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संपादकीय

कल्याण सिंह कितने सही?..(5)

Kalyanगुरूदेव का व्यक्तित्व

गुरूदेव रविन्द्र नाथ टैगोर का व्यक्तित्व पूरी कांग्रेस से ऊपर था। क्योंकि कांग्रेस ने अपनी ‘राजभक्ति’ का व्यामोह 1929-30 में जाकर त्यागा, जब उसने भारत की पूर्ण स्वाधीनता प्राप्ति का संकल्प व्यक्त किया। इतनी देर से (1885 से 1930 तक) कांग्रेस ने आंखें खोलना उचित नही समझा। उसने 1920-21 का असहयोग आंदोलन तथा उससे पूर्व का खिलाफत आंदोलन भी यदि चलाया तो वह भी अपनी राजभक्ति की सीमाओं में रहकर चलाया था। कांग्रेस ने देश के लिए 1930 से जीना सीखा। यह भी एक तथ्य है कि इससे पूर्व वह अपने ‘आकाओं’ं के लिए जी रही थी। उसका स्वाभिमान तो जलियांवाला बाग के हत्याकाण्ड के समय भी नही जागा था। 1930 के पश्चात जगी कांग्रेस ने स्वतंत्रता के लिए सविनय अवज्ञा आंदोलन चलाया जो निष्फल रहा और 1942 में उसने भारत छोड़ो आंदोलन चलाया था। जो चलने से पहले ही (बड़े नेताओं की गिरफ्तारी के कारण) फुस्स हो गया था। 1942 के पश्चात कांग्रेस ने एक भी आंदोलन नही चलाया।

बिना खडग़ बिना ढाल, आजादी नही मिलती

कुल 17 साल की कांग्रेस की लड़ाई और उसमें एक भी आंदोलन ऐसा नही जिसे सफल कहा जा सके तो फिर कैसे कहा जाए कि इसके नेता ने हमें ‘बिना खडग़ बिना ढाल आजादी दे दी’ थी। आजादी तो मिली थी सुभाष जैसे बलिदानियों के कारण और कांग्रेस को सत्ता मिली अपनी राजभक्ति के कारण। उस अहसान के बोझ में दबी कांग्रेस को ‘अधिनायक’ पर तो कभी आपत्ति रही और ना ही रहने वाली है।

कल्याण सिंह जैसे नेता का परिवेश

यदि कांग्रेस ‘राजभक्ति’ के व्यामोह से निकलकर देश में अधिनायकवादी संस्कृति से बचकर चलती तो देश का बंटवारा नही होता। कल्याण सिंह जैसे नेता उस परिवेश में पले बढ़े हैं जिसमें केवल देशभक्ति का पाठ पढ़ाया जाता है। देशभक्ति में दोगलापन आते ही राष्ट्र में विसंगतियां बढ़ती हैं। जैसा कि कांग्रेस ने ‘अधिनायक’ की आराधना कर देश को 68 वर्ष लगाकर करके भी दिखाया है। ‘अधिनायक-चालीसा’ पढ़ते-पढ़ते देश का गणतंत्र ‘गन’ तंत्र में और लोकतंत्र ‘ठोक’ तंत्र में बदल गया। बड़ी तेजी से एक ऐसा नया वर्ग तैयार हुआ है जिसने देश के आर्थिक संसाधनों पर अपनी मुठमर्दी (अधिनायकवादी सोच के द्वारा) से कब्जा कर लिया है।

देश पाताल में चला गया

हमने पूंजीवादी व्यवस्था का लोकतंत्रीकरण कर दिया है। थैलीशाह और धनपति देश को चला रहे हैं। यह हमारी कुव्यवस्था केवल अधिनायक जय हे गाकर ही बनी है। क्योंकि इस देश का पहला प्रधानमंत्री नेहरू पूर्णत: सामंती सोच का था। वहीं से लोकतंत्र की गाड़ी का पहिया कीचड़ में फंसता गया और ‘अधिनायक जय हे’ बोलते-बोलते देश पाताल में चला गया।

देश के शौर्य को अपमानित नही करेंगे

जब आंखें खुलीं तो पता चला कि पाताल में फंसी गाड़ी को ऊपर उठाने के लिए जो लोग पसीना-पसीना हुए पड़े थे उनमें कल्याणसिंह भी एक थे। कितने ही ‘कल्याणों’ ने मिलकर इतिहास को पलटने का प्रयास किया और कसम खायी कि अब ना तो अधिनायक वंदन करेंगे ना ही अपने लोकनायकों और राष्ट्रनायकों का अपमान करेंगे और ना ही-‘दे दी हमें आजादी बिना खडग़ बिना ढाल’ का आत्मप्रवंचना प्रदायक गीत गाकर देश के शौर्य को अपमानित करेंगे। इन सबके स्थान पर अब होगी राष्ट्रवंदना, राष्ट्र आराधना और राष्ट्र साधना। ‘अधिनायक’ के स्थान पर अब होगा ‘मंगलदायक’ का आराधन।

कल्याणसिंह का बयान विवादास्पद नही

राज्यपाल के रूप में एक व्यक्ति यह कहे कि ‘अधिनायक’ शब्द राष्ट्रगान से हटाओ और उसके स्थान पर ‘मंगलदायक’ शब्द लाओ तो यह किसी प्रकार का विवादास्पद बयान नही है, अपितु विवादों को मिटाकर एक वाद के झण्डे तले लाकर सबको खड़ा करने का एक पूरा चिंतन है। इस चिंतन में पूरे जीवन के संघर्ष की छिपी हुई पीड़ा है।

राजभवनों में पहुंचें चिंतनशील लोग

राजभवनों में जब घोटालेबाज और केन्द्र के एजेण्ट भेजे जाते हैं, तो उनसे ‘दुर्गंध’ आने लगती है और जब राजभवनों में चिंतक मनीषी और राष्ट्र आराधक लोग जाकर बैठते हैं तो उधर से आते संकेत राष्ट्र का मार्गदर्शन करने लगते हैं। इसलिए राजभवनों में निष्क्रिय लोगों को बैठाने की अपेक्षा चिंतनशील और अनुभवी राजनीतिज्ञों को बैठाने का प्रयास होना चाहिए। राज्यपाल का अभिप्राय है-एक राजनेता का तपस्वी स्वरूप, एक ऐसा व्यक्तित्व जिसे देश के मूल्यों और मान्यताओं की जानकारी हो। हमारा राष्ट्रीय मूल्य  है ऋग्वेद का यह आदेश कि ‘स्वराज्यम् अर्चन्ननुम्’-अर्थात स्वराज्य की आराधना करो। हमें अधिनायक की आराधना नही सिखायी गयी, हमें ‘मंगलदायक स्वराज्य’ की आराधना करना युग-युगों से सिखाया गया है। युग-युगों के उसी मौलिक राष्ट्रीय संस्कार को यदि कल्याणसिंह जैसा राजनेता आज के भारत का मौलिक संस्कार बना देना चाहता है तो इसमें पंकज श्रीवास्तव जैसे लोगों को आपत्ति क्या है? वेद कहता है-राष्ट्रं पिपृहि सौभागाय’ अर्थात हम राष्ट्र की समृद्घि के लिए सदा प्रयास करें।

संस्कृतिनिष्ठ लोगों की आवश्यकता है देश को

जिस दिन सारा राष्ट्र ‘मंगलदायक स्वराज्य’ की आराधना करते हुए राष्ट्र की समृद्घि के लिए सामूहिक प्रयास करना आरंभ कर देगा, उस दिन कल्याण सिंह के कल्याणकारी बोलों का वास्तविक मूल्य हमारी समझ में आ जाएगा। देश को संस्कृतिनिष्ठ लोगों की आवश्यकता है। अपसंस्कृति निष्ठ लोग उठें और अरब सागर की ओर चले जायें।

समाप्त

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