Categories
इतिहास के पन्नों से

मेवाड़ के महाराणा और उनकी गौरव गाथा अध्याय – 10 (क) महाराणा कुम्भा ( 1433 – 1468 ई० )

महाराणा कुम्भा ( 1433 – 1468 ई० )

मेवाड़ के महाराणा मोकल के पश्चात उनके वीर पुत्र महाराणा कुंभा ने 1433 ई0 में मेवाड़ का राज्य भार संभाला। महाराणा कुंभा का भी मेवाड़ के राणा वंश के शासकों में प्रमुख स्थान है। उन्होंने अपने शासनकाल में कई ऐसे महान कार्य किए जिन्होंने उनकी कीर्ति को अमर किया। जिन प्रमुख शासकों का मेवाड़ या राजपूताना में आज भी विशेष सम्मान के साथ नाम लिया जाता है उनमें महाराणा कुंभा अग्रगण्य है। महाराणा कुंभा ने 1468 ई0 तक मेवाड़ पर शासन किया था।
इनका दूसरा नाम कुंभकर्ण भी था, परंतु इतिहास में इन्हें महाराणा कुंभा के नाम से ही जाना जाता है। मेवाड़ के महाराणा वंश के यह अकेले ऐसे शासक हैं जिन्होंने 35 वर्ष की अवस्था में ही 32 नए दुर्गों का निर्माण करवाया था। महाराणा कुंभा के इस महान योगदान से पता चलता है कि वह अपनी किलेबंदी की योजना के प्रति कितने गंभीर थे ? वह जानते थे कि किले ही उस समय मजबूती का प्रतीक होते थे और किसी भी राज्य को स्थाई आधार देने में सहायक होते थे। इन 32 दुर्गों में चित्तौड़गढ़, कुंभलगढ़, अचलगढ़, मचान दुर्ग, भौसठ दुर्ग और बसंतगढ़ महत्वपूर्ण हैं।

चित्तौड़गढ़ के आधुनिक निर्माता

महाराणा कुंभा ने चित्तौड़ के दुर्ग का भी पूरी भव्यता के साथ पुनर्निर्माण कराया था। इसीलिए उनको चित्तौड़ दुर्ग का आधुनिक निर्माता भी कहा जाता है। 'वीर-विनोद' के लेखक श्यामलदस के अनुसार कुुुम्भा ने इन 32 दुर्गों का निर्माण कराया था ।उनके द्वारा इन किलों के भीतर मंदिरों का भी निर्माण करवाया गया था। उनके इस प्रकार के पुरुषार्थ से पता चलता है कि वह देश की रक्षा सुरक्षा के प्रति कितने गंभीर थे ? मुसलमानों की आक्रमणकारी नीतियों के विरुद्ध उन्होंने उस समय राजपूत नीति को नई ऊंचाई प्रदान की थी। उन्होंने राष्ट्रवाद को मजबूत करने के लिए उस समय भारत के क्षत्रियों की एकता पर बल दिया था। जिससे कि विदेशी मुस्लिम शासकों का मिलकर सामना किया जा सके और उन्हें देश से बाहर खदेड़ने में सफलता प्राप्त हो सके। यह अलग बात है कि उनकी इस प्रकार की योजना को राष्ट्रव्यापी समर्थन प्राप्त नहीं हो सका परंतु इसका अभिप्राय यह नहीं है कि उनके इस प्रयास और कार्य से कोई परिणाम ही नहीं निकला था? ऐसे प्रयासों का प्रभाव निश्चित रूप से पड़ता है और इसे हम उनके शासनकाल में इस्लाम के अधिक विस्तार न लेने के रूप में देख सकते हैं।
    चित्तौड़गढ़ के भीतर बना विजय स्तंभ महाराणा कुंभा की विजय कीर्ति का गुणगान आज भी कर रहा है। महाराणा कुंभा का यह विजय स्तंभ भारत की अमूल्य धरोहर के रूप में विश्व विख्यात है। महाराणा कुंभा का यह विजय स्तंभ यह भी स्पष्ट कर देता है कि भारतवर्ष में इस प्रकार के विजय स्तंभ बनाने का प्रचलन प्राचीन काल से है। दिल्ली की कुतुबमीनार को भी भारतीय निर्माण कला का उत्कृष्ट उदाहरण मानकर इसी दृष्टिकोण से देखने की आवश्यकता है। जिसे भारत के लोगों ने वेधशाला के रूप में निर्मित किया था।

महाराणा कुंभा भारत के इतिहास में न केवल सैन्य संगठन के दृष्टिकोण से अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं अपितु उनके भीतर साहित्य साधना की भी एक अद्भुत प्रतिभा थी।
उन्होंने ‘संगीत राज’ की रचना की थी।महाराणा कुंभा ने अपने इसी प्रकार के साहित्यिक अनुराग का परिचय देते हुए चंडी-शतक एवं गीतगोविन्द आदि ग्रंथों की व्याख्या भी की थी।

कुंभलगढ़ की दीवार

महाराणा कुंभा ने चीन की दीवार के बाद संसार की सबसे लंबी दीवार का निर्माण भी किले के बाहर करवाया। इसे देखकर हर कोई आज भी आश्चर्यचकित रह जाता है। इससे महाराणा की स्थापत्य कला के प्रति रुचि का तो ज्ञान होता ही है ,साथ ही वह सुरक्षा के प्रति कितने गंभीर थे ? इस बात का भी पता चलता है। इस किले को कुंभलगढ़ के किले और दीवार को कुंभलगढ़ की दीवार के नाम से जाना जाता है। इस दीवार के निर्माण में उस समय 15 वर्ष का समय लगा था। चीन की दीवार को जहां चीन के तत्कालीन शासकों ने अपने कैदियों से जबरन निर्मित करवाया था और उन्हें उसका कोई पारिश्रमिक नहीं दिया था, वहीं महाराणा कुंभा ने इन्हें अपने श्रमिकों के माध्यम से बनवाया था और उन्हें उनका उचित पारिश्रमिक भी प्रदान किया था। इस प्रकार जहां चीन की दीवार में शोषण छिपा हुआ है, वहीं महाराणा कुंभा के द्वारा निर्मित कराई गई इस दीवार में पोषण छिपा हुआ है।
अपनी धार्मिक आस्था को प्रकट करते हुए इस किले के भीतर भी महाराणा कुंभा ने कई मंदिरों का निर्माण करवाया था। किले के भीतर बने इन मंदिरों की संख्या 360 बताई जाती है। इन मंदिरों में लगभग 300 मंदिर जैन मंदिर के रूप में विद्यमान हैं।
महाराणा कुम्भा को इतिहास में अभिनवभृताचार्य, राणेराय, रावराय, हालगुरू, शैलगुरु, दानगुरु, छापगुरु, नरपति, परपति, गजपति, अश्वपति, हिन्दू सुरतान, नन्दीकेशवर, परम भागवत, आदि वराह जैसी उपाधियों से भी जाना जाता है।

पिता की हत्या का लिया प्रतिशोध

महाराणा मोकल सिंह के विषय में हम पूर्व में ही यह उल्लेख कर चुके हैं कि उनकी हत्या की गई थी। महाराणा मोकल सिंह के हत्यारे अभी खुले घूम रहे थे। उनका इस प्रकार खुला घूमना महाराणा कुंभा को बड़ा अखरता था। अपने पिता के प्रति पूर्ण निष्ठा रखने वाले महाराणा कुम्भा के लिए यह बहुत आवश्यक हो गया था कि वह उनके हत्यारों से उनकी हत्या का प्रतिशोध ले। इस कार्य को पूर्ण करने के लिए महाराणा कुंभा ने अपने कुछ विश्वसनीय साथियों के साथ मिलकर एक योजना बनाई। जिसमें पिता के हत्यारों को समाप्त करने में वह बहुत अधिक सीमा तक सफल हो गया था।

प्रतिशोध लेकर किया, हत्यारों का नाश।
प्रजाहित शासन किया, काटे सारे पाश।।

महाराणा कुंभा ने राज्य सिंहासन पर विराजमान होते ही अगले 7 वर्षों के भीतर दिल्ली के तत्कालीन सुल्तान सैयद मोहम्मद शाह और गुजरात के सुल्तान अहमद शाह को पराजित करने में भी सफलता प्राप्त की थी। इन दोनों मुस्लिम शासकों को पराजित करके इस वीर योद्धा ने हिंदुत्व और केसरिया ध्वज के सामने उनका सिर झुकवाया था अर्थात उन्हें भली प्रकार यह आभास हो गया था कि हिंदुत्व क्या है और भारत के वैदिक धर्मी हिंदू समाज के लोग अपने धर्म व संस्कृति के प्रति किस सीमा तक समर्पित हैं ?  

मेवाड़ राज्य का विस्तार
सारंगपुर, नागौर, नराणा, अजमेर, मंडोर, मांडलगढ़, बूंदी, खाटू, चाटूस आदि के सुदृढ़ किलों को इन मुस्लिम शासकों से जीतकर महाराणा कुंभा ने अपने साम्राज्य का विस्तार किया। अपने पिता के हत्यारे चाचा व मेरा को उनके साथियों के सहित महाराणा कुंभा समाप्त करने में सफल हो गए थे, परंतु अभी महपा नाम का उनका शत्रु मारा जाना शेष था। वह महाराणा को चकमा देता हुआ इधर उधर भाग रहा था। अंत में वह सुल्तान महमूद खिलजी के यहां शरणागत हो गया। महमूद खिलजी ने भी उसे अपना पूरा संरक्षण दे दिया। हमें यह बात समझ लेनी चाहिए कि जहां कहीं भी किसी मुस्लिम शासक ने हिंदू समाज के महपा जैसे किसी भी व्यक्ति को शरण दी है, वहां उसने किसी भी प्रकार का मानवीय दृष्टिकोण अपनाते हुए या मानवतावादी होकर ऐसा कार्य नहीं किया है अपितु उसने ऐसे व्यक्ति को उसके ही लोगों के विरुद्ध समय आने पर प्रयोग करने के उद्देश्य से प्रेरित होकर ऐसा कार्य किया है।
जब महाराणा कुंभा को इस बात की जानकारी हुई कि उसके शत्रु को सुल्तान खिलजी ने शरण दे दी है तो वह अत्यंत क्रोधित हुआ। यह 1437 ई0 की घटना है जब महाराणा कुंभा ने अपने इस शत्रु को समाप्त करने के उद्देश्य से प्रेरित होकर सारंगपुर पर हमला कर दिया। इस युद्ध में महाराणा कुंभा ने सुल्तान की ईंट से ईंट बजा दी थी और उसे पराजित करने के पश्चात मंदसौर और जावरा को भी जीत कर अपने राज्य में मिला लिया था। इतना ही नहीं, इस युद्ध में महमूद खिलजी को बंदी बनाकर चित्तौड़ ले आया गया था। क्या ही अच्छा होता कि हमारे महाराणा अपने इस शत्रु को सदा – सदा के लिए समाप्त कर देते, पर उन्होंने ऐसा न करके पृथ्वीराज चौहान वाली गलती को दोहरा दिया और उसे क्षमा करके अपनी कैद से मुक्त कर दिया। शत्रु को मुक्त करके राणा ने बड़ी भारी गलती कर ली थी।

किया विजय स्तंभ का निर्माण

             सारंगपुर में मिली इस महत्वपूर्ण जीत के पश्चात ही महाराणा कुंभा ने चित्तौड़गढ़ में स्थित विजय स्तंभ को निर्मित करवाया था।  वास्तव में यह स्तंभ उनकी उस विजय का प्रतीक है जिसके पश्चात उन्होंने मान लिया था कि अब उन्होंने अपने पिता के हत्यारों पर विजय प्राप्त कर ली है । 

विजय का परतीक है, राणा का स्तंभ।
निज पताका गाड़ दी, शत्रु रह गया दंग।।

इसके साथ ही साथ उन शत्रुओं को भी वश में कर लिया है जो यहां पर अपना साम्राज्य विस्तार करते जा रहे थे । साम्राज्य विस्तार के साथ-साथ अपने मजहब को भी प्रचारित – प्रसारित करते जा रहे थे।
विजय के प्रतीक विजय स्तंभ का निर्माण उसी वर्ष अर्थात 1437ई0 में ही संपन्न हो गया था। इस विजय स्तंभ की ऊंचाई 122 फीट और चौड़ाई 30 फीट है। यह नीचे से चौड़ा है, बीच में कुछ संकरा है और ऊपर जाते – जाते फिर से थोड़ा चौड़ा हो जाता है। यह भारत की स्थापत्य कला और कारीगरी का एक बेजोड़ नमूना है।
9 मंजिले इस विजय स्तंभ के ऊपर तक जाने के लिए 157 सीढ़ियों को बनाया गया है। महाराणा कुंभा के इस स्तम्भ को विष्णु ध्वज या विष्णु स्तंभ के नाम से भी जाना जाता है। इसमें वैदिक हिंदू धर्म के महापुरुषों, देवी – देवताओं की मूर्तियों को भी स्थापित किया गया है। जिनमें रामायण और महाभारत के पात्रों की अनेक मूर्तियों के साथ-साथ भगवान विष्णु के अवतार, हरिहर, ब्रह्मा, लक्ष्मी, नारायण, उमा, महेश्वर और अर्धनारीश्वर की मूर्तियां सम्मिलित हैं।

लोक कल्याण बनाम लूट कल्याण

इस प्रकार के कार्यों से पता चलता है कि महाराणा कुंभा के भीतर गुणों की खान थी। यदि सारे के सारे तथाकथित उदार मुगल बादशाहों को हमारे इस शासक के समक्ष एक साथ खड़ा कर दिया जाए तो भी उन सारों के सम्मिलित गुणों से अधिक गुण इसके भीतर होंगे। सबसे बड़ा गुण तो यही होगा कि महाराणा कुंभा ने जहां अपने देश के लोगों की भलाई के लिए काम किया और उनके शिक्षा स्वास्थ्य आदि पर एक योग्य शासक की भांति ध्यान दिया वहीं लुटेरे मुगलों ने लोक कल्याण के कार्यो पर ध्यान न देकर लूट कल्याण पर ध्यान दिया।
1459 ई0 में महमूद खिलजी ने महाराणा कुंभा की चित्तौड़ पर एक बार फिर चढ़ाई की, परंतु महाराणा ने उसे फिर मुंहतोड़ उत्तर दिया। इस बार पराजित हुआ सुल्तान खिलजी मांडू की ओर भाग गया था। इसके पश्चात सुल्तान खिलजी ने खींची चौहानों के अधीन रहने वाले गागरोन पर आक्रमण कर दिया। गागरोन के इस युद्ध में सेनापति दाहिर मारा गया और यहां पर खिलजी का आधिपत्य स्थापित हो गया। गागरोन विजय से उत्साहित होकर महमूद खिलजी ने मांडलगढ़ के किले पर आक्रमण किया। परंतु यहां उसे सफलता नहीं मिली यहां पर राणा कुंभा के साथ उसका युद्ध हुआ और उस युद्ध में महमूद खिलजी को एक बार फिर करारी पराजय का सामना करना पड़ा। 11 अक्टूबर 1446 ई0 को सुल्तान खिलजी ने एक बार फिर आक्रमण किया परंतु उसे सफलता प्राप्त नहीं हुई।
महाराणा कुंभा के लिए सुल्तान खिलजी मोहम्मद गौरी बन चुका था। जिसने पृथ्वीराज चौहान को एक से अधिक बार चुनौतियां दी थीं। यद्यपि महाराणा कुंभा ने उस अधर्मी को हर बार परास्त किया। सुल्तान खिलजी ने अजमेर और मांडलगढ़ पर भी आक्रमण किया था। 1455 ईस्वी में महाराणा कुंभा के प्रतिनिधि के रूप में गजधर सिंह अजमेर में नियुक्ति पर थे।
जब सुल्तान खिलजी को यह पता चला कि राणा कुंभा इस समय कहीं दूर हैं तो उसने उनकी अनुपस्थिति का लाभ उठाकर अजमेर पर आक्रमण कर दिया, परंतु उसे यहां भी पराजय का ही मुंह देखना पड़ा। 1457 में महमूद खिलजी ने मांडलगढ़ पर हमला किया और उसे जीतने में सफल हो गया। जब राणा कुंभा को अपने गुजरात प्रवास के समय इस घटना की जानकारी मिली तो वह तुरंत वहां से लौट आये और मांडलगढ़ पर फिर अपना अधिकार स्थापित कर लिया। बार-बार पिटते हुए सुल्तान महमूद ने इस बार जावर पर आक्रमण कर दिया। वीर महाराणा कुंभा और उनके सैनिकों ने यहां भी इस आक्रमणकारी को धूल चटाई।

फिरोज खान और महाराणा

महाराणा कुंभा के समय नागौर पर फिरोज खान नामक मुस्लिम शासक का शासन था। इस मुस्लिम शासक के 2 पुत्र थे जिनमें से एक का नाम मुजाहिद खान और दूसरे का शम्स खान था। अपने पिता की मृत्यु के उपरांत इन दोनों में भी उत्तराधिकार के लिए वैसा ही युद्ध आरंभ हो गया जैसा कि हर मुस्लिम शासक की मृत्यु के बाद हुआ होता था। शम्स खान ने इस युद्ध में महाराणा कुंभा से सहायता की प्रार्थना की। महाराणा ने भी अवसर को पहचान कर शम्स को गद्दी पर बैठा दिया। इसके बदले में महाराणा ने शम्स खान से यह वचन भी ले लिया कि भविष्य में जब भी महाराणा को आवश्यकता होगी, तब वह उनकी सहायता करेगा।
राजगद्दी पर बैठते ही शम्स खान महाराणा कुंभा को दिए हुए अपने वचनों से लौट गया। वास्तव में एक मुसलमान होने के कारण उससे ऐसी ही अपेक्षा भी की जा सकती थी। शम्स खान की कृतघ्नता को देखते हुए महाराणा कुंभा ने नागौर पर आक्रमण किया और उस पर अपना अधिकार कर लिया। इसके बाद शम्स खान गुजरात की ओर भाग गया। गुजरात जाकर शम्स खान ने वहां के शासक कुतुबुद्दीन से अपनी पुत्री का विवाह किया और उससे मिलकर राणा कुंभा से बदला लेने का संकल्प लिया। इस बार राय रामचंद्र और मलिक गिदई के नेतृत्व में सुल्तान कुतुबुद्दीन ने एक बड़ी सेना महाराणा को परास्त करने के लिए भेजी। जिसके साथ शम्स खान भी था। दोनों ओर की सेनाओं में भयंकर जमकर संघर्ष हुआ। इस युद्ध में भी कुंभा की ही विजय हुई।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

(हमारी यह लेख माला आप आर्य संदेश यूट्यूब चैनल और “जियो” पर शाम 8:00 बजे और सुबह 9:00 बजे प्रति दिन रविवार को छोड़कर सुन सकते हैं।)

Comment:Cancel reply

Exit mobile version