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संपादकीय

अब मत …धोखे में आना…… देशवासियों !

मंदिरों में रखी जाने वाली मूर्तियों में प्राण प्रतिष्ठा करने की भारत की पौराणिक परंपरा कितनी वैज्ञानिक है और कितनी अवैज्ञानिक है ?- इस पर हमें कोई चर्चा नहीं करनी है। पर आज हम इतना अवश्य कहना चाहते हैं कि हिंदू समाज की राष्ट्र और धर्म के प्रति बढ़ती जा रही निष्क्रियता और तटस्थता की आपराधिक भावना (अपवादों को छोड़कर )अतीत में देश के लिए बहुत ही घातक सिद्ध हुई है। यदि इस प्रकार की आपराधिक तटस्थ भावना को रोका नहीं गया तो यह भविष्य में और भी अधिक घातक सिद्ध होगी। अतः मूर्तियों में प्राण प्रतिष्ठा करने वाले लोग हिंदुओं की इस निष्क्रियता और तटस्थता की भावना को समाप्त करने के लिए अर्थात मरती हुई हिंदू जाति में प्राण प्रतिष्ठा करने के लिए आगे आने चाहिए।
देश, धर्म और समाज में छाई हुई निष्क्रियता को समाप्त करने के लिए समाज के जागरूक लोग राष्ट्र की गति को सतत प्रवाहित रखते हैं। हमारे इतिहास में भी ऐसे अनेक महापुरुष हुए हैं जिन्होंने समाज में किसी भी प्रकार की छा रही निराशा, उदासीनता या निष्क्रियता की भावना को मिटाने का समय- समय पर उल्लेखनीय और सराहनीय कार्य किया है। जो राष्ट्र जागरूक होते हैं, वही समय की धारा की चुनौती का सामना करने का साहस कर पाते हैं और विपरीत परिस्थितियों की धारा को मोड़ने में सफल होकर अपने राष्ट्र की रक्षा कर पाते हैं। राष्ट्र का निर्माण युद्ध से नहीं होता।ध्यान रखना चाहिए कि राष्ट्र का निर्माण सदविचारों की पवित्रता और उत्कृष्टता से होता है।
राष्ट्र निर्माण के लिए हमारे देश में एक बुद्धिजीवी वर्ग को मान्यता दी गई थी, जिसे ब्राह्मण कहा जाता था। ब्राह्मण राष्ट्र के निर्माण के लिए सतत क्रियाशील रहता था। वह अपवित्रता, छुआछूत, ऊंच-नीच आदि की समाजविरोधी और राष्ट्रविरोधी प्रवृत्तियों को पनपने तक नहीं देता था। यह भारत का दुर्भाग्य रहा कि कालांतर में जाति आधारित ब्राह्मण समाज ने इसी प्रकार की अपवित्रता को प्रोत्साहित किया। इसी के लिए आर0एस0एस0 प्रमुख मोहन भागवत ने कुछ समय पहले कहा था कि ब्राह्मणों ने जातिवाद और अस्पृश्यता को लेकर कई प्रकार की गलतियां की हैं।
हमारे देश में ऐसे अनेक उदाहरण हैं जब यहां के अनेक सम्राटों ने विश्व का नेतृत्व किया था ,सागर मंथन करने की परंपरा भी भारत के पुरुषार्थ की ओर संकेत करती है। बौद्धिक संपदा संपन्न हमारे ऋषि किस प्रकार उपनिषदों की व्यवस्था किया करते थे और उनकी रचना कर देश ,समाज व राष्ट्र को सृष्टि प्रलय पर्यंत जीवित और सुरक्षित रखने के लिए चिंतन दिया करते थे, यह कार्य भी भारत ने ही किया है।
जब विदेशी आक्रमणकारियों के गिद्धों के दल भारत को नोंचने लगे थे तो उस समय भी अनेक संस्कृति रक्षक महापुरुषों ने अपने आप को राष्ट्र रक्षा के महान कार्य के लिए प्रस्तुत किया था। राजा नागभट्ट द्वितीय ने अब से लगभग 1200 वर्ष पहले शुद्धि आंदोलन चलाकर लोगों की घर वापसी सुनिश्चित की थी। इसी बात को आगे चलकर बाबर की मृत्यु के पश्चात राव लूणकरण भाटी ने संपन्न किया था । भारत के पराभव के उस काल में अनेक संतों ने भी इस महान कार्य को निरंतर जारी रखा, जिससे हिंदू जाति की रक्षा की जा सकी। राव लूणकरण भाटी ने तो जबरन मुसलमान बनाए गए हिंदू भाइयों की ‘घर वापसी’ के अभियान को सफल बनाने का एक अनूठा ही प्रयोग कर डाला था। जैसलमेर के शासक राव लूणकरण भाटी ने जब यह कार्य संपादित किया था तो उस समय उसके संकेत पर बड़ी संख्या में मुसलमान बने हिंदू लोग ‘घर वापसी’ के लिए एक स्थान विशेष पर एकत्रित हो गए थे। राजा ने जब देखा कि बहुत बड़ी संख्या में लोग ‘घर वापसी’ के लिए आ गए हैं तो उन्होंने एक-एक व्यक्ति की शुद्धि न कराकर ऊंचे मंच से खड़े होकर आवाज लगाई थी कि “भाईयो ! कुछ समय पश्चात इस मंच से शंख ध्वनि होगी। शंख ध्वनि में गूंजते हुए ‘ओ३म’ की आवाज जिन- जिन लोगों के कानों में पहुंच जाए ,वही- वही लोग अपने आपको फिर से वैदिक धर्मी स्वीकार करें।
हमें ज्ञात है कि इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जब मुसलमानों ने मस्जिदों से आ रही कलमे की आवाज को सुना – सुनाकर ही लोगों को हिंदू से मुसलमान बना दिया था। राजा लूणकरण भाटी ने बड़ी संख्या में लोगों को शंख की ध्वनि के माध्यम से ओ३म का संगीत सुनाकर मुसलमानों के इन अत्याचारों का तुर्की ब तुर्की जवाब दिया था। निश्चित रूप से ऐसे महापुरुषों के इस प्रकार के महान कार्यों को स्मरण रखने की आवश्यकता है।
हमारे लिए सौभाग्य की बात है कि स्वामी श्रद्धानंद जी जैसे महानायक ने अपने पूर्वजों की इस परंपरा को आगे बढ़ाते हुए शुद्धि आंदोलन को नई गति और नई दिशा प्रदान की थी। उस समय कांग्रेस और कांग्रेस के नेता गांधीजी किसी भी स्थिति में शुद्धि आंदोलन के समर्थक नहीं थे। इसके उपरांत भी स्वामी श्रद्धानंद ने कांग्रेस और गांधी जी की अडंगा डालने की नीति की तनिक भी परवाह नहीं की और वह निरंतर छाती तान कर अपने कार्य में लगे रहे। गांधीजी ने अनेक प्रयास किए कि स्वामी श्रद्धानंद जी शुद्धि आंदोलन को बंद कर दें, परंतु उन्होंने इस ओर तनिक भी ध्यान नहीं दिया। गांधी जी ने उस समय हरिजन पत्रिका और यंग इंडिया में स्वामी श्रद्धानंद के शुद्धि कार्यक्रम के विरुद्ध आलोचनात्मक लेख लिखे थे। इन लेखों से प्रेरित होकर मुसलमानों ने एक योजना के अंतर्गत स्वामी श्रद्धानंद जी की हत्या करवा दी थी। उस पर भी गांधी जी ने स्वामी श्रद्धानंद जी के हत्यारे को भाई कह कर संबोधित किया था।
स्वामी श्रद्धानंद जी और पंडित लेखराम जैसे शुद्धि आंदोलन के महानायकों के अथक प्रयासों के कारण 30 वर्षों में लगभग 9 लाख परिवार मुसलमान से हिंदू वैदिक धर्म में वापस आ गए थे। उस समय की परिस्थितियों में यह बहुत बड़ी सफलता थी। इतिहास में इस प्रकार के महान कार्यों का वंदन होना चाहिए था। परंतु वंदन, अभिनंदन या नमन की प्रक्रिया को न अपनाकर ऐसे कार्यों का कांग्रेस और कांग्रेस के इतिहास लेखकों ने बहिष्कार ही कर दिया। चमनलाल रामपाल वेदरतन की पुस्तक “धरातल पर स्वर्ग धाम :अपना राष्ट्र” के पृष्ठ संख्या 53 से हमें पता चलता है कि उस समय 3 गांवों के मध्य में बहुत बड़ा हवन किया जाता था और हवन की पूर्णता पर शंखनाद द्वारा शंख ध्वनि की जाती थी । जहां – जहां यह ध्वनि सुनाई देती, वहां – वहां तक के लोग वैदिक धर्म में दीक्षित हुए मान लिए जाते थे।
इससे पता चलता है कि स्वामी श्रद्धानंद जी जैसे महानायक ने राव लूणकरण भाटी की परंपरा को मरने नहीं दिया ,बल्कि उसको गहराई से समझ और पढ़कर उसका अनुकरण कर सैकड़ों वर्ष पश्चात भी हिंदुओं की शुद्धि के महान कार्य को आगे बढ़ाने का प्रशंसनीय और राष्ट्रवंद्य कार्य किया। ऐसे में हमको इस भाव और विचार से बाहर निकलने की आवश्यकता है कि हमने कभी इतिहास की परंपराओं को समझा नहीं या समय आने पर उनका अनुकरण नहीं किया। हमने विचारों में और अपने कार्य में सदा अपने महापुरुषों को जीवित रखा। उसी से भारत को एक जीवंत राष्ट्र बनाए रखने में हमको सफलता मिली। यदि स्वामी श्रद्धानंद जी जैसे महापुरुषों के चिंतन में नागभट्ट द्वितीय और राव लूणकरण भाटी जैसे महापुरुषों की हत्या हो गई होती तो वह कदापि शुद्धि के महान कार्य को आगे नहीं बढ़ा पाते।
उपरोक्त पुस्तक से ही हमें जानकारी मिलती है कि एक समय ऐसा भी आया था जब लाला लाजपत राय जी के पिताजी इस्लाम के बहुत निकट चले गए थे। इतना ही नहीं, उन्होंने घर में मस्जिद तक भी बनवा ली थी। एक निश्चित दिन वे इस्लाम कबूल करने के लिए बग्गी पर सवार होकर मस्जिद को जा रहे थे। यह भारत का सौभाग्य ही था कि जिस समय लाला लाजपत राय जी के पिताजी इस्लाम स्वीकार करने के लिए बग्गी पर सवार हो मस्जिद की ओर जा रहे थे। उसी समय उन्हें एक महापुरुष के प्रवचनों के कुछ शब्द कानों में पड़े । उन्होंने बग्गी को रुकवाया, और वहीं बैठे-बैठे उस महापुरुष के प्रवचनों को सुनने लगे। इन प्रवचनों में जिस प्रकार का ओज और तेज प्रवाहित हो रहा था उसने लाला लाजपत राय जी के पिताजी को मुसलमान बनने से रोक लिया। यह महापुरुष कोई अन्य नहीं स्वयं स्वामी दयानंद जी महाराज थे। जिनके प्रवचनों से एक बहुत बड़ी घटना होने से रुक गई थी।
कल्पना कीजिए कि यदि स्वामी दयानंद जी महाराज के प्रवचनों की ओजस्विता और तेजस्विता से प्रभावित होकर लाला लाजपत राय जी के पिताजी उस दिन मस्जिद जाने से नहीं रुकते तो लाला लाजपत राय भी मुसलमान होते और फिर वे भी उसी प्रकार देश के लिए घातक होते जिस प्रकार अल्लामा इकबाल देश के लिए घातक साबित हुआ था, जिसके दादाजी हिंदू थे या कहिए कि लालाजी भी कोई नया ‘जिन्नाह’ बन सकते थे जिसके पिताजी हिंदू थे।
आजादी से पहले स्वामी श्रद्धानंद जी के जीवन काल में कांग्रेस के समक्ष देश के लगभग 8 करोड़ दलितों को मुसलमानों और हिंदुओं में आधा-आधा बांट लेने का प्रस्ताव मुस्लिमों की ओर से आया था । उस पर भी गांधी जी ने कोई कठोर प्रतिक्रिया नहीं दी थी। इसके विपरीत वह इस बात पर लगभग सहमत हो गए थे। स्वामी श्रद्धानंद जी जैसे देशभक्त के लिए यह अत्यंत पीड़ादायक स्थिति थी कि देश के दलितों को मुसलमान थोक के भाव में आधा अर्थात 4 करोड़ ले जाएं और बाद में इन्हीं चार करोड़ को अपने ही हिंदू भाइयों के विरुद्ध उकसाकर मारने काटने के लिए प्रेरित करें। गांधीजी उस सच को या तो देखते नहीं थे या उसे देखने का प्रयास नहीं करते थे, जिसे स्वामी श्रद्धानंद जी महाराज की पारखी नजरें बहुत पहले पहचान लेती थीं। ऐसे प्रस्ताव का क्रियान्वयन होना देश के लिए बहुत बड़ा घाटे का सौदा था। जिसे स्वामी श्रद्धानंद जी कभी भी सहन नहीं कर सकते थे।
इस उदाहरण को आज की परिस्थितियों पर कसकर देखने की आवश्यकता है?
यद्यपि ऐसे कई उदाहरण भारतवर्ष में हैं जब मुसलमान से हिंदू बने लोगों को देर तक सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ा, परंतु स्वामी श्रद्धानंद जी और उनके साथी जब इस महान कार्य को करते थे तो उसके पश्चात ऋषि लंगर का आयोजन होता था। जिसमें हिंदू समाज के सभी लोग एक साथ बैठकर भोजन किया करते थे। इस प्रकार सामाजिक समरसता का परिवेश सृजित कर उसमें अपने बिछुड़े हुए भाइयों को सम्मिलित किया जाता था।
यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि जिस देश ने सामाजिक समरसता के अनेक उदाहरण स्थापित कर अपनी घटती हुई संख्या को बढ़ाने का भागीरथ प्रयास और पुरुषार्थ कर अपना इतिहास रचा है, उसमें आज भी कई लोग ऐसे हैं जो जातिवाद, छुआछूत, ऊंच-नीच , अस्पृश्यता की बीमारी को गले में लटकाए रखने की वकालत करते देखे जाते हैं। समय ने बहुत कुछ साबित कर दिया है और यदि समय रहते हिंदू समाज जगा नहीं तो समय बहुत कुछ साबित कर भी देगा। इससे पहले कि काल कोई नया इतिहास रचे, हम ही इतिहास को रोककर उस पर हावी हो जाएं। काम तभी निपटता है जब हम स्वयं उस पर हावी हो जाते हैं। यदि काम हम पर हावी बना रहा तो काम के बढ़ते बोझ को देखकर हम स्वयं ही मिट जाएंगे।
अन्त में बस इतना ही :-
सुन लो ,समय की पुकार…
अब मत… धोखे में आना…… देशवासियों !
सुन लो, समय की पुकार…
सदियों में आया मौका हाथ में तुम्हारे
फिर आ ना सकेगा।
अब ना जगे तो फिर तुम्हें कोई जगा ना सकेगा ।
कर दो दूर खुमार…..
प्राण प्रतिष्ठा करने में समर्थ लोग सामने आएं और समय की नजाकत को पहचान कर हिंदुओं में “प्राण प्रतिष्ठा” करने का काम करें।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

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