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इतिहास के पन्नों से

हमारे देश का नाम भारत कैसे पड़ा ?

अजित वडनेरकर

देश का नाम बदलने पर बहस छिड़ी है, संविधान में दर्ज ‘इंडिया दैट इज़ भारत’ को बदलकर केवल भारत करने की माँग उठ रही है. इस बारे में एक याचिका भी सुप्रीम कोर्ट में दाख़िल हुई जिसपर बुधवार को अदालत ने सुनवाई की।

याचिकाकर्ता की माँग थी कि इंडिया ग्रीक शब्द इंडिका से आया है और इस नाम को हटाया जाना चाहिए. याचिकाकर्ता ने अदालत से अपील की थी कि वो केंद्र सरकार को निर्देश दे कि संविधान के अनुच्छेद-1 में बदलाव कर देश का नाम केवल भारत करे।

सुप्रीम कोर्ट के चीफ़ जस्टिस एसए बोबडे की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय बेंच ने याचिका को ख़ारिज करते हुए इस मामले में दख़ल देने से इनकार कर दिया. अदालत ने कहा कि संविधान में पहले से ही भारत का ज़िक्र है। संविधान में लिखा है।

सर्वोच्च अदालत ने कहा कि इस याचिका को संबंधित मंत्रालय में भेजा जाना चाहिए और याचिकाकर्ता सरकार के सामने अपनी माँग रख सकते हैं.यह कोई नई बात नहीं है कई देश अपना नाम बदल चुके हैं. आइए जानते हैं कि भारत को कितने अलग-अलग नामों से जाना जाता रहा है और उनके पीछे की कहानी क्या है।

प्राचीनकाल से भारतभूमि के अलग-अलग नाम रहे हैं मसलन जम्बूद्वीप, भारतखण्ड, हिमवर्ष, अजनाभवर्ष, भारतवर्ष, आर्यावर्त, हिन्द, हिन्दुस्तान और इंडिया।

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नामकरण को लेकर सबसे ज़्यादा धारणाएँ एवं मतभेद भी भारत को लेकर ही है।भारत की वैविध्यपूर्ण संस्कृति की तरह ही अलग-अलग कालखण्डों में इसके अलग-अलग नाम भी मिलते हैं।

इन नामों में कभी भूगोल उभर कर आता है तो कभी जातीय चेतना और कभी संस्कार।

हिन्द, हिन्दुस्तान, इंडिया जैसे नामों में भूगोल उभर रहा है। इन नामों के मूल में यूँ तो सिन्धु नदी प्रमुखता से नज़र आ रही है, मगर सिन्धु सिर्फ़ एक क्षेत्र विशेष की नदी भर नहीं है।

सिन्धु का अर्थ नदी भी है और सागर भी।उस रूप में देश के उत्तर पश्चिमी क्षेत्र को किसी ज़माने में सप्तसिन्धु या पंजाब कहते थे तो इसमें एक विशाल उपजाऊ इलाक़े को वहाँ बहने वाली सात अथवा पाँच प्रमुख धाराओं से पहचानने की बात ही तो है।

इसी तरह भारत नाम के पीछे सप्तसैन्धव क्षेत्र में पनपी अग्निहोत्र संस्कृति (अग्नि में आहुति देना) की पहचान।

पौराणिक युग में भरत नाम के अनेक व्यक्ति हुए हैं. दुष्यन्तसुत के अलावा दशरथपुत्र भरत भी प्रसिद्ध हैं जिन्होंने खड़ाऊँ राज किया।

नाट्यशास्त्र वाले भरतमुनि भी हुए हैं। एक राजर्षी भरत का भी उल्लेख है जिनके नाम पर जड़भरत मुहावरा ही प्रसिद्ध हो गया।

मगधराज इन्द्रद्युम्न के दरबार में भी एक भरत ऋषि थे। एक योगी भरत हुए हैं।पद्मपुराण में एक दुराचारी ब्राह्मण भरत का उल्लेख बताया जाता है।

ऐतरेय ब्राह्मण में भी दुष्यन्तपुत्र भरत ही भारत नामकरण के पीछे खड़े दिखते हैं। ग्रन्थ के अनुसार भरत एक चक्रवर्ती सम्राट यानी चारों दिशाओं की भूमि का अधिग्रहण कर विशाल साम्राज्य का निर्माण कर अश्वमेध यज्ञ किया जिसके चलते उनके राज्य को भारतवर्ष नाम मिला।

इसी तरह मत्स्यपुराण में उल्लेख है कि मनु को प्रजा को जन्म देने वाले वर और उसका भरण-पोषण करने के कारण भरत कहा गया।जिस खण्ड पर उसका शासन-वास था उसे भारतवर्ष कहा गया

नामकरण के सूत्र जैन परम्परा तक में मिलते हैं।भगवान ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र महायोगी भरत के नाम पर इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा। संस्कृत में वर्ष का एक अर्थ इलाक़ा, बँटवारा, हिस्सा आदि भी होता है।

आमतौर पर भारत नाम के पीछे महाभारत के आदिपर्व में आई एक कथा है।महर्षि विश्वामित्र और अप्सरा मेनका की बेटी शकुन्तला और पुरुवंशी राजा दुष्यन्त के बीच गान्धर्व विवाह होता है।इन दोनों के पुत्र का नाम भरत हुआ।

ऋषि कण्व ने आशीर्वाद दिया कि भरत आगे चलकर चक्रवर्ती सम्राट बनेंगे और उनके नाम पर इस भूखण्ड का नाम भारत प्रसिद्ध होगा।

अधिकांश लोगों के दिमाग़ में भारत नाम की उत्पत्ति की यही प्रेमकथा लोकप्रिय है। आदिपर्व में आए इस प्रसंग पर कालिदास ने अभिज्ञानशाकुन्तलम् नामक महाकाव्य रचा। मूलतः यह प्रेमाख्यान है और माना जाता है कि इसी वजह से यह कथा लोकप्रिय हुई।

दो प्रेमियों के अमर प्रेम की कहानी इतनी महत्वपूर्ण हुई कि इस महादेश के नामकरण का निमित्त बने शकुन्तला-दुष्यन्तपुत्र यानी महाप्रतापी भरत के बारे में अन्य बातें जानने को नहीं मिलतीं।

इतिहास के अध्येताओं का आमतौर पर मानना है कि भरतजन इस देश में दुष्यन्तपुत्र भरत से भी पहले से थे।इसलिए यह तार्किक है कि भारत का नाम किसी व्यक्ति विशेष के नाम पर न होकर जाति-समूह के नाम पर प्रचलित हुआ।

भरतजन अग्निपूजक, अग्निहोत्र व यज्ञप्रिय थे।वैदिकी में भरत / भरथ का अर्थ अग्नि, लोकपाल या विश्वरक्षक (मोनियर विलियम्स) और एक राजा का नाम है।

यह राजा वही ‘भरत’ है जो सरस्वती, घग्घर के किनारों पर राज करता था. संस्कृत में ‘भर’ शब्द का एक अर्थ है युद्ध।

दूसरा है ‘समूह’ या ‘जन-गण’ और तीसरा अर्थ है ‘भरण-पोषण’।

जानेमाने भाषाविद डॉ. रामविलास शर्मा कहते हैं – “ये अर्थ एक दूसरे से भिन्न व परस्पर विरोधी जान पड़ते हैं।अतः भर का अर्थ युद्ध और भरण-पोषण दोनों हो तो यह इस शब्द की अपनी विशेषता नहीं है। ‘भर’ का मूलार्थ गण यानी जन ही था। गण के समान वह किसी भी जन के लिए प्रयुक्त हो सकता था। साथ ही वह उस गण विशेष का भी सूचक था जो ‘भरत’ नाम से विख्यात हुआ”।

इसका क्या अर्थ हुआ?

दरअसल भरतजनों का वृतान्त आर्य इतिहास में इतना प्राचीन और दूर से चला आता है कि कभी युद्ध, अग्नि, संघ जैसे आशयों से सम्बद्ध ‘भरत’ का अर्थ सिमट कर महज़ एक संज्ञा भर रह गया जिससे कभी ‘दाशरथेय भरत’ को सम्बद्ध किया जाता है तो कभी भारत की व्युत्पत्ति के सन्दर्भ में दुष्यन्तपुत्र भरत को याद किया जाता है।

‘भारती’ और ‘सरस्वती’ का भरतों से रिश्ता

किन्तु हज़ारों साल पहले अग्निप्रिय भरतजनों की शुचिता और सदाचार इस तरह बढ़ा चढ़ा था कि निरन्तर यज्ञकर्म में करते रहने से भरत और अग्नि शब्द एक दूसरे से सम्प्रक्त हो गए।

भरत, भारत शब्द मानों अग्नि का विशेषण बन गए।

सन्दर्भ बताते हैं कि देवश्रवा और देववात इन दो भरतों यानी भरतजन के दो ऋषियों ने ही मन्थन के द्वारा अग्नि प्रज्वलन की तकनीक खोज निकाली थी।

डॉ रामविलास शर्मा के मुताबिक़ ऋग्वेद के कवि भरतों के अग्नि से सम्बन्ध की इतिहास परम्परा के प्रति सचेत हैं।

भरतों से निरन्तर संसर्ग के कारण अग्नि को भारत कहा गया।इसी तरह यज्ञ में निरन्तर काव्यपाठ के कारण कवियों की वाणी को भारती कहा गया।

यह काव्यपाठ सरस्वती के तट पर होता था इसलिए यह नाम भी कवियों की वाणी से सम्बद्ध हुआ।

अनेक वैदिक मन्त्रों में भारती और सरस्वती का उल्लेख आता है।

दाशराज्ञ युद्ध या दस राजाओं की जंग

प्राचीन ग्रन्धों में वैदिक युगीन एक प्रसिद्ध जाति भरत का नाम अनेक सन्दर्भों में आता है। यह सरस्वती नदी या आज के घग्घर के कछार में बसने वाला समूह था। ये यज्ञप्रिय अग्निहोत्र जन थे।

इन्हीं भरत जन के नाम से उस समय के समूचे भूखण्ड का नाम भारतवर्ष हुआ। विद्वानों के मुताबिक़ भरत जाति के मुखिया सुदास थे।

वैदिक युग से भी पहले पश्चिमोत्तर भारत में निवास करने वाले जनों के अनेक संघ थे। इन्हें जन कहते थे।

इस तरह भरतों के इस संघ को भरत जन नाम से जाना जाता था। बाक़ी अन्य आर्यसंघ भी अनेक जन में विभाजित था इनमें पुरु, यदु, तुर्वसु, तृत्सु, अनु, द्रुह्यु, गान्धार, विषाणिन, पक्थ, केकय, शिव, अलिन, भलान, त्रित्सु और संजय आदि समूह भी जन थे।

इन्ही जनों में दस जनों से सुदास और उनके तृत्सु क़बीले का युद्ध हुआ था।

सुदास के तृत्सु क़बीले के विरुद्ध दस प्रमुख जातियों के गण या जन लड़ रहे थे इनमें पंचजन (जिसे अविभाजित पंजाब समझा जाए) यानी पुरु, यदु, तुर्वसु, अनु और द्रुह्यु के अलावा भालानस (बोलान दर्रा इलाक़), अलिन (काफ़िरिस्तान), शिव (सिन्ध), पक्थ (पश्तून) और विषाणिनी क़बीले शामिल थे।

महाभारत से ढाई हज़ार साल पहले ‘भारत’

इस महायुद्ध को महाभारत से भी ढाई हज़ार वर्ष पूर्व हुआ बताया जाता है।साधारण सी बात है कि वह युद्ध जिसका नाम ही महा’भारत’ है कब हुआ होगा?

इतिहासकारों के मुताबिक़ ईसा से क़रीब ढाई हज़ार साल पहले कौरवों-पाण्डवों के बीच महासमर हुआ था।

एक गृहकलह जो महासमर में बदल गयी यह तो ठीक है, पर इस देश का नाम भारत है और दो कुटुम्बों की कलह की निर्णायक लड़ाई में देश का नाम क्यों आया।

इसकी वजह यह कि इस युद्ध में भारत की भौगोलिक सीमा में आने वाले लगभग सभी साम्राज्यों ने हिस्सा लिया था इसलिए इसे महाभारत कहते हैं।

दाशराज्ञ युद्ध इससे भी ढाई हज़ार साल पहले हुआ बताया जाता है। यानी आज से साढ़े सात हज़ार साल पहले।

इसमें तृत्सु जाति के लोगों ने दस राज्यों के संघ पर अभूतपूर्व विजय प्राप्त की। तृत्सु जनों को भरतों का संघ कहा जाता था। इस युद्ध से पहले यह क्षेत्र अनेक नामों से प्रसिद्ध था।

इस विजय के बाद तत्कालीन आर्यावर्त में भरत जनों का वर्चस्व बढ़ा और तत्कालीन जनपदों के महासंघ का नाम भारत हुआ अर्थात भरतों का।

भारत-ईरान संस्कृति

स्पष्ट है कि महाभारत में उल्लेखित शकुन्तलापुत्र महाप्रतापी भरत का उल्लेख एक रोचक प्रसंग है।

अब बात करते हैं हिन्द, हिन्दुस्तान की। ईरानी-हिन्दुस्तानी पुराने सम्बन्धी थे। ईरान पहले फ़ारस था। उससे भी पहले अर्यनम, आर्या अथवा आर्यान. अवेस्ता में इन नामों का उल्लेख है।

माना जाता है कि हिन्दूकुश के पार जो आर्य थे उनका संघ ईरान कहलाया और पूरब में जो थे उनका संघ आर्यावर्त कहलाया। ये दोनों समूह महान थे। प्रभावशाली थे।

दरअसल भारत का नाम सुदूर पश्चिम तक तो ख़ुद ईरानियों ने ही पहुँचाया था।

कुर्द सीमा पर बेहिस्तून शिलालेख पर उत्कीर्ण हिन्दुश शब्द इसकी गवाही देता है।

फ़ारसियों ने अरबी भी सीखी, मगर अपने अंदाज़ में

एक ज़माने में अग्निपूजक ज़रस्थ्रूतियों का ऐसा ज़हूरा था वहाँ इस्लाम का आविर्भाव भी नहीं हो पाता। ये बातें तो इस्लाम से भी सदियों पहले और इसा मसीह से भी चार सदी पहले की हैं।

संस्कृत-अवेस्ता में गर्भनाल का रिश्ता है। हिन्दुकुश-बामियान के इस पार यज्ञ होता तो उस पार यश्न,अर्यमन, अथर्वन, होम, सोम, हवन जैसी समानअर्थी पदावलियाँ यहाँ भी थीं, वहाँ भी।

फ़ारस, फ़ारसी, फ़ारसियों के ग्राह्य होने का दायरा यहीं तक नहीं रहा, इस्लाम के दायरे में भी सनातनता का यह सौहार्द दिखता है ।

हिन्द, हिन्दश, हिन्दवान

हिन्दुश शब्द तो ईसा से भी दो हज़ार साल पहले अक्कादी सभ्यता में था।अक्कद, सुमेर, मिस्र सब से भारत के रिश्ते थे। ये हड़प्पा दौर की बात है।

सिन्ध सिर्फ़ नदी नहीं सागर, धारा और जल का पर्याय था।सिन्ध का सात नदियों वाले प्रसिद्ध ‘सप्तसिन्ध’, ‘सप्तसिन्धु’ क्षेत्र को प्राचीन फ़ारसी में ‘हफ़्तहिन्दू’ कहा जाता था।

क्या इस ‘हिन्दू’ का कुछ और अर्थ है?

ज़ाहिर है, हिन्द, हिन्दू, हिन्दवान, हिन्दुश जैसी अनेक संज्ञाएँ अत्यन्त प्राचीन हैं।

इंडस इसी हिन्दश का ग्रीक समरूप है।यह इस्लाम से भी सदियों पहले की बातें है।

ग्रीक में भारत के लिए India अथवा सिन्धु के लिए Indus शब्दों का प्रयोग दरअसल इस बात का प्रमाण है कि हिन्द अत्यन्त प्राचीन शब्द है और भारत की पहचान हैं. संस्कृत का ‘स्थान’ फ़ारसी में ‘स्तान’ हो जाता है।

इस तरह हिन्द के साथ जुड़ कर हिन्दुस्तान बना। आशय जहाँ हिन्दी लोग रहते हैं। हिन्दू बसते हैं।

भारत-यूरोपीय भाषाओं में ‘ह’ का रूपान्तर ‘अ’ हो जाता है. ‘स’ का ‘अ’ नहीं होता।

मेसोपोटामियाई संस्कृतियों से हिन्दुओं का ही सम्पर्क था।हिन्दू दरअसल ग्रीक इंडस, अरब, अक्काद, पर्शियन सम्बन्धों का परिणाम है।

हम हैं ‘भारतवासी’

‘इंडिका’ का प्रयोग मेगास्थनीज़ ने किया। वह लम्बे समय तक पाटलीपुत्र में भी रहा मगर वहाँ पहुँचने से पूर्व बख़्त्र, बाख्त्री (बैक्ट्रिया), गान्धार, तक्षशिला (टेक्सला) इलाक़ों से गुज़रा।

यहाँ हिन्द, हिन्दवान, हिन्दू जैसे शब्द प्रचलित थे।

उसने ग्रीक स्वरतन्त्र के अनुरूप इनके इंडस, इंडिया जैसे रूप ग्रहण किए। यह ईसा से तीन सदी और मोहम्मद से 10 सदी पहले पहले की बात है।

जहाँ तक जम्बुद्वीप की बात है यह सबसे पुराना नाम है। आज के भारत, आर्यावर्त, भारतवर्ष से भी बड़ा।

परन्तु ये तमाम विवरण बहुत विस्तार भी माँगते हैं और इन पर अभी गहन शोध चल रहे हैं।

जामुन फल को संस्कृत में ‘जम्बु’ कहा जाता है।अनेक उल्लेख हैं कि इस केन्द्रीय भूमि पर यानी आज के भारत में किसी काल में जामुन के पेड़ों की बहुलता थी। इसी वजह से इसे जम्बु द्वीप कहा गया।

जो भी हो, हमारी चेतना जम्बूद्वीप के साथ नहीं, भारत नाम से जुड़ी है।’भरत’ संज्ञा की सभी परतों में भारत होने की कथा खुदी हुई है।

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