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बिखरे मोती

पुण्यात्मा का मन सदा, हरि में रूचि दिखाय

बिखरे मोती-भाग 101

धन के संग में धर्म भी,
ज्यों-ज्यों बढ़ता जाए।
मन हटै संसार से,
प्रभु चरणों में लगाय ।। 938 ।।
व्याख्या :-
इस नश्वर संसार में मनुष्य की धन दौलत जैसे-जैसे बढ़ती जाती है, यदि उसी अनुपात में दान पुण्य अथवा भक्ति और धर्म के कार्यों में रूचि बढ़ती है, तो मन सिकुडऩे लगता है अर्थात मन में संसार की आसक्ति घटती चली जाती है। व्यक्ति का मन बहिर्मुखी न रहकर अंर्तमुखी हो-हो जाता है और प्रभु चरणों में लग जाता है।
धन बढ़ै और धर्म घटै,
तो मन होय सवाय।
विरत करै हरि नाम से,
मोह माया में फंसाय ।। 939 ।।
व्याख्या :-
यदि इस संसार में मनुष्य के धन में अभिवृद्घि हो रही हो, किंतु व्यावहारिक जीवन में नैतिक मूल्यों का पतन हो रहा हो, धर्म का हृास हो रहा हो तो मन दिनों दिन सवाया बढ़ता चला जाता है, जिसका दूरगामी परिणाम यह होता है कि मन पर विवेक अथवा बुद्घि की लगाम नही रहती है। ऐसी स्थिति में आत्मा मोह माया के भंवर में फंस कर पापाचरण करने लगती है, तथा प्रभु सिमरन और सत्कर्म से वंचित हो जाती है। अत: सर्वदा याद रखो, धनवान होने के साथ-साथ धर्मवान भी बनो।
पुण्यात्मा का मन सदा,
हरि में रूचि दिखाय।
पापात्मा का मन सदा,
सिमरन से भटकाय ।। 940 ।।
व्याख्या :-
इस संसार में जो लोग पुण्यात्माएं उनकी विशेष पहचान यह है कि वे सर्वदा प्रभु चर्चा और सत्कर्मों-पुण्यों में रूचि रखते हैं, जबकि पापात्माओं की पहचान यह है कि वे सिमरन और सत्कर्म में स्वयं तो रूचि लेते नही हैं तथा दूसरों को भी भटकाते रहते हैं।
जीव ब्रह्मा के बीच में,
जड़ता की दीवार।
जड़ता का पर्दा हटै,
तो प्रभु का हो दीदार ।। 941 ।।
व्याख्या :-
इस संसार में जीव, ब्रह्मा, प्रकृति तीनों अनादि हैं। विडंबना यह है कि जीव और ब्रह्मा के बीच में प्रकृति अर्थात माया की, जड़ता की बहुत बड़ी दीवार है। जड़ता से अभिप्राय है-अज्ञान, अविद्या, अहंकार इत्यादि। ध्यान रहे जो जितना जड़ता में रहता है, वह उतना ही चैतन्य बृह्मा से दूर रहता है। काश! यह जड़ता का पर्दा हट जाए तो जन्म-जन्मांतरों से भटकती हुई आत्मा का प्रभु से साक्षात्कार हो जाए। विवेकशील व्यक्ति को इस पर गंभीरता से चिंतन करना चाहिए।
अंत:करण पवित्र कर,
साधनाधाम शरीर।
वाहन है हरिधाम का,
कब जागेगी जमीर ।। 942 ।।
व्याख्या :-
अधिकांशत: लोग यह कहते हैं-”यह शरीर तो मिट्टी का ढेर है। उनकी इस अबोधावस्था पर हंसी भी आती है और तरस भी। हमारे ऋषियों ने तो इसे वेद और उपनिषद में ऋषिभूमि कहा, देवपुरी और ब्रह्मापुरी तक कहा है। चौरासी लाख योनियों में केवल मानव शरीर ही ऐसा है जिसमें परमात्मा के दर्शन होते हैं।
क्रमश:

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