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यदि बहानी प्रेम की गंगा

कविता  –  28

मजहब ही  सिखाता है आपस में बैर रखना,
‘अपनों’ से प्यार करना , ‘गैरों’ को दूर रखना।
मजहब की तंगबस्ती में जाना जरा संभल के,
जमीरें कर गईं रुखसत ,यहाँ पसरा है सन्नाटा।।

जो दीवाने हैं मजहब के और गाते हैं मस्ती में,
मजहब प्यार देता है और जलाता दीप बस्ती में।
वही कभी लाश गिनते हैं कितने भेजे दोजख में ?
लाशें बिछती सड़कों पर इनके  पहरे  गश्ती में ।।

जब तक कि सारी दुनिया न इस्लाम में रंगेगी,
जब तक कि सारे जग में ना कुरान की चलेगी।
मारकाट का सिलसिला तब तक यूँ ही चलेगा,
हैवानियत की आग में यह दुनिया यूं ही जलेगी।।

कानून जो हमारा हमको है वो वही  प्यारा,
उसके सिवा न हमको कुछ भी है गवारा ।
हम कुरआन को खुदाई इल्हाम मानते हैं,
शरीयत को मानते हैं दुनिया में सबसे न्यारा।।

संस्कृत ने ही जग में बहायी ज्ञान गंगा ,
‘किताब’ ने चलाया यहां फसाद और दंगा ।
किताबी फितरत को मजहब ने मोल लेकर ,
दुनिया को अपनी अपनी रंगत से है रंगा।।

मजहब ही है दुश्मन मजहब ही है कातिल,
इंसाफ का लुटेरा ढहाता अमनोचैन की मंजिल।
जहालत है इसके यहां सुकून के फूल खोजना,
चमन में आग लगाता है नहीं सम्मान के काबिल।।

यदि बहानी प्रेम की गंगा दिलों में प्रेम का सागर,
मजहबी सोच से उबरो, बढ़ा दो प्रेम की गागर।
इंसान का इंसान से , दिलों का जोड़  दो  रिश्ता,
‘राकेश’ जानता है खुदा सब सबके दिलों में रहकर।।

यह कविता मेरी अपनी पुस्तक ‘मेरी इक्यावन कविताएं’-  से ली गई है जो कि अभी हाल ही में साहित्यागार जयपुर से प्रकाशित हुई है। इसका मूल्य ₹250 है)

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

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