दलित नेता जब बाबा साहब डाॅ अम्बेडकर पर भाषण देते है तब बड़ी धूर्तता से उस व्यक्ति का नाम ही नही लेते जिसने उन्हें “बाबा साहब भीमराव रामजी अम्बेडकर” बनाया |
महाराजा सयाजी गायकवाड़ ने उन्हें ब्रिटेन और अमेरिका पढने के लिए पूरा खर्चा दिया | यहाँ तक भी रहने का इंतजाम भी महाराजा ने किया था और तो और जब बाबा साहब डाॅ अम्बेडकर PHD करके वापस आये तो कोई भी उन्हें नौकरी नही दे रहा था, तब एक बार फिर महाराजा सयाजीराव गायकवाड़ ने उनका साथ दिया और उन्हें अपनी रियासत का महामंत्री नियुक्त किया और उस जमाने में उन्हें दस हजार रुपये महीने वेतन दिया जो आज दस करोड़ के बराबर है |
लेकिन गाँव गाँव जो तथाकथित अम्बेडकरवादी घूमते है वो दलितों को ये बात नही बताते | वो तो छोड़िए उनका पूरा नाम तक नहीं बताते।
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वड़ोदरा नरेश श्रीमान् महाराजा सयाजीराव गायकवाड़ [1863-1939 ई.] का प्रेरक वक्तव्य ●
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● जो धर्म समाज का हित करता है वह आदरणीय होता है।
● जहां बुद्वि का प्रमाण नहीं माना जाता उस धर्म को प्रजा मान्य नहीं करती।
● आज जिसे हम हिन्दू धर्म मानते हैं वह वस्तुतः हिन्दू धर्म नहीं।
● वैदिक काल में हमारे धर्म में मूर्त्तिपूजा नहीं थी।
● आत्म समर्पण बिना समाज सेवा नहीं होती।
● धर्म निमित्त हमारे देश में बहुत धन व्यय होता है, परन्तु उसका फल कुछ नहीं।
● ठीक पूछिये तो धर्माचार्य भी पुलिस की तरह प्रजा के नौकर हैं।
● शास्त्रों में बहुत-सी उत्तम बातें हैं, परन्तु बिना विचारे ‘बाबा वाक्यं प्रमाणं’ के न्यायानुसार नहीं चलना चाहिये।
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श्री पण्डित श्रीराम शर्मा द्वारा लिखित तथा श्री भगवद्दत्त शर्मा, कारेली बाग, बड़ौदा द्वारा [सम्भवतयाः 1915 ई. में] प्रकाशित हिन्दी पुस्तक ‘सयाजी चरितामृत’ के प्रथम संस्करण में पृ. 82 पर लिखा है –
“इसी [1911 ई.] वर्ष 26 फरवरी को आप [अर्थात् वड़ोदरा नरेश श्री महाराजा सयाजीराव गायकवाड़] बम्बई प्रान्त की आर्य धर्म परिषद् में परिषद् के सभ्यों के आग्रह पर पधारे और सभापति के आसन को ग्रहण कर एक महत्त्वपूर्ण, समयोचित, प्रभावशालिनी वक्तृता दी, जिसका उपस्थित जनों पर अकथनीय प्रभाव पड़ा। रणोली बड़ौदे के निकट ही राज्य का एक ग्राम है।”
इसी ‘सयाजी चरितामृत’ पुस्तक में आगे पृ. 158-161 पर वड़ोदरा नरेश श्री महाराजा सयाजीराव गायकवाड़ की उपर्युक्त वक्तृता के कतिपय निम्नलिखित अंश दिए गए हैं –
“जो धर्म मनुष्य समाज की स्थिति उच्चतम नहीं करता और अज्ञान नहीं हटाता वह धर्म जन समाज में कभी आदर नहीं पाता। जो धर्म समाज का हित करता है वह आदरणीय होता है। धर्म ईश्वर कृत है अथवा मनुष्य कृत इस विषय की चर्चा करना व्यर्थ है; कुछ भी हो, उसकी आवश्यकता महती है। किन्तु वह ऐसी वस्तु नहीं कि एकदम स्वेच्छानुसार बदल दी जाय। वह सैंकड़ों वर्षों का परिणाम है और उसके बदलने में भी सदियां हो जाती हैं। धर्म यह कुछ अपना वस्त्र नहीं जो हम इच्छानुसार उसको बदल लेवें और जैसा चाहें वैसा लें। मुझे कहना चाहिये कि अपना धर्म स्वीकार करने से प्रथम विचार करना चाहिये।
जहां बुद्धि का प्रमाण नहीं माना जाता उस धर्म को प्रजा मान्य नहीं करती। यहां मैं भिन्न भिन्न धर्मों के सारासार की तुलना नहीं करता। हिन्दू धर्म यह आज का विषय है, इसलिये इतना ही कहूँगा, आज जिसे हम हिन्दू धर्म मानते हैं वह वस्तुतः हिन्दू धर्म नहीं। आज का हमारा धर्म हमारे मूल वेद धर्म से विकृत होकर अनेक प्रकार से बदल गया है।
हम इस समय विकृत धर्म को वास्तविक धर्म मान रहे हैं, जिसका कारण हमारा अज्ञान ही है।
आर्य समाज मेरे विचार में वेदिज़म [Vedism] – वेद धर्म का अवलम्बन करने वाली संस्था है। मुझे कहना चाहिये कि वह वैदिक धर्म कालान्तर में अनेक प्रकार से विकृति को प्राप्त हुआ है, उस समय का धर्म उस समय के सांसारिक और राज्य के जीवन का यथार्थ चित्र खींचता है।
वैदिक काल में हमारे धर्म में मूर्त्तिपूजा नहीं थी। तथा पशुयज्ञादि कुछ क्रियायें नहीं थीं। पीछे से ब्राह्मणों ने यज्ञ में पशुओं का होम करना आरम्भ किया। धर्म के नाम पर पशु, प्राणी और कभी कभी मनुष्यों का भी वध होने लगा; और तदनुसार धर्म के निमित्त जीव हत्या प्रविष्ट हुई। बकरे, भैंसे आदि का वध करना देश सेवा और पुण्य समझा जाने लगा। ऐसी स्थिति कई सदियों तक रहने पर कुछ बुद्धिमान् लोगों में विचार जागृति हुई कि पशु प्राणियों के वध करने की अपेक्षा आत्म समर्पण में ही पुण्य है; आत्म समर्पण बिना समाज सेवा नहीं होती और समाज सेवा बिना वास्तविक उन्नति नहीं होती। सद्-वर्तन, शान्ति और इन विचारों का प्रचार करने के लिये महात्मा बुद्ध ने जन्म धारण किया। जिन्होंने बाह्य शुद्धि की अपेक्षा आन्तर्य [आन्तरिक] शुद्धि की आवश्यकता पर विशेष उपदेश देकर लोगों को सिद्धान्त पर चलाया और संसार की उन्नति के लिये भारी प्रयास किया। सज्जनो ! मुझे कहना चाहिये कि चाहे जैसे बड़े सुधार हो और उसके लिये बड़े बड़े कार्य किये जाये, परन्तु जब तक प्रजा के नेता और महान् नर उसके अनुमोदक और सहायक नहीं होते तब तक वह कार्य नहीं चल सकते। (हियर हियर [सुनिए-सुनिए] की ध्वनि) हमारे हिन्दू धर्म के सम्बन्ध में भी ऐसा ही हुआ। प्रजा को सहायता नहीं मिली और वह स्थिति फिर बदली; अज्ञानता और भ्रमों ने घर घेरना आरम्भ किया; उससे परिणाम क्या हुआ? हिन्द के चित्र की ओर ऐतिहासिक दृष्टि डालो। हिन्द में राजकीय द्वेष हुआ। धार्मिक अवनति हुई और सामाजिक स्थिति छिन्न भिन्न हो गई। प्रजा के बड़े भाग ने पुरुषार्थ खोया और नपुंसकों की तरह दैववादी हुए। प्रयत्न करने की शक्ति गई और कार्यसिद्धि के लिये ईश्वर की सहायता निमित्त नाम की भक्ति ओर मिथ्या निवृत्ति बढ़ी। ऐसी शोकजनक स्थिति हुई है। आपको जानना चाहिये कि ईश्वरीय नियम सदा एक से ही हैं। …
ईश्वरीय नियमानुसार वर्तन करना और जगत् के विकास में आगे बढ़ना हमारा कर्तव्य है (करतल ध्वनि) मैं जानता हूं कि हमारी शक्ति परिमित अर्थात् सीमा वाली है, परन्तु वह सीमा कहां तक है – यह कहना अति कठिन है। यदि बुद्धि और शक्ति की सीमा मानते होते तो वर्तमान जगत् सीनेमेटोग्राफ, वायुयान, बिना तार के तार आदि जो हमको आवश्यक मालूम होते हैं, वह साधन कहां से उत्पन्न होते? (करतल ध्वनि) यह सिद्ध कर सकते हैं कि मानवी शक्ति की सीमा नहीं। परिश्रम और बुद्धि से प्रत्येक मनुष्य कार्यसिद्धि कर सकता है। आप केवल हाथ जोड़ कर इच्छा और याचना करने की अपेक्षा दृढ़ श्रद्धा से निरन्तर यत्नशील रहेंगे तो अपनी स्थिति में बहुत सुधार और वृद्धि कर सकेंगे।
धर्म निमित्त हमारे देश में बहुत धन व्यय होता है, परन्तु उसका फल कुछ नहीं। कथा पुराण आदि हम लोग श्रद्धा से सुनते हैं, परन्तु Why and Wherefore अर्थात् ‘क्यों और किस लिये’ आदि प्रश्नों से स्वयं बुद्धि का उपयोग नहीं करते; यह शोक की बात है। हमारे धर्माचार्य और महन्त इस विषय पर क्यों न ध्यान दें? प्रजा की धार्मिक स्थिति पर दृष्टि डालना उनका कर्तव्य है; अतएव महन्त और पुजारी आदि धर्माचार्यों की स्थिति सुधारने के लिये मैंने अपने राज्य में धारा नियत की है। …ठीक पूछिये तो धर्माचार्य भी पुलिस की तरह प्रजा के नौकर हैं।”
दूसरी वक्तृता में श्री. महाराज ने अपने श्रीमुख से वर्णन किया –
“सज्जनो ! कितने ही ऐसा समझते होंगे कि महाराज विलायत हो आये हैं इसलिये सबको भ्रष्ट करने का विचार रखते हैं। (‘नहीं नहीं’ का शब्द) मैं कहूंगा कि – ‘मैं चुस्त हिन्दू हूं’ और हिन्दू धर्म के प्रति मेरा जितना वास्तविक अभिमान थोड़ों ही को होगा। (करतल ध्वनि) …आप जिन रीतियों को धर्म मानते हैं उन सबको मैं अन्ध श्रद्धा से मानने कि लिये तैयार नहीं। ईश्वर का पारितोषिक (Reason) विचार शक्ति छोड़ने के लिये मैं तैयार नहीं। अन्त में आपको यही बोध देता हूं कि शास्त्रों में बहुत-सी उत्तम बातें हैं, परन्तु बिना विचारे ‘बाबा वाक्यं प्रमाणं’ के न्यायानुसार नहीं चलना चाहिये।”
[संकलन एवं प्रस्तुति : भावेश मेरजा]
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