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संपादकीय

ओमप्रकाश राजभर और महाराजा सुहेलदेव की आत्मा

सुहेलदेव भारतीय इतिहास के एक ऐसे महानायक हैं जिन पर प्रत्येक भारतीय को गर्व होना चाहिए। उन्हीं के नाम पर उत्तर प्रदेश में ओमप्रकाश राजभर नाम के एक नेता सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी चलाते हैं। वास्तव में सुहेलदेव इस समय राजनीतिक अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। उनका राजनीति में सिद्धांत क्या है ? – इसे केवल वही जानते हैं। पर जो स्पष्ट दिखाई दे रहा है वह यही है कि वह सत्ता के लिए सारे सिद्धांतों को कुचल सकते हैं , यहां तक कि अपनी पार्टी के चरितनायक महाराजा सुहेलदेव की आत्मा का भी हनन कर सकते हैं।
भारत में मुस्लिम तुष्टिकरण की घातक नीति के चलते ओमप्रकाश राजभर जैसे राजनीतिज्ञ भी यह नहीं जानते कि महाराजा सुहेलदेव ने अपने जीवन काल में जिन मूल्यों को लेकर विदेशी आक्रमणकारी सलार मसूद से संघर्ष किया था, वे आज भी हमारे लिए कितने अनुकरणीय हैं ? वे नहीं जानते कि जो व्यक्ति हमारे इस इतिहास नायक का शत्रु है, वह हम सबका शत्रु है। धर्मनिरपेक्षता के नाम पर हम अपने इतिहास पुरुषों के शत्रुओं को सम्मान देकर या उनकी मजारों पर जाकर शीश झुका कर अपने महापुरुषों के पुरुषार्थ और पराक्रम का अपमान नहीं कर सकते।
सलार मसूद उन सूफियों में से एक था जिसने भारत के इस्लामीकरण के लिए भारत में आकर वह सब कुछ किया जो वह भारत के हिंदू समाज को नष्ट करते हुए कर सकता था। बात यह नहीं है कि सलार मसूद का नाम क्यों लिया जाय या क्यों उसकी मजार पर नहीं जाना चाहिए ? बात यह है कि उसके नाम लेने वाले देश में अभी भी हैं और वे उसकी मजार पर इसी बात का संकल्प लेने के लिए जाते हैं कि तेरे आदर्शों को हम पूरा करेंगे। तब यह महत्वपूर्ण प्रश्न उठता है कि ऐसा ही संकल्प लेने वाले लोगों के साथ क्या ओमप्रकाश राजभर को सलार मसूद की मजार पर जाना चाहिए था ?
भारत के इस शत्रु की मजार उत्तर प्रदेश के पूर्वी जनपद बहराइच में स्थित है। इसी मजार पर अकबरुद्दीन ओवैसी के साथ पहुंचकर ओमप्रकाश राजभर ने चादर चढ़ाई है और उस पर सजदा किया है। इसके बाद श्री राजभर के इस कार्य पर बवंडर मचने लगा तो श्री राजभर ने कहा है कि यदि भाजपा वाले मोहम्मद अली जिन्नाह की मजार पर जाकर शीश झुकायें तो उनके लिए यह काम ‘रासलीला’ होता है और यदि हम करें तो ‘कैरेक्टर ढीला’ होता है।
श्री राजभर को यदि इतिहास का तनिक भी बोध होता तो वह ना तो ऐसा काम करते और ना ही इस प्रकार का वक्तव्य देते। उन्हें याद रखना चाहिए कि इसी सलार मसूद का मामा महमूद गजनवी था। जिसने सोमनाथ के मंदिर को इसी सलार मसूद की सलाह पर तोड़ा था।
सोमनाथ के मंदिर को तोड़े जाने की घटना के बाद सलार मसूद स्वयं गाजी बनने की इच्छा पालकर भारत की ओर एक विशाल सेना लेकर चला था । उसकी इस विशाल सेना का साथ उन लोगों ने ही दिया था, जो भारत में उस समय धर्मांतरित होकर मुसलमान बने थे। भारत के इतिहास का यह एक कटु सत्य है कि नव मुस्लिमों ने विदेशी आक्रमणकारी का हर समय साथ दिया है और जिस फूट को हमें केवल हिंदू समाज के भीतर दिखा कर अपमानित किया जाता है, उस तथाकथित ‘हिंदू फूट’ से अधिक घातक इन नव मुस्लिमों के ऐसे कृत्य रहे हैं। सलार मसूद ने उस समय हिंदुओं के सामने ‘मृत्यु या इस्लाम’ में से एक को चुनने का प्रस्ताव रखा था। जिन्होंने इस्लाम को स्वीकार नहीं किया, उन्हें बड़ी निर्ममता के साथ मृत्यु का ग्रास बनाया गया था। पंजाब से चलकर यह आक्रमणकारी जब बहराइच पहुंचा तो वहां पर भी अनेक हिंदुओं का वध इसने कर दिया था। इस प्रकार अनेक हिंदुओं का वध करने के पश्चात इसे गाजी पद की प्राप्ति हुई । गाजी का अर्थ होता है काफिर का वध करने वाला।
ऐसी स्थिति में क्या किसी भी गाजी की मजार भारत में होनी चाहिए ?
सलार मसूद से पहले महमूद गजनवी के आक्रमण ने मुल्तान जैसे समृद्धिशाली नगर को पूर्णतया नष्ट कर दिया था। वहां के राजा उस समय उछ में जाकर बस गए थे । राजा ने बड़े दु:खी दिल से यह निर्णय लिया होगा। क्योंकि एक समृद्धिशाली शहर को वीरान बने देखना और छोड़कर दूसरी जगह जाकर बसना उतना सरल नहीं होता, जितना समझ लिया जाता है। अपने बिछड़े हुए शहर और वहां के लोगों की पीड़ादायक यादें लोगों को बहुत देर तक सताती हैं। बाबुल का घर छोड़ कर ससुराल में जाने वाली किसी भी बेटी को अपने गांव की माटी और पेड़ों तक की याद जीवन भर आती रहती है। जो लोग 1947 में पाकिस्तान से उजड़ कर भारत आए थे, उन्हें अब आजादी के 75 वर्ष व्यतीत हो जाने के उपरांत भी अपने मूल शहरों की और वहां के लोगों की यादें सताती हैं।
दु:खी राजा ने मसूद से कह दिया था कि विदेशी भूमि पर इस प्रकार आक्रमण करने का क्या औचित्य है ? राजा ने यह बात इसलिए कही थी कि भारत के संस्कारों में इस प्रकार निरपराध देशों और देशों के निवासियों पर आक्रमण करने की बात कभी सोची ही नहीं गई थी। अब जब सलार मसूद जैसे विदेशी आक्रमणकारी बार-बार गिद्ध बनकर भारत की ओर आ रहे थे, तो राजा ने अपसंस्कृति के इस प्रकार के असभ्य आचरण और आक्रमण को टोकते हुए ऐसा कहा था । तब मसूद ने उत्तर दिया था कि “यह सारी भूमि अल्लाह की है, वह अपने जिस दास को देना चाहता है ,देता है। मेरे पूर्वजों का यही विश्वास रहा है कि काफिरों को मुसलमान बनाना हमारा कर्तव्य है। यदि वह हमारा धर्म स्वीकार कर ले तो ठीक है अन्यथा हमें उनका वध कर देना चाहिए।”
इसके पश्चात सलार मसूद ने अन्य हिंदू राजाओं पर आक्रमण किया और निरपराध हिंदू समाज के लोगों को अपनी तलवार के माध्यम से मौत के घाट उतार दिया। तब राजा सुहेलदेव और उनके साथियों ने इस विदेशी आक्रमणकारी का सामना करने का निश्चय किया। देशभक्ति, पुरुषार्थ और पराक्रम के प्रतीक बने उस प्रतापी शासक ने यह नहीं देखा कि इस विदेशी आक्रमणकारी के पास कितना बड़ा सैन्यदल है और उनकी स्थिति क्या हो सकती है? उन्होंने केवल यह देखा कि मां भारती के लिए इस समय संकट है और इस संकट का सामना करना उनका सबसे बड़ा धर्म है। उन्होंने ऐसा करके भारत की राक्षसों और संस्कृतिनाशकों के प्रति मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम और भगवान श्री कृष्ण की परंपरा का निर्वाह किया।
अपने राष्ट्रीय कर्तव्य से प्रेरित होकर राजा सुहेलदेव ने उस समय अनेक हिंदू राजाओं के लिए पत्र लिखा। उनके इस पत्र का सकारात्मक प्रभाव पड़ा और 17 राजाओं ने एक विशाल संयुक्त राष्ट्रीय सेना बनाई। उस संयुक्त राष्ट्रीय सेना के माध्यम से इस विदेशी आक्रमणकारी का सामना करने का निश्चय किया गया। परमार वंश के राजा भोज ने भी अपनी सेना भेजकर इस युद्ध में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई थी। सलार मसूद के पास उस समय 1100000 का विशाल सैन्यदल था। आप अनुमान लगा सकते हैं कि इतना बड़ा सैन्य दल कितने बड़े क्षेत्र में फैल गया होगा और उस विशाल राक्षसी सैन्य दल ने हमारे कितने लोगों को उस समय मौत के घाट उतारा होगा? लोगों में कितना आतंक फैल गया होगा और उस समय मां भारती की सेवा के लिए जो शूरवीर सामने आए होंगे वह कितने बड़े देशभक्त रहे होंगे?
उस समय सलार मसूद का यह विशाल दल किसी समुद्र जैसा दिखाई देता था। मुस्लिम इतिहासकार ने लिखा है कि “कैसा अद्भुत दृश्य है, कैसी अद्भुत मित्रता? कैसा अद्भुत विश्वास है कि केवल इस्लाम के प्रचार के लिए बिना किसी भय के इस प्रकार कुफ्र के समुद्र में कूद पड़ना।”
उस समय हमारे वीर राजाओं ने अपनी वीरता का प्रदर्शन करते हुए एक बार शत्रु को चले जाने की चेतावनी दी पर अभी तक सलार मसूद बहुत अधिक उग्र हो चुका था । उसका मन भर चुका था और उसने हमारे राजाओं के लिए स्पष्ट संदेश भिजवा दिया था कि ‘हम यहां मौज मस्ती के लिए नहीं आए हैं। हम यहीं रहेंगे और इस भूमि से सब ओर काफिरों को समूल नष्ट कर देंगे।” तब हमारे महाराजा सुहेलदेव ने अपनी संयुक्त राष्ट्रीय सेना के साथ इस विदेशी आक्रमणकारी का सामना किया।
“14 जून 10 33 को सायंकाल के समय पासी राजा सुहेलदेव के एक बाण से इस मसूद जैसे क्रूर विदेशी आक्रमणकारी का अंत हो गया। उस समय मुसलमानों की बनी वह 11 लाख की पूरी सेना गाजर – मूली की तरह काट काटकर समाप्त कर दी गई थी। मसूद के आदेश से जितने मुसलमान सैनिक मरते थे, वह सूरजकुंड में डाल दिए जाते थे। मसूद का विचार था कि उनकी दुर्गंध से हिंदू अपने तीर्थ को भ्रष्ट समझकर त्याग देंगे। मसूद की मृत्यु के बाद उसे वहीं दफन कर दिया गया, जहां उसकी मृत्यु हुई थी। बाद में इस क्षेत्र में मुस्लिम राज्य हो जाने पर उसे सूरजकुंड के पास ही दफना दिया गया था। (स्रोत: इलियट एंड डाउसन हिस्ट्री ऑफ इंडिया, बाई इट्स ओन हिस्टोरियंस,पृष्ठ 529- 547)”
इस प्रकार महाराजा सुहेलदेव ने अपने समय में महान और ऐतिहासिक कार्य किया था। भारत के इतिहास के इस महानायक राजा सुहेलदेव के नाम पर पार्टी चलाकर लोगों का मूर्ख बनाने वाले ओमप्रकाश राजभर यदि आज अकबरुद्दीन ओवैसी के साथ जाकर सलार मसूद की मजार पर सिर झुकाते हैं या चादर चढ़ाते हैं तो समझना चाहिए कि यह चादर चढ़ाते समय या सिर झुकाते समय उस सलार मसूद से यही प्रार्थना कर रहे होंगे कि आपके आदर्शों को हम आज पूरा करके दिखाएंगे? राजभर देश के इतिहास के महानायक राजा सुहेलदेव के नाम पर यदि देश के इतिहास के खलनायक सलार मसूद की मजार पर पहुंचे हैं तो निश्चय ही उनका चरित्र दोगला है और वह देश के लिए एक ‘अभिशाप’ हैं।
यदि उन्हें तनिक भी इतिहास बोध होता तो वह अपने चरित नायक महाराजा सुहेलदेव के साथ न्याय करते हुए कभी भी सलार मसूद को जाकर शीश नहीं झुकाते। पर दुर्भाग्य यह है कि हमारे देश के नेताओं को इतिहास बोध नहीं है। ओमप्रकाश राजभर जैसे राजनीतिक लोगों के लिए अपने राजनीतिक हित साधना प्राथमिकता हो गई है। ‘राष्ट्र प्रथम’ का भाव उनके भीतर से मर चुका है।
आज राजा सुहेलदेव को राजभर समाज का नायक कहकर दिखाया जाता है तो बड़ा दु:ख होता है। उन्होंने अपने जीवन काल में राजभर समाज के लिए काम नहीं किया था। यह एक अच्छी बात हो सकती है कि राजा राजभर समाज से थे, पर इससे बढ़कर उनके लिए पहले राष्ट्र समाज अर्थात हिंदू समाज था। उसी की संस्कृति की रक्षा के लिए उन्होंने उस समय अपना पराक्रम दिखाया था। अतः ओमप्रकाश राजभर जैसे लोगों के दृष्टिकोण से देखकर राजा सुहेलदेव को किसी जाति विशेष से बांधकर देखना उनके विशाल राष्ट्रीय व्यक्तित्व के साथ अन्याय करना होगा। हमें अपने इतिहासनायकों को जाति के बंधनों से बाहर निकालकर देखने की आवश्यकता है। तभी उनका उचित सम्मान हो सकता है। इतिहास नायकों के नाम पर पार्टी बनाने की प्रथा को भी देश में कानून बनाकर समाप्त करना चाहिए। ओमप्रकाश राजभर संपूर्ण हिंदू समाज के चरितनायक रहे महाराजा सुहेलदेव को अपने राजनीतिक हितों के लिए प्रयोग नहीं कर सकते। विशेष रूप से तब जबकि वह महाराजा सुहेलदेव के ही परम शत्रु रहे सलार मसूद के प्रति भी शीश झुकाने की सोच रखते हों।
जहां तक अकबरुद्दीन ओवैसी की बात है तो उनका एजेंडा तो उनकी पार्टी के स्थापना काल से ही स्पष्ट है कि वह हिंदुस्तान में सलार मसूद जैसे लोगों की परंपरा को आगे बढ़ाने का काम करेंगे। ऐसी सोच रखने वाले लोगों के विरुद्ध इस समय हिंदू अस्तित्व की रक्षा करने के लिए संकल्पित होकर सभी राजनीतिक दलों को अपनी सोच को विशालता देनी होगी। जहां तक देश के सांप्रदायिक सद्भाव को बनाए रखने की बात है तो यह तभी बना रह सकता है जब हम केवल राष्ट्रभक्त लोगों का गुणगान करें और उन लोगों को सम्मान दें – जिन्होंने देश की संस्कृति की रक्षा के लिए कार्य किया। कोई भी व्यक्ति मुसलमान रहकर अपनी धार्मिक मान्यताओं को मान सकता है, यह लोकतंत्र और संविधान की भावना का सम्मान करने के दृष्टिगत बहुत आवश्यक है, पर किसी को भी देश के शत्रुओं का सम्मान करते हुए उनके आदर्शों पर पुष्प चढ़ाने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। यदि आज भी ऐसा हो रहा है तो यह बहुत ही खतरनाक प्रवृत्ति है। अकबरुद्दीन ओवैसी और उनकी पार्टी के एजेंडा को समझने की आवश्यकता है और यदि उस पर सहमति व्यक्त करते हुए ओमप्रकाश राजभर जैसे लोग उनके साथ जा रहे हैं तो यह स्थिति और भी अधिक चिंताजनक है। महाराजा सुहेलदेव की आत्मा ने जब अपने नाम पर राजनीति कर रहे ओमप्रकाश राजभर के इस कृत्य को देखा होगा तो निश्चय ही उन्होंने इस व्यक्ति के दोगलेपन को कोसा होगा।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक उगता भारत

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