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आज का चिंतन हमारे क्रांतिकारी / महापुरुष

ईमानदारी की मिसाल -आर्यसमाज

यह घटना सन् 1947 में भारत के विभाजन से पूर्व की है। आर्यसमाज के विद्वान एवं शास्त्रार्थ महारथी पं. लोकनाथ तर्कवाचस्पति एक गांव में प्रचारार्थ आये थे। वहां बिजली नहीं थी। पानी के लिए कुएं पर जाना होता था वा रहट चलते थे। उपदेश्क भी प्रातः निकल जाते थे। पंडित जी एक दिन रहट पर गये थे। रहट चल रहा था। प्रातः काल के समय अपने कपड़े धोने के लिए वह रहट के निकट खड़े हो गये। सामने रास्ता था। उस पर चलकर एक अपरिचित व्यक्ति उनके पास आया। वह शाल ओढ़े हुए था। उसने पं. लोकनाथ जी को नमसते की। उसने अपनी शाल हटाई। एक पोटली उसके पास थी। उसने पंडित जी को कहा कि उसे सामने वाले गांव में जाना है। मैं अपनी इस पोटली को अपने साथ गांव में ले जाना नहीं चाहता। यदि आपको एतराज न हो तो मैं यह आपके पास छोड़े जा रहा हूं। लौट कर ले लूगां। उसने पंडित जी से पूछा कि आपको कितना समय लगेगा? पंडित जी ने कहा कि मुझे अपने यह तीन चार धोती कुर्ते धोने हैं। पंडित जी ने प्रश्न किया कि यदि आप समय पर न लौटे तो क्या होगा? उसने पंडित जी को कहा कि मैं जल्दी ही आ जाऊंगा। पंडित जी ने उसे कहा कि जहां इच्छा हो अपनी पोटली रख दो। समय पर आ जाना और अपनी पोटली ले जाना। मुझे परेशान न करना। वह व्यक्ति अपनी पोटली वहां रखकर चला गया। किसी कारण वह बताये समय पर न आ सका और उसे देर हो गई। पंडित जी उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे। उन्होंने देखा कि वह व्यक्ति भागता हुआ आ रहा है। दूर से ही जोर जोर से बोल रहा था, पंडित जी मुझे क्षमा करना। पंडित जी मुझे क्षमा कर दें। मैं गांव में फंस गया था। पंडित जी ने उसे डांट लगाई और कहा कि दूसरे के समय की भी कदर करनी चाहिये।
पंडित जी ने उस व्यक्ति से पूछा कि आपकी इस पोटली में क्या है? उसने पंडित जी को बताया कि मेरी इस पोटली में डेढ़ सेर सोना है। यह मेरी बेटी के आभूषण हैं। उसे देने के लिए साथ लाया था। बेटी की ससुराल में कुछ विवाद चल रहा है। मन में विचार आया कि पहले विवाद की स्थिति का जायजा ले लूं। इस लिए यह पोटली को आपके पास रख दिया। पंडित जी ने पूछा कि क्या तुम मुझे जानते हो, फिर मेरे पास कैसे रख दिया? उस व्यक्ति ने पंडित जी को कहा कि आपको देखकर मैं जान गया था कि आप आर्यसमाजी हो। पंडित जी ने प्रश्न किया कि आर्यसमाजी इतने विश्वास का पात्र है, यह आपने कैसे जाना? उस व्यक्ति ने पंडित जी को अपनी आत्मकथा सुनाई। उसने कहा कि मैं अपने गांव का दुकानदार हूं। हमें लोग शाह जी कहते हैं। मेरे गांव के एक किसान ने अपनी बेटी के विवाह के लिए तीन सौ रूपये का कर्ज लिया था। उसने कहा था कि अगली फसल पर दे दूंगा। वह मेरा परिचित व मित्र था इसलिए मैंने उससे लिखा-पढ़ी नहीं की थी। मैंने जब उससे पैसे मांगे तो उसने कहा कि बारिस न होने के कारण फसल नहीं हुई। इसलिए आपके पैसे लौटा नहीं पाया। मैं कुछ समय बाद दूंगा। अगला साल भी निकल गया। कहता रहा कि फसल नहीं हुई, आपके पैसे अवश्य लौटाऊंगा। तीन साल बीतने के बाद वह मुकर गया। कहने लगा कि मैंने आपसे एक पैसा नहीं लिया। पंडित सत्यपाल पथिक जी के अनुसार उस समय के तीन सौ रूपये आज के तीन लाख व उससे भी अधिक होंगे। उसने बताया कि मैं जब उससे पैसे मांगता तो वह मुझे मारने को दौड़ता था।
अपना पैसा वसूल करने के लिए मेरे पास एक ही उपाय था कि मैं उस पर केस कर दूं। मेरा अनुमान था कि वह डर जायेगा और पैसे लौटा देगा। मैंने उसके खिलाफ केस दायर कर दिया। जज ने उस किसान से पूछा क्या तुमने इनसे तीन सौ रूपयों का कर्ज लिया था। वह व्यक्ति बोला कि कोई कर्ज नहीं लिया। जज ने मुझसे कहा कि कोई गवाह लाओं जिसके सामने पैसे दिये थे। मुझे याद आया उस किसान का 18-19 साल का एक बेटा है। वह अपने आप को आर्यसमाजी कहता है। मेरे मन में विचार आया कि आर्यसमाजी सच बोलते हैं। अतः उस कर्जदार का बेटा झूठ नहीं बोलेगा। वह बेटा जवान था। और कोई साक्षी मेरे पास नहीं था। अतः मैने उसे ही अपना गवाह बनाया। उससे अदालत में पूछा गया कि आपके पिता ने पैसे लिये या नहीं? उसकी गवाही पर ही फैसला होना था। पिता ने अपने बेटे को आंखे दिखाई और इशारों में कहा कि वह मना कर दें। बेटे ने अदालत में कहा कि मेरे पिता ने बहिन की शादी के लिए किसी से तीन सौ रूपये का कर्ज लिया था और मां को रखने के लिए दिये थे। मैं तब वहां था और इस घटना को देख रहा था। दो तीन से बारिस नहीं हुई। जज साहब मेरे पिता ने किसी से पैसे अवश्य लिये थे। वह फिर बोला जज साहब, मेरे पिता का कर्जा मेरे नाम लिख लिया जाये। मैं वह कर्जा दूंगा। शाहजी ने पं. लोकनाथ जी को बताया कि उसकी सच्चाई को देख कर मैं रो पड़ा। मैं बोला बस, बस। मुझे पैसा नहीं चाहिये। इस घटना के कारण मुझे विश्वास था कि आपके आर्यसमाजी होने के कारण मेरी पोटली आपके पास पूर्ण सुरक्षित रहेगी।
आजादी से पहले आर्यसमाजियों की ऐसी साख थी। इससे मिलते जुलते आर्यसमाजियों के सत्य व्यवहार के अनेक उदाहरण हैं। हम आशा करते हैं कि पाठक इस सच्ची घटना को पसन्द करेंगे और प्रेरणा ग्रहण करेंगे। आर्यसमाजी इस घटना को पढ़कर अपना सिंहावलोकन करें और आवश्यकता हो वा सुधार कर सकें तो सुधार कर लें। इति।
-मनमोहन कुमार आर्य

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