तेरी शक्ति अपरिमित कितनी ?
अर्जुन बोला – हे मधुसूदन ! मैं कैसा देख रहा हूँ रूप ?
सारे देव एक साथ में बैठे और नतमस्तक बैठे हैं भूप।।
अनेक मुख, उदर और बाहु आदि चारों ओर दिखाई देते।
हे विश्वेश्वर ! विश्वरूप !! मुझे तेरे दिव्य रूप दिखाई देते।।
ना आदि कहीं ना मध्य कहीं, ना अंत कहीं दिखता मुझको।
मैं समझ नहीं पाता भगवन, यह जग कैसे लखता तुझको ?
मैं तुझे देखता हूँ ऐसा, जैसा ना पहले अब से देखा।
रूप तेरा अनोखा भगवन, इसका कौन बना सकता लेखा?
परम ज्ञेय, अविनाशी ब्रह्म और जगत के अन्तिम आधार !
आप सनातन धर्म के रक्षक, आप ही सनातन के आकार।।
सब दिशाओं में प्रकाश तेरा ही , सब लोकों का सृजनहार।
करें देवता भजन तेरा ही और तू ही सुनता उनकी पुकार ।।
भयभीत हूँ मैं तेरा रूप देखकर, लोक भी सारे कांप उठे।
तेरी शक्ति अपरिमित कितनी , हम सारे ऐसा भाँप चुके।।
मन की व्याकुलता बढ़ती जाती, होता जाता और अधीर।
तेरी दाढ़ों में घुसते जाते, संसार के जितने भर भी वीर।।
जैसे विनाश के लिए पतंगे – बढ़ते प्रदीप्त अग्नि की ओर।
लेकर मनोरथ विनाश का अपने, लोग बढ़ रहे तेरी ओर।।
मैं समझ नहीं पाया केशव ! है अद्भुत रूप वाला यह कौन ?
देखकर जिसका उग्र तेज , हो गईं दसों दिशाएं मौन।।
जग को समेटने में प्रवृत्त हो, आप करते जाते अपनी क्रिया।
तेरे काल रूप की देख उग्रता, मौन हुई मेरी प्रतिक्रिया।।
नमस्कार मैं तुमको करता और बारंबार अभिनंदन भी।
सब ओर से मेरा नमन तुम्हें , करूं नंदन भी और वंदन भी।।
यह गीत मेरी पुस्तक “गीता मेरे गीतों में” से लिया गया है। जो कि डायमंड पॉकेट बुक्स द्वारा प्रकाशित की गई है । पुस्तक का मूल्य ₹250 है। पुस्तक प्राप्ति के लिए मुक्त प्रकाशन से संपर्क किया जा सकता है। संपर्क सूत्र है – 98 1000 8004
डॉ राकेश कुमार आर्य
मुख्य संपादक, उगता भारत