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इतिहास के पन्नों से

प्राचीन भारत के अस्त्र शस्त्र


प्राचीन भारतवर्ष के आर्यपुरुष अस्त्र-शस्त्र विद्या में निपुण थे। उन्होंने अध्यात्म-ज्ञान के साथ- साथ आततियों और दुष्टों के दमन के लिये सभी अस्त्र-शस्त्रों की भी सृष्टि की थी। आर्यों की यह शक्ति धर्म-स्थापना में सहायक होती थी। प्राचीन काल में जिन अस्त्र-शस्त्रों का उपयोग होता था, उनका वर्णन इस प्रकार है…

अस्त्र उसे कहते हैं, जिसे मन्त्रों के द्वारा दूरी से फेंकते हैं। वे अग्नि, गैस और विद्युत तथा यान्त्रिक उपायों से चलते हैं। शस्त्र ख़तरनाक हथियार हैं, जिनके प्रहार से चोट पहुँचती है और मृत्यु होती है। ये हथियार अधिक उपयोग किये जाते हैं।

वैदिक काल में अस्त्रशस्त्रों का वर्गीकरण इस प्रकार था:

1. अमुक्ता: वे शस्त्र जो फेंके नहीं जाते थे।
2. मुक्ता: वे शस्त्र जो फेंके जाते थे। इनके भी दो प्रकार थे: पाणिमुक्ता, अर्थात् हाथ से फेंके जानेवाले और यंत्रमुक्ता, अर्थात् यंत्र द्वारा फेंके जानेवाले।
3. मुक्तामुक्त: वह शस्त्र जो फेंककर या बिना फेंके दोनों प्रकार से प्रयोग किए जाते थे।
4. मुक्तसंनिवृत्ती: वे शस्त्र जो फेंककर लौटाए जा सकते थे।

अस्त्रों के विभाग…

अस्त्रों को दो विभागों में बाँटा गया है:-

1. वे आयुध जो मन्त्रों से चलाये जाते हैं, ये दैवी हैं। प्रत्येक शस्त्र पर भिन्न-भिन्न देव या देवी का अधिकार होता है और मन्त्र-तन्त्र के द्वारा उसका संचालन होता है। वस्तुत: इन्हें दिव्य तथा मान्त्रिक-अस्त्र कहते हैं। इन बाणों के कुछ रूप इस प्रकार हैं…

आग्नेय यह विस्फोटक अस्त्र है। यह जल के समान अग्नि बरसाकर सब कुछ भस्मीभूत कर देता है। इसका प्रतिकार पर्जन्य है।…

वायव्य इस अस्त्र से भयंकर तूफान आता है और अन्धकार छा जाता है।

पन्नग इससे सर्प पैदा होते हैं। इसके प्रतिकार स्वरूप गरुड़ अस्त्र छोड़ा जाता है।

गरुड़ इस बाण के चलते ही गरुड़ उत्पन्न होते है, जो सर्पों को खा जाते हैं।

ब्रह्मास्त्र यह अचूक विकराल अस्त्र है। शत्रु का नाश करके छोड़ता है। इसका प्रतिकार दूसरे ब्रह्मास्त्र से ही हो सकता है, अन्यथा नहीं।

पाशुपतास्त्र इससे विश्व नाश हो जाता हैं यह बाण महाभारतकाल में केवल अर्जुन के पास था।

नारायणास्त्र यह भी पाशुपत के समान विकराल अस्त्र है। इस नारायण-अस्त्र का कोई प्रतिकार ही नहीं है। यह बाण चलाने पर अखिल विश्व में कोई शक्ति इसका मुक़ाबला नहीं कर सकती। इसका केवल एक ही प्रतिकार है और वह यह है कि शत्रु अस्त्र छोड़कर नम्रतापूर्वक अपने को अर्पित कर दे। कहीं भी हो, यह बाण वहाँ जाकर ही भेद करता है। इस बाण के सामने झुक जाने पर यह अपना प्रभाव नहीं करता। इन दैवी बाणों के अतिरिक्त ब्रह्मशिरा और एकाग्नि आदि बाण है।

2. वे शस्त्र हैं, जो यान्त्रिक उपाय से फेंके जाते हैं; ये अस्त्रनलिका आदि हैं। नाना प्रकार के अस्त्र इसके अन्तर्गत आते हैं। अग्नि, गैस, विद्युत से भी ये अस्त्र छोड़े जाते हैं। इन अस्त्रों के लिये देवी और देवताओं की आवश्यकता नहीं पड़ती। ये भयकंर अस्त्र हैं और स्वयं ही अग्नि, गैस या विद्युत आदि से चलते हैं। नीचे कुछ अस्त्र-शस्त्रों का वर्णन किया गया है, जिनका प्राचीन संस्कृत-ग्रन्थों में उल्लेख है।

शक्ति यह लंबाई में गजभर होती है, उसका हैंडल बड़ा होता है, उसका मुँह सिंह के समान होता है और उसमें बड़ी तेज जीभ और पंजे होते हैं। उसका रंग नीला होता है और उसमें छोटी- छोटी घंटियाँ लगी होती हैं। यह बड़ी भारी होती है और दोनों हाथों से फेंकी जाती है।

तोमर यह लोहे का बना होता है। यह बाण की शकल में होता है और इसमें लोहे का मुँह बना होता है साँप की तरह इसका रूप होता है। इसका धड़ लकड़ी का होता है। नीचे की तरफ पंख लगाये जाते हैं, जिससे वह आसानी से उड़ सके। यह प्राय: डेढ़ गज लंबा होता है। इसका रंग लाल होता है।

पाश ये दो प्रकार के होते हैं, वरुणपाश और साधारण पाश; इस्पात के महीन तारों को बटकर ये बनाये जाते हैं। एक सिर त्रिकोणवत होता है। नीचे जस्ते की गोलियाँ लगी होती हैं। कहीं-कहीं इसका दूसरा वर्णन भी है। वहाँ लिखा है कि वह पाँच गज का होता है और सन, रुई, घास या चमड़े के तार से बनता है। इन तारों को बटकर इसे बनाते हैं।

ऋष्टि यह सर्वसाधारण का शस्त्र है, पर यह बहुत प्राचीन है। कोई-कोई उसे तलवार का भी रूप बताते हैं।

गदा इसका हाथ पतला और नीचे का हिस्सा वजनदार होता है। इसकी लंबाई ज़मीन से छाती तक होती है। इसका वजन बीस मन तक होता है।

मुद्गर इसे साधारणतया एक हाथ से उठाते हैं। कहीं यह बताया गया है कि वह हथौड़े के समान भी होता है। चक्र दूर से फेंका जाता है।

वज्र कुलिश तथा अशानि-इसके ऊपर के तीन भाग तिरछे- टेढ़े बने होते हैं। बीच का हिस्सा पतला होता है। पर हाथ बड़ा वजनदार होता है।

त्रिशूल इसके तीन सिर होते हैं। इसके दो रूप होते हैं। शूल इसका एक सिर नुकीला, तेज होता है। शरीर में भेद करते ही प्राण उड़ जाते हैं।

असि तलवार को कहते हैं। यह शस्त्र किसी रूप में पिछले काल तक उपयोग होता रहा था।

खड्ग बलिदान का शस्त्र है। दुर्गाचण्डी के सामने विराजमान रहता है।

चन्द्रहास टेढ़ी तलवार के समान वक्र कृपाण है।

फरसा यह कुल्हाड़ा है। पर यह युद्ध का आयुध है। इसकी दो शक्लें हैं।

मुशल यह गदा के सदृश होता है, जो दूर से फेंका जाता है।

धनुष इसका उपयोग बाण चलाने के लिये होता है।

बाण सायक, शर और तीर आदि भिन्न-भिन्न नाम हैं ये बाण भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं। हमने ऊपर कई बाणों का वर्णन किया है। उनके गुण और कर्म भिन्न-भिन्न हैं। परिघ में एक लोहे की मूठ है। दूसरे रूप में यह लोहे की छड़ी भी होती है और तीसरे रूप के सिरे पर वजनदार मुँह बना होता है।

भिन्दिपाल लोहे का बना होता है। इसे हाथ से फेंकते हैं। इसके भीतर से भी बाण फेंकते हैं। नाराच एक प्रकार का बाण है।

परशु यह छुरे के समान होता है। भगवान परशुराम के पास अक्सर रहता था। इसके नीचे लोहे का एक चौकोर मुँह लगा होता है। यह दो गज लंबा होता है।

कुण्टा इसका ऊपरी हिस्सा हल के समान होता है। इसके बीच की लंबाई पाँच गज की होती है।

शंकु बर्छी भाला है।

पट्टिश एक प्रकार की तलवार है जो कि लोहे की पतली पट्टियों वाला होता है।

इसके सिवा वशि तलवार या कुल्हाड़ा के रूप में होती है। इन अस्त्रों के अतिरिक्त भुशुण्डी आदि अन्य अनेक अस्त्रों का वर्णन विभिन्न ग्रंथों में मिलता है।

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