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इतिहास के पन्नों से

कोहिनूर हीरा भारत वापस लाना है तो करने होंगे कुछ काम

आरएस चौहान

ब्रिटेन की महारानी एजिलाबेथ द्वितीय के निधन के बाद कोहिनूर हीरा भारत को वापस करने की मांग उठने लगी। भारत और दूसरे देशों को पूरा हक भी है कि वो लूटी गई अपनी अकूत संपदा को लौटाने की मांग जोर-शोर से उठाएं। इसी वर्ष मार्च महीने में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दौरे के वक्त ऑस्ट्रेलिया ने 29 कलाकृतियां लौटाई थीं। लेकिन यह भी सच है कि जब तक राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय कानूनों को दुरुस्त नहीं किया गया तब तक असली हकदार को उसकी सांस्कृतिक कलाकृतियां पाने में काफी संघर्ष करना होगा। भारत अपने एंटिक्विटीज एंड आर्ट ट्रेजर एक्ट, 1972 में तुरंत संशोधन करके इस दिशा में कदम बढ़ा सकता है। यह कानून हमारी सांस्कृतिक धरोहरों को संरक्षित रखने के लिए है।

कलाकृतियां तो लौटाई ही जानी चाहिए, ये हैं कारण
➤ कलाकृतियां उन संस्कृतियों की धरोहर होती हैं जो उन्हें पैदा करती हैं। ये संबंधित संस्कृतियों के पोषक नागरिकों की पहचान होती हैं।

➤ न्याय का तकाजा तो यही है कि चोरी की गई या लूटी गई संपत्ति उसके हकदार को लौटाई जाए।

➤ अगर लूट की संपत्तियां वापस नहीं की जाती हैं तो यह धारणा पुष्ट होगी कि अतीत में उपनिवेशों को कमतर मानने की दुर्बुद्धि अब भी खत्म नहीं हुई है।

➤ वही लोग अपने पूर्वजों की कलाकृतियां देखने से महरूम रहेंगे क्योंकि यूरोप-अमेरिका जाना तो उनके बूते की बात नहीं है।

पश्चिमी देशों की बहानेबाजियां तो देखिए
➤ कई वस्तुओं को तो कानूनी तौर पर लिया गया। कोहिनूर जैसी कुछ बहुमूल्य एवं ऐतिहासिक महत्व की वस्तुएं उपहार में दी गईं। इसलिए उन्हें पुराने उपनिवेशों को वापस करने का सवाल ही नहीं उठता है।

➤ तब जिन राजवाड़ों से ये वस्तुएं ली गईं, अब वो एक नहीं, अनेक देशों में फैल गई हैं। ऐसे में उनकी उत्पत्ति का वास्तविक स्थान का सही से पता ही नही हैं। तो फिर उन्हें लौटाएं तो किस देश को?

➤ वस्तुएं वापस पाकर भी कोई देश अपने औपनिवेशिक अतीत से पीछा नहीं छुड़ा सकता है। उपनिवेशवाद तो आधुनिक विश्व इतिहास की एक सच्चाई है।

➤ जो देश इन वस्तुओं के असली हकदार हैं, उनके पास इनके संरक्षण के उचित साधन नहीं हैं। ऐसे कई देशों में सतत संघर्ष का दौर चलता रहता है। ऐसे में उनकी वस्तुएं लौटाना, उनके खतरे को और बढ़ाने जैसा होगा। पश्चिमी देशों के संग्रहालयों में ये सुरक्षित रखे हुए हैं, तो दिक्कत क्या है?

➤ पश्चिमी देशों के संग्राहलयों में विभिन्न देशों की कला और संस्कृति का प्रदर्शन किया गया है। इसलिए कहा जा सकता है कि वो मानव जाति की साझी संस्कृति और लोगों की महानगरीय व्यवहारों को प्रदर्शित करते हैं।

कमजोर अंतरराष्ट्रीय कानूनों पर एक नजर डालें
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान यूरोप में सांस्कृतिक धरोहरों के बड़े पैमाने पर विनाश के बाद 1954 में हेग कन्वेंशन हुआ था जिसमें सशसत्र संघर्षों के दौरान सांस्कृतिक धरोहरों के संरक्षण को लेकर बातचीत हुई थी। इस सम्मेलन में सांस्कृतिक संपत्ति की परिभाषा के दायरे में हर व्यक्ति के सांस्कृतिक धरोहर के नजरिए से बेहद महत्वपूर्ण वस्तुओं को लाया गया है। ऐसी वस्तुओं में स्थापत्य कला की दृष्टि से महत्वपूर्ण स्मारकों से लेकर कलात्मक वस्तुएं शामिल हैं। हेग कन्वेंशन के प्रस्ताव पर दस्तखत करने वाले देश सांस्कृतिक संपत्तियों की सुरक्षा और सम्मान करने के दायित्व से बंधे हुए हैं।

उसके बाद 1970 में सांस्कृतिक संपत्तियों के अवैध आयात-निर्यात और उसके मालिकाना हक का अवैध हस्तांतरण के निषेध और रोक के साधनों पर यूनेस्को कन्वेंशन हुआ। इसमें कहा गया है कि अवैध लेन-देन या चोरी की गई सांस्कृतिक संपत्तियों को उनके असली हकदार को लौटाया जाए अगर उनके असली मालिकाना हक का सबूत पेश किया जाए।

हालांकि, जब सांस्कृतिक संपत्तियों का अवैध निर्यात बेतहाशा बढ़ने लगा तब 1995 में UNIDROIT कन्वेंशन बुलाया गया और उसमें कहा गया कि चोरी की गई या अवैध लेन-देन वाली सांस्कृतिक संपत्तियां उनके वास्तविक हकदार देशों को लौटाई जाएं। हालांकि, हक दावा ठोंकने के लिए एक समयसीमा तय की गई। यूनिड्रॉट ही नहीं, लगभग इन सभी अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में तैयार नियमों में समयसीमा की जिक्र है।

इन्हीं सम्मेलनों और अपने पूर्व उपनिवेशों के साथ दोस्ताना संबंधों के कारण फ्रांस ने 2017 में एक रिपोर्ट जारी की जिसमें पश्चिमी अफ्रीका पर आधिपत्य के दौरान कब्जे में ली गईं सांस्कृतिक महत्व की वस्तुओं को लौटाने की सिफारिश की गई। हालांकि, फ्रांस लौवरे म्यूजियम (Louvre Museum) में रखे गए मिस्र की कलाकृतियां लौटाने में आनाकानी कर रहा है।

इसी तरह, 2019 में नीदरलैंड स्थित विश्व संस्कृति के राष्ट्रीय संग्रहालय ने भी ‘औपनिवेशिक काल के दौरान चोरी की गई संपत्तियों’ के रूप में चिह्नित वस्तुओं को उसके असली हकदार को वापस करने की घोषणा की थी। अपने-अपने स्तर से इन देशों की पहल तो ठीक हैं, लेकिन इनसे काम बनेगा नहीं। अतीत में उपनिवेश कायम करने वाले देशों को अपनी पुरानी सोच की जड़ों मट्ठा डालना होगा। तब कहीं सांस्कृतिक महत्व की वस्तुओं को लौटाने की लंबी और पेचीदा प्रक्रिया शुरू हो पाएगी।

हमारा कानून बहुत कमजोर
एंटिक्विटीज एंड आर्ट ट्रेजरर एक्ट, 1972 की धारा 3 बहुमूल्य वस्तुओं और कलाकृतियों के निर्यात पर पाबंदी लगाती है। हालांकि, इसमें केंद्र सरकार को छूट दी गई है। लेकिन हैरत की बात यह है कि कानून तोड़कर निर्यात करने वाले को सिर्फ छह महीने से तीन साल तक सामान्य कारावास की सजा प्रावधान किया गया है। यानी, देश में सांस्कृतिक अपराध को सामान्य माना गया है। वहीं, मिस्र और चीन जैसे देशों में इसके लिए मौत की सजा का प्रावधान है। भारतीय कानून बिल्कुल निष्प्रभावी हैं, इसलिए उनका कोई खास मायने नहीं है।

इसलिए ये कदम तुरंत उठाने की जरूरत
➤ स्कूल-कॉलेजों के पाठ्यक्रमों में कला एवं संस्कृति को महत्वपूर्ण स्थान दें। अभी बच्चों को कुछ भी नहीं पता होता है कि द्रविड़ और नागरा स्टाइल की स्थापत्य कला में क्या अंतर है।

➤ कला एवं संस्कृति को संग्रहालयों और सभागारों की सीमाओं से निकालकर सार्वजनिक स्थलों पर प्रदर्शित करें।

➤ कलाकृतियों को वापस लाने के अभियान में जुटे इंडिया प्राइड प्रॉजेक्ट जैसे गैर-सरकारी संगठनों (NGOs) का साथ दें।

➤ स्थानीय, प्रदेश एवं राष्ट्रीय स्तर पर कलाकृतियों और ऐतिहासिक स्मारकों की बेहतरीन तस्वीरों के कैटलॉग बनाएं और उनकी जियोटैगिंग करें।

➤ आखिर में, कलाकृतियों की चोरी के अपराध के लिए ज्यादा सख्त कानून बनाएं और कठोर सजा का प्रावधान करें।

लेखक तेलंगाना और उत्तराखंड उच्च न्यायालयों के पूर्व मुख्य न्यायाधीश हैं।

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