आर्य वेद कवि श्री वीरेन्द्र कुमार राजपूत जी की प्रथम कविता
मेरा प्रभुवर है मेरा मित्र,
करता है वह मुझे सुगन्धित, बन गुलाब का इत्र।।
जो समान पंख रखते, वह पक्षी मिलकर उड़ते,
वैसे ही हम दोनों कवि हैं, नहीं बिछड़ते, जुड़ते,
उसमें मेरा, मुझमें उसका, रमा हुआ है चित्त।।
सोते जागते, उठते-बैठते, रहता मेरे साथ,
पल पल मुझे देखता रहता पकड़े रहता हाथ,
मुझे छोड़ नहीं जाता कबहू, ऐसा परम विचित्र।।
उसका कहा न मानूं, तो वह कान ऐंठ देता है,
उसका कहा करूं तो अपनी बाहों में भर लेता है,
तथा प्यार के छींटें देकर, करता मुझे पवित्र।।
उसने कहा मित्र मेरे, मम बात कान पर धर तू,
हिन्दी में सम्पूर्ण वेद के काव्यार्थ को कर तू,
यही काव्य तेरे लोगों का उज्जवल करे चरित्र।।
प्रथम रचना तिथिः दिनांक 27-11-2017
दूसरी रचनाः
“धर्म पत्नि अरु माता वेद …..’’
धर्म पत्नि अरु माता वेद।
इनकी सेवा करूं सदा ही, कष्टों को दू भेद।।
प्राणों से प्रिय मुझे, धर्म पत्नी अरु वेद माता,
यह हैं मेरे साथ, हर्ष से फूला नहीं समाता,
इन कारण ही मुझे कभी भी, रंच न होता खेद।।
इन कारण ही मैं उन्नति करता स्वस्थ रहा करता हूं,
इन कारण ही मैं अपनी जीवन नौका तरता हूं,
इन कारण अब झड़े नहीं यह, मेरे बाल सफेद।।
प्रभु से यही प्रार्थना, दोनों साथ न मेरा छोड़े,
ज्यों सांसों से सांस जुड़ी, त्यों रखें मुझे यह जोड़े,
सुख से रहें सदैव, नहीं हो पीड़ीजनक प्रसेद।।
द्वितीय कविता रचना तिथिः दिनाक 24-10-2019
ओ३म् शम्।
-प्रस्तुतकर्ता मनमोहन कुमार आर्य।