भारत लोकतंत्र की जन्मस्थली है। आज का ब्रिटेन और अमेरीका तो भारत के लोकतंत्र की परछाईं मात्र भी नहीं है। हमारे ‘शतपथ ब्राह्मणादि ग्रंथों’ में राजनीतिशास्त्रियों के लिए कई बातें अनुकरणीय रूप से उपलब्ध हैं। ‘शतपथ ब्राह्मण’ में राजकीय परिवार के लोगों के राजनीतिक अनुभवों से देश को लाभान्वित करने के उद्देश्य से इस परिवार के वरिष्ठ जनों से एक राजसभा के बनाये जाने की ओर संकेत किया गया है। इस परिषद को या सभा को वहां ‘राजन्य: परिषद’ कहा गया है। इस परिषद के लोगों को या सदस्यों को राजकोष से उनके जीविकोपार्जन के लिए वेतनादि देने की पूर्ण व्यवस्था की जाती थी। इस व्यवस्था के चलते राजपरिवार के लोगों को किसी प्रकार के भ्रष्टाचार को करने की आवश्यकता नहीं पड़ती थी। साथ ही उनकी राज्य संचालन में तथा राष्ट्रनिर्माण में भी सक्रिय भूमिका बनी रहती थी। राज्यसभा का आजीवन सदस्य होने से उनकी सलाह की उपेक्षा भी नहीं की जा सकती थी। भारत की इसी परंपरा का अनुकरण ब्रिटेन ने किया और उसने अपने राजकीय परिवार के लोगों के लिए ‘हाउस ऑफ लॉर्ड्स’ नामक सदन का गठन किया। ‘लॉर्ड्स’ शब्द अपने आप में देखने योग्य है, जिसका अर्थ स्वामी है। यह अर्थ स्पष्ट करता है कि ‘लॉर्ड’ बनने पर व्यक्ति को कुछ अधिकार मिल जाते थे, जिससे वह लोगों पर अपने आदेश देने की स्थिति में आ जाता था। भारत में जितने भर भी ब्रिटिश ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ के गवर्नर जनरल या ‘वायसराय’ (इस शब्द में ‘रॉय’ राजा का पर्यायवाची है, जो कि हिन्दी के राजा का समानार्थक है, ‘वायस’ उप का समानार्थक है, जैसे वायस प्रिंसीपल अर्थात उपप्रधानाचार्य। अत: वायसराय का अर्थ हुआ-छोटा राजा अर्थात बड़ा राजा ब्रिटेन का राजा स्वयं और भारत में उसका प्रतिनिधि छोटा राजा अर्थात वायसराय होता था।) आये वे ‘लॉर्ड’ इसीलिए कहलाते थे, कि वे राजकीय परिवार से होते थे। भारत में इन्हें हमारे लोग ‘लाट साहब’ कहते थे। इसी ‘लाटसाबी’ परंपरा को थोड़े-थोड़े परिवत्र्तनों के साथ अमेरिका और दूसरे लोकतांत्रिक देशों ने भी अपनाया और अपने यहां ऊपरी सदन का निर्माण किया। भारत ने इसे ‘राज्यसभा’ कहा है। भारत का नेतृत्व भूल गया था जिस ब्रिटेन की तुम नकल कर रहे हो, उसने ही भारत से सीखा है, इसलिए ब्रिटेन का पिछलग्गू बनने से अच्छा है कि अपने आपको खोल जाए।
भारत में ‘लाटसाब’ को बड़े गौरवमयी रूतबे वाले व्यक्ति के रूप में देखने की परंपरा रही है। यही कारण रहा है कि स्वतंत्र और लोकतांत्रिक भारत में हमारे जनप्रतिनिधियों ने हमारे देश के लोगों को उसी प्रकार लाठी से हांकना आरंभ किया जैसे अंग्रेज ‘लॉर्ड साहब’ हांका करते थे। इन्होंने अपने पूर्ववर्ती ‘लाट साबों’ की कार्य प्रणाली को अपनाते हुए उन्हीं की भांति भारत को लूटना खसोटना आरंभ किया और अपने आपको लोकतांत्रिक दिखाकर भी अपनी कार्यप्रणाली को ‘लूट’तांत्रिक वाली बनाये रखा। एक प्रकार से ये लोग राजनीति के छलिया ‘तांत्रिक’ बन गये और लोगों का मूर्ख बनाते रहे। ऐेसे छलिया तांत्रिकों के बेताज बादशाह बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव हैं। आजकल ये ‘लाटसाब’ अपने किये का फल भोग रहे हैं। जेलों के द्वार इनकी प्रतीक्षा में हैं, जिनके लिए कभी राजभवनों के द्वार खुला करते थे-उनके लिए आजकल जेल के द्वार खुल रहे हैं-इसी को कर्मगति कहा जाता है। बचपन में हम जब प्राथमिक पाठशाला में पढ़ा करते थे, तो एक पुस्तक का नाम ‘भालू की किताब’ था। जिसमें भालू नाच दिखाता था और उस पृष्ठ के कारण ही वह पुस्तक ‘भालू की किताब’ के नाम से जानी जाती थी। आज की राजनीति में लालू का भालू नाच दिखा रहा है, जिससे लोगों का अच्छा मनोरंजन हो रहा है। यह अलग बात है कि अपने जनप्रतिनिधियों की बेहयाई और ढ़ीठता को देखकर भारत माता इस समय खून के आंसू बहा रही है।
लालू जैसे लोग राजनीति को ‘मसखरों के काव्यपाठ’ से आगे कुछ नहीं मानते। यही कारण है कि लालू राजनीतिक मंचों पर भी अमर्यादित अशालीन और गरिमाहीन भाषा का प्रयोग करते रहे हैं, और बिहार के लोगों की अशिक्षा व भोलेपन का अनैतिक व अनुचित लाभ लेते रहे हैं। लालू का भालू भोला बनकर नाच दिखाता था और लोग उसे भालू न मानकर ‘भोला बबुआ’ मानते हुए वोट दे देते थे। उसी का लाभ लालू उठाते रहे और अपने जादू के खेल के माध्यम से बिहार को लूटते रहे। आज हमारी जांच एजेंसियों के माध्यम से पता चल रहा है कि लालूजी ने हजारों करोड़ का घोटाला किया है। उन्होंने इतना ही नहीं किया, अपितु इससे आगे जाकर एक असंवैधानिक और अनैतिक ‘राजन्य : परिषद’ (हाउस ऑफ लॉर्ड्स) बना डाली। जिसमें उनके अपने ‘राजपरिवार’ के लोगों को स्थान मिला। बेटा, बेटी-दामाद, पत्नी, पत्नी का भाई आदि सभी ‘लाटसाब’ इस सभा के आजीवन सदस्य हो गये और प्रदेश को लूटने लगे। ऐसे अलोकतांत्रिक दुष्कर्मों ने इन्हें अपने परिवार से अलग के लोगों के प्रति असहिष्णु बनाया। लालू को अपनी ‘अंगूठा टेक’ पत्नी ही इस योग्य लगीं कि उनकी अनुपस्थिति में वही प्रदेश चला सकती हैं। इसके उपरांत भी ये लोग सहिष्णु और लोकतांत्रिक कहे जाते हैं। इनके गुणगान करने वाले इन्हें भारत के निर्माण में अग्रिम भूमिका निभाने वालों में गिनते हैं, और एक बार तो ये भारत के प्रधानमंत्री के पद के गंभीर प्रत्याशी भी रहे हैं। कितना बड़ा दुर्भाग्य है-देश का? जो लोग अपने परिवार तक के संरक्षक होने की योग्यता नहीं रखते, उनमें देश का प्रधानमंत्री होने की योग्यता देखी जाती है। हमारे सीधे सादे मतदाताओं के साथ यह क्रूर उपहास है-जिसका फल इन ‘मसखरों’ को मिलना ही चाहिए। इनके लिए भारत की जेलें छोटी पड़ रही हैं-इनके लिए तो वास्तव में नरक की अनंतकालीन जेल के दरवाजे प्रतीक्षारत हैं।
मुख्य संपादक, उगता भारत