आज जो शिक्षा हमें दी जा रही है वह निर्मम शिक्षा है, यह शिक्षा इस भूमि को बांझ बना रही है। ‘गर्भनिरोधक’ गोलियां दे देकर हमारी मातृशक्ति को बांझ बना रही है। नारी को विषय भोग की वस्तु बना रही है। जबकि भारत की प्राचीन शिक्षा प्रणाली बांझपन को नहीं उत्पादकता को और विषय भोग को नही अपितु गृहस्थ जीवन के परम आनंद को केन्द्रित रखकर प्रदान की जाती थी। स्वतंत्रता के उपरांत राजनीतिज्ञों को इसी ओर ध्यान देना चाहिए था किंतु पश्चिम के उच्छिष्टभोगी ये कर्णधार (भारत के राजनीतिज्ञ) योगवादी संस्कृति के स्थान पर हमें भोगवादी संस्कृति परोसने लगे। परिणामस्वरूप आज देश में कैंसर, टीवी, एड्स जैसी भयंकर बीमारियां पांव पसारती जा रही हैं और भोग का परिणाम ही तो रोग है।
योग की झूठी दुकानें
जरा अवस्था, इच्छा और भूख हमारे यहां ये तीनों स्थितियां ही रोग मानी गयी हैं। इसलिए भारतीय संस्कृति में मनोविज्ञानियों का चिंतन यह कहता है कि इन तीनों से बचने के लिए इच्छाओं का नियंत्रण और शुद्घ सात्विक जीवन जीते हुए भोग से यथासंभव बचने का प्रयास यदि व्यक्ति करे तो वह रोगी नहीं हो सकता। हमें स्वतंत्रता के उपरांत इसी दिशा में ही कार्य करना चाहिए था। किंतु हमने इधर तो सोचा भीनहीं। पश्चिम की नकल करते हन्ुए व्यक्ति को पढ़ा लिखा बनाने पर बल दिया और ‘बंदर के हाथ दियासलाई दे दी।’ अब बंदर दियासलाई जला रहा है और अपने ही हाथों को जा रहा है अर्थात हम अपना आपा अर्थात गौरवपूर्ण अतीत को खुद ही जला रहे हैं।
राष्ट्रधर्म व राजधर्म का निर्वाह एक भयंकर षडयंत्र
आज हम रोगी हैं। रोग की भयंकरता का पैमाना तनाव से नापा जा सकता है कि किसको कितना तनाव है? यह देखकर आपको ज्ञात हो जाएगा कि वह कौन सी व्याधि से ग्रसित है? या ग्रसित होने वाला है। इस तनाव से कुछ लोगों ने लाभ उठाना आरंभ कर दिया है। योग (जिसे योगा भी कहा जाता है क्योंकि अब यह धर्मनिरपेक्ष शब्द हो गया है) की ओर लोग भाग रहे हैं। भले ही उन्हें यह ज्ञात न हो कि योग कहते किसको हैं? जो शिक्षा हमें दी जा रही है उसने हमें बता और समझा दिया है कि कुछ आसन करो और ध्यान की मुद्रा में बैठ जाओ। बस! यही योग है।
वस्तुत: ऐसा है नहीं, यह ध्यान की अवस्था तो कई सीढिय़ों के पश्चात आती है। इससे पहले यम, नियम, आसन, प्राणायाम (बहिरंग योग) प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि (अंतरंग योग) की स्थिति में ध्यान का स्थान आता है। आज स्थिति ठीक इसके विपरीत जा रही है। मानो रोग के मूल को रखते हुए फलक को काटने का प्रयास योग से किया जा रहा है और परिणाम चाहते हैं कि जीवन में आनंद का।
यदि शिक्षा की दिशा नही परिवर्तित की गयी तो यह आनंद केवल मृगमरीचिका रहेगा। शिक्षा की गलत दिशा के कारण हमारी दिशा गलत हो गयी है। योग तो ‘चित्त की वृत्तियों के निरोध’ का नाम है। चित्त की वृत्ति जब तक बनी रहेगी तब तक योग की प्रतिष्ठा नही हो सकती। यह चित्त की वृत्तियों का निरोध भारत की शिक्षा प्रणाली को अपनाकर ही किया जा सकता है। इसके लिए आज हम पश्चिम की ओर नहीं अपितु अपने अतीत की ओर चलें और मन में निम्नांकित भाव रखें कि-
इसी शिक्षा का अभियान चले।
इसी शिक्षा का तूफान चले।
भारत पुन: उत्थान की ओर चले।
ज्ञान व ऐश्वर्य के हम स्वामी बनें।
न क्रोधी बनें और न कामी बनें।
हम बनें तो केवल मानव बनें।
इस विराट लक्ष्य को ‘साक्षरता अभियान’ से नहीं अपितु ‘शिक्षा अभियान’ से ही पाया जा सकता है। जिसे केवल प्राचीन भारतीय शिक्षा प्रणाली से ही पाया जाना संभव है।
(लेखक की पुस्तक ‘वर्तमान भारत में भयानक राजनीतिक षडय़ंत्र : दोषी कौन?’ से)
पुस्तक प्राप्ति का स्थान-अमर स्वामी प्रकाशन 1058 विवेकानंद नगर गाजियाबाद मो. 9910336715