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आज का चिंतन

चार वेदों का काव्यार्थ कर रहे आर्यकवि वीरेन्द्र राजपूत जी की दो निजी कवितायें

चार वेदों पर काव्यार्थ लिख रहे आर्य वेद-कवि श्री वीरेन्द्र कुमार राजपूत, देहरादून की दो निजी कवितायें प्रस्तुत हैं। यह कवितायें उन्होंने कुछ अन्य कविताओं के साथ अपनी निजी डायरी में लिखी हुई हैं। वह हमसे प्यार करते हैं। इसी कारण उन्होंने हमें वह कवितायें दिखाईं व सुनाईं भी। हमें ये कवितायें अच्छी लगीं। अतः इन्हें हम अपने मित्रों के लाभार्थ प्रस्तुत कर रहे हैं। यह भी बता दें कि श्री राजपूत जी अपनी धर्मपत्नी माता सुशीला देवी जी के साथ देहरादून में अपनी पुत्री व जामाता के निवास पर रहते हैं। माता जी पैरों में रोग व दुर्बलता के कारण खड़ी नहीं हो सकती हैं। उनके सभी कार्य राजपूत जी करते हैं। शेष समय में वह परमात्मा की आज्ञा के अनुसार वेदों पर काव्यार्थ लिखने का कार्य करते हैं। उनके द्वारा लिखित तीन वेद यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद पर काव्यार्थ अनेक खण्डों में प्रकाशित हो चुके हैं। उनका किया हुआ ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के एक हजार से अधिक मन्त्रो ंपर काव्यार्थ भी आर्यावत्र्त केसरी, अमरोहा के यशस्वी प्रकाशक डा. अशोक कुमार रस्तोगी आर्य जी के द्वारा इसी महीने प्रकाशित हुआ है। यह भी बता दें कि श्री राजपूत जी की सम्प्रति आयु 82 वर्ष हो चुकी है। उन पर हमने दिनांक 1-1-2022 को भी एक लेख लिखा था। उस लेख में हमने इन दो कविताओं का उल्लेख किया था और इन्हें प्रसतुत करने की बात कही थी। शायद हमारे कुछ मित्रों ने हमारे उस लेख को देखा व पढ़ा होगा। सादर।

आर्य वेद कवि श्री वीरेन्द्र कुमार राजपूत जी की प्रथम कविता

मेरा प्रभुवर है मेरा मित्र,
करता है वह मुझे सुगन्धित, बन गुलाब का इत्र।।

जो समान पंख रखते, वह पक्षी मिलकर उड़ते,
वैसे ही हम दोनों कवि हैं, नहीं बिछड़ते, जुड़ते,
उसमें मेरा, मुझमें उसका, रमा हुआ है चित्त।।

सोते जागते, उठते-बैठते, रहता मेरे साथ,
पल पल मुझे देखता रहता पकड़े रहता हाथ,
मुझे छोड़ नहीं जाता कबहू, ऐसा परम विचित्र।।

उसका कहा न मानूं, तो वह कान ऐंठ देता है,
उसका कहा करूं तो अपनी बाहों में भर लेता है,
तथा प्यार के छींटें देकर, करता मुझे पवित्र।।

उसने कहा मित्र मेरे, मम बात कान पर धर तू,
हिन्दी में सम्पूर्ण वेद के काव्यार्थ को कर तू,
यही काव्य तेरे लोगों का उज्जवल करे चरित्र।।

प्रथम रचना तिथिः दिनांक 27-11-2017

दूसरी रचनाः

“धर्म पत्नि अरु माता वेद …..’’

धर्म पत्नि अरु माता वेद।
इनकी सेवा करूं सदा ही, कष्टों को दू भेद।।

प्राणों से प्रिय मुझे, धर्म पत्नी अरु वेद माता,
यह हैं मेरे साथ, हर्ष से फूला नहीं समाता,
इन कारण ही मुझे कभी भी, रंच न होता खेद।।

इन कारण ही मैं उन्नति करता स्वस्थ रहा करता हूं,
इन कारण ही मैं अपनी जीवन नौका तरता हूं,
इन कारण अब झड़े नहीं यह, मेरे बाल सफेद।।

प्रभु से यही प्रार्थना, दोनों साथ न मेरा छोड़े,
ज्यों सांसों से सांस जुड़ी, त्यों रखें मुझे यह जोड़े,
सुख से रहें सदैव, नहीं हो पीड़ीजनक प्रसेद।।

द्वितीय कविता रचना तिथिः दिनाक 24-10-2019

ओ३म् शम्।

-प्रस्तुतकर्ता मनमोहन कुमार आर्य।

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