ईश्वर के प्रति कृतज्ञता अपनायें
अब विचार करें कि उसे हम क्या दे रहे हैं? कदाचित ‘कुछ भी नहीं’ उसके प्रति कोई कृतज्ञता नहंी, कोई धन्यवाद नहीं। यही तो है नास्तिकता। यदि हम ईश्वर के प्रति भी कृतज्ञ होकर धन्यवाद करना और कहना सीख लें तो हमारे और शेष संसार के संबंध मानवीय ही नहीं, अपितु दैवीय बन सकते हैं। क्योंकि तब हमारी दृष्टि में समष्टिवाद आ जाता है और हम हर प्राणी में ईश्वर का वास मानने लगते हैं।
ऐसी स्थिति के आविष्कारक हमारे ऋषि लोग एक दूसरे को ‘देव’ इसी आशय से कहा करते थे। जब धन्यवाद का लोकाचार समाप्त हो जाता है, तो तब जो संस्कृति विकसित हुआ करती है वह दानवीय संस्कृति हुआ करती है। तब मानव, मानव से देव नहीं, अपितु दैत्य बन जाता है। इसलिए हमारे ऋषियों ने ईश्वर के सृष्टि संचालन के यज्ञमयी कार्य को सुचारू रूप से आगे बढ़ाने में अपने योगदान के रूप में यज्ञ का आरंभ किया और उसमें बार-बार कहा कि-”यह तेरे लिए ही है। मेरे लिए नहीं-‘इदन्नमम्’ तब सारा संसार कहता था-स्वाहा।” ऐसे वातावरण में तब सारा संसार स्वर्ग था।
जब से हमने इस पद्घति को त्याग दिया है या इसमें प्रमाद बरतना आरंभ किया है, तो आज यह सारा संसार नरक बन गया है। अब अपने अंदर व्याप्त इस स्वार्थ की आहुति देने को कोई भी उद्यत नहीं है। विश्व शांति के आधार पर यज्ञ विज्ञान को भारत संसार के सामने प्रस्तुत करने में असफल रहा है, विश्व शांति का आधार कभी भी स्वार्थपूर्ण नीतियां और एक दूसरे के प्रति छलकपट भरा कूटनीति का व्यवहार नहीं हो सकता।
विश्व शांति का आधार होगा-सभी का सभी के प्रति सहिष्णु व्यवहार और सभी का सभी के प्रति परमार्थ के कार्य में लगा हुआ आचरण। यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि भारत के पास विश्वशांति का उपाय होते हुए भी वह इसे प्रस्तुत नहीं कर पा रहा? आज भारत को शेष विश्व के मस्तिष्क में यह बात पूरी तन्मयता से डालनी होगी कि पर्यावरण का संतुलन केवल धूल, धुंआ और ध्वनि से ही नहंी बिगड़ता है अपितु इसमें मानवीय व्यवहार, उसके शब्द और उसकी भाषा तक भी बिगाडऩे में सहायक होते हैं। उदाहरण के रूप में एक धार्मिक स्थल मंदिर आदि में आपका हृदय पवित्रता की अनुभूति करता है। क्योंकि वहां के पर्यावरण को सत्पुरूषों की वाणी ने शुद्घ और पवित्र बनाया हुआ है। यह सर्व विदित है कि शब्द अक्षर से बनते हैं और अक्षर (अ+क्षर) कभी समाप्त नही होता। उसकी सत्ता पदार्थ की भांति बनी रहती है।
शब्द आकाश से आता है और आकाश में ही समा जाता है, इसलिए मंदिर का आकाश पर्यावरण आपके भीतर पवित्रता की अनुभूति कराता है, जबकि एक वेश्या के यहां मानव की मन: स्थिति दूसरी होती है, क्योंकि वहां के परमाणुओं में विध्वंसात्मक अपवित्रता का प्रभाव है।
विश्वव्यापी यज्ञ विज्ञान
यदि लोक कल्याणमयी वाणी आपके घर समाज और राष्ट्र से प्रतिदिन उठेगी, निकलेगी तो पर्यावरण में समाये शब्द संसार पर जिस चादर को तानेंगे, वह लोककल्याणकारी होगी और यदि आपके शब्द निरर्थक हैं, अपशब्द हैं, स्वार्थ और छल से भरे हुए हैं तो ऐसे ही वातावरण का निर्माण वह करेंगे। जिससे शुभ शब्दों की ‘ओजोन परत’ में छिद्र होगा और मानव का ही नही अपितु प्राणिमात्र का विनाश होगा। लोककल्याण से भरे स्वस्तिवाचन और शांतिकरण के मंत्रों को हमारे ऋषियों ने यज्ञ के लिए चुना। अग्नि को प्रज्ज्वलित किया और उसमें आहुति दी-अपने स्वार्थ की। इस विज्ञान को भारत आज शेष विश्व को समझा नहीं पा रहा है। यह सुखद आश्चर्य है कि इसके उपरांत भी शेष विश्व भारत के यज्ञ विज्ञान को समझने के लिए हमारी ओर आकर्षित हो रहा है।
(लेखक की पुस्तक ‘वर्तमान भारत में भयानक राजनीतिक षडय़ंत्र : दोषी कौन?’ से)