्कार का,
तो पार क्या रहता जगत में उस विकृत व्यापार का?

‘भारत-भारती’ की प्रस्तावना में गुप्तजी लिखते हैं : ‘हमारे देखते-देखते जंगली जातियाँ तक उठकर हमसे आगे बढ़ जाये और हम वैसे ही पडे़ रहें, इससे अधिक दुर्भाग्य की बात और क्या हो सकती है? क्या हमारे लोग अपने मार्ग से यहाँ तक हट गये हैं कि अब उसे पा ही नहीं सकते? क्या हमारी सामाजिक अवस्था इतनी बिगड़ गई है कि वह सुधारी नहीं जा सकती? क्या सचमुच हमारी यह निद्रा चिरनिद्रा है? क्या हमारा रोग ऐसा असाध्य हो गया है कि उसकी कोई चिकित्सा ही नहीं?’

‘भारत-भारती’ स्वदेश-प्रेम को दर्शाते हुए वर्तमान और भावी दुर्दशा से उबरने के लिए समाधान खोजने का एक सफल प्रयोग है। भारतवर्ष के संक्षिप्त दर्शन की काव्यात्मक प्रस्तुति ‘भारत-भारती’ निश्चित रूप से किसी शोध-कार्य से कम नहीं है। ‘भारत-भारती’ के प्रत्येक पृष्ठ में पाद-टिप्पणी में उल्लिखित तथ्य, गुप्तजी के इतिहास-बोध का दिग्दर्शन कराते हैं। गुप्तजी की सृजनता की दक्षता का परिचय देनेवाली यह पुस्तक कई सामाजिक आयामों पर विचार करने को विवश करती है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में, ‘पहले-पहल हिंदीप्रेमियों का सबसे अधिक ध्यान खींचनेवाली पुस्तक भी यही है।’ आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी ने ‘सरस्वती’ पत्रिका में कहा कि ‘यह काव्य वर्तमान हिंदी साहित्य में युगान्तर उत्पन्न करनेवाला है। इसमें यह संजीवनी शक्ति है जो किसी भी जाति को उत्साह जागरण की शक्ति का वरदान दे सकती है।’

‘भारत-भारती’ काव्य तीन खण्डों में विभक्त है : (1) अतीत खण्ड, (1) वर्तमान खण्ड, (3) भविष्यत् खण्ड। ‘अतीत खण्ड’ में भारतवर्ष के प्राचीन गौरव का बड़े मनोयोग से बखान किया गया है। भारतीयों की वीरता, आदर्श, विद्या-बुद्धि, कला-कौशल, सभ्यता-संस्कृति, साहित्य-दर्शन, स्त्री-पुरुषों आदि का गुणगान किया गया है। वर्तमान खण्ड में भारत की वर्तमान अधोगति का चित्रण है। इस खण्ड में कवि ने साहित्य, संगीत, धर्म, दर्शन आदि के क्षेत्र में होनेवाली अवनति, रईसों और उनके सपूतों के कारनामे, तीर्थ और मन्दिरों की दुर्गति तथा स्त्रियों की दुर्दशा आदि का अंकन किया है। भविष्यत् खण्ड में भारतीयों को उद्बोधित किया गया है तथा देश के मंगल की कामना की गयी है।

अतीत खण्ड में गुप्त जी ने भारतवर्ष के अतीत की, उसके पूर्वजों, आदर्शो, सभ्यता, विद्या, बुद्धि, साहित्य, वेद, उपनिषद, दर्शन, गीता, नीति, कला-कौशल, गीत-संगीत, काव्य इतिहासआदि के गौरव की गाथा गाई है। उन्होंने भारतीय अतीत की प्रशंसा करते हुये लिखा है—
आये नहीं थे स्वप्न में भी, जो किसी के ध्यान में,
वे प्रश्न पहले हल हुए थे, एक हिन्दुस्तान में।

इसके साथ ही उन्होंने है आज पश्चिम में प्रभा जो, पूर्व से ही है गई और होता प्रभाकर पूर्व से ही उदित, पश्चिम से नहीं कहकर भारत को पश्चिम से श्रेष्ठ सिद्ध किया। गुप्त की यह विशेषता रही है कि वे मात्र समस्या को उठाकर ही चुप नहीं रह जाते हैं बल्कि उसका समाधान निकालने का भी प्रयत्न करना चाहते हैं और इसके लिए वे समाज के सम्मुख सर्वप्रथम प्रचीन आदर्श व महान विचारों को प्रस्तुत करते हैं (हम कौन थे) तदुपरान्त वर्तमान को इंगित करते है (क्या हो गये हैं) और फिर भविष्य के लिए प्रश्न उपस्थित करते है (और क्या होंगे अभी)। इसके बाद समाधान की ओर अग्रसर होकर आओ, विचारें आज मिलकर ये समस्यायें सभी का मंत्र प्रस्तुत करते हैं। इसके साथ ही उन्होंने इस खण्ड में प्राचीन भारत की झलक, भारतभूमि का सचित्र वर्णन कर यहाँ की पीयूष सम जलवायु, पुनीत प्रभा आदि का सजीव चित्रण किया है।

वर्तमान खण्ड में गुप्त जी ने तत्कालीन भारत के नैतिक एवं बौद्धिक पतन का विस्तार से वर्णन किया है। इसका प्रारम्भ ही उन्होंने ‘जिस लेखनी ने है लिखा उत्कर्ष भारतवर्ष का/लिखने चली अब हाल वह उसके अमित अपकर्ष का’ लिखकर किया है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि इस खण्ड में तत्कालीन भारत की समस्याओं व अपकर्ष की परिस्थितियों का वर्णन किया है। इस खण्ड में दरिद्रता, दुर्भिक्ष, भारतीय कृषक व उनकी समस्याओं का हृदय विदारक चित्रण हुआ है—
पानी बनाकर रक्त का कृषि कृषक करते है यहाँ,
फिर भी अभागे भूख से, दिन रात से मरते है यहाँ।
सब बेचना पड़ता उन्हें निज अन्न वह निरूपाय हैं
बस चार पैसे से अधिक पड़ती न दैनिक आय है।।

भारत में हो रही गोहत्या पर गुप्त जी की अत्यन्त मार्मिक पंक्तियाँ—

है भूमि बन्ध्या हो रही, वृष-जाति दिन भर घट रही;
घी-दूध दुर्लभ हो रहा, बल- वीर्य की जड़ कट रही।
गो-वंश के उपकार की सब ओर आज पुकार है;
तो भी यहाँ उसका निरंतर हो रहा संहार है!।।

दाँतों-तले तृण दाबकर हैं दीन गायें कह रहीं—
हम पशु तथा तुम हो मनुज, पर योग्य क्या तुमको यही?
हमने तुम्हें माँ की तरह है दूध पीने को दिया
देकर कसाई को हमें तुमने हमारा वध किया!।।

जो जन हमारे मांस से निज देह पुष्टि विचार के—
उदरस्थ हमको कर रहे हैं क्रूरता से मार के।
मालूम होता है सदा, धारे रहेंगे देह वे—
या साथ ही ले जायेंगे वे उसको बिना सन्देह वे!।।

हा! दूध पीकर भी हमारा पुष्ट होते हो नहीं,
दधि, घृत तथा तक्रादि से भी तुष्ट होते हो नहीं।
तुम खून पीना चाहते हो तो यथेष्ट वही सही;
नर-योनि हो, तुम धन्य हो, तुम जो करो थोड़ा वही!

*क्या वश हमारा है भला, हम दीन हैं, बलहीन हैं;
*मारो कि पालो, कुछ करो, हम सदैव अधीन हैं
*प्रभु के यहाँ से भी कदाचित् आज हम असहाय हैं,
*इससे अधिक अब क्या कहें, हा! हम तुम्हारी गाय हैं।।

बच्चे हमारे भूख से रहते समक्ष अधीर हैं,
करके न उनका सोच कुछ देतीं तुम्हें हम क्षीर हैं।
चरकर विपिन में घास फिर आती तुम्हारे पास हैं,
होकर बड़े वे वत्स भी बनते तुम्हारे दास हैं।।

जारी रहा क्रम यदि यहाँ यों ही हमारे नाश का—
तो अस्त समझो सूर्य भारत-भाग्य के आकाश का
जो तनिक हरियाली रही वह भी न रहने पाएगी
वह स्वर्ण-भारत-भूमि बस मरघट-मही बन जाएगी!।।

बहुधा हमारे हेतु ही विग्रह यहाँ होता खड़ा;
सहवासियों में वैर का जो बीज बोता है बड़ा।
जो हे मुसलमानो! हमें कुर्बान करना धर्म है
तो देश की यों हानि करना, क्या नहीं दुष्कर्म है?।।

बीती अनेक शताब्दियाँ जिस देश में रहते तुम्हें
क्या लाज आएगी उसे अपना ‘वतन’ कहते तुम्हें?
तुमलोग भारत को कभी समझो अरब से कम नहीं,
यद्यपि जगत् में और कोई देश इसके सम नहीं।।

जिस देश के वर-वायु से सकुटुम्ब तुम हो जी रहे,
मिष्ठान्न जिसका खा रहे, पीयूष-सा जल पी रहे।
जो अन्त में तनु को तुम्हारे ठौर देगा गोद में,
कर्तव्य क्या तुमको नहीं रखना उसे आमोद में?।।

हिंदू हमें जब पालते हैं धर्म अपना मान के,
रक्षा करो तब तुम हमारी देश-हित ही जान के।
हिंदू तथा तुम सब चढ़े हो एक नौका पर यहाँ
जो एक का होगा अहित, तो दूसरे का हित कहाँ?

भविष्यत खण्ड में उन्होंने भारतवासियों से जागृत हो जाने का आह्वाहन किया है। है कार्य ऐसा कौन सा, साधे न जिसको एकता के द्वारा उन्होंने एकता में बल की भावना का प्रसार किया। वह देश को जगाते हुए कहते हैं— अब और कब तक इस तरह, सोते रहोगे मृत पड़े और साथ ही ऐसा करो जिसमें तुम्हारे देश का उद्धार हो, जर्जर तुम्हारी जाति का बेड़ा विपद से पार हो कहकर जातीय अस्मिता व गौरव के प्रति युवाओं को आगे बढ़ने के लिये प्रोत्साहित किया है और सुप्तावस्था में पडे़ देशवासियों को जागृत करने के साथ ही कवियों को ‘करते रहोगे पिष्ट-पेषण और कब तक कविवरों’ कहकर सचेत किया है और उन्हें उनका कवि-कर्म स्मरण कराते हुए लिखा है—

केवल मनोरंजन न कवि का कर्म होना चाहिए,
उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए।

साभार

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