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ईश्वर हमें तीन सौ वर्ष की आयु प्रदान करें

संसार का प्रत्येक मनुष्य चाहता है कि वह स्वस्थ हो, बलवान हो, सुखी हो व सभी प्रकार की सुख-सुविधाओं व आनन्द की सामग्री से सम्पन्न हो। इसके साथ ही वह दीघार्यु भी होना चाहता है। दीघार्यु हमारे पूर्व जन्म व इस जन्म में किये गए शुभ व पुण्य कर्मो का परिणाम होती है। मनुष्य को मृत्यु के बाद जो उसका प्रारब्ध होता है उसके अनुसार ‘जाति, आयु व भोग’ की प्राप्ति परमात्मा कराता है। यहां जाति का अर्थ मनुष्य, पशु, पक्षी व अन्य योनियों से सम्बन्धित है। मनुष्यों में स्त्री व पुरूष दो जातियां ही हैं तथा पशुओं में गाय, भैंस, गधा, घोड़ा, कोयल, कौआ, तोता, कुत्ता आदि अनेक जातियां होती हैं। संसार में जितने भी मनुष्य हैं उनकी जन्मना कोई जाति यदि होती है तो वह केवल मनुष्य जाति ही होती है। ‘वर्ण’ मनुष्यों के ज्ञान व कर्मों पर आधारित होता है। जैसे कि यदि किसी ने चिकित्सा विज्ञान में चिकित्सक की उपाधि प्राप्त की है तभी वह चिकित्सक होता है। इसी प्रकार से अध्यापन के लिए भी किसी व्यक्ति विशेष का विद्वान होना आवश्यक है। व्यापार व कृषि के लिए भी इन कार्यों का आवश्यक ज्ञान होना चाहिये। इसी प्रकार से मनुष्य का वर्ण उसके ज्ञान व योग्यता पर निर्भर है। जन्म से वर्ण नहीं हो सकता क्योंकि बिना योग्यता अर्जित किए वर्ण का निर्धारण नहीं हो सकता। यदि ऐसा होता तो जिन किसी ने ब्राह्मण परिवार में जन्म लेकर बाद में धर्म परिवर्तन कर ईसाई वा इस्लाम मत ग्रहण कर लिया, तो वह भी ब्राह्मण ही कहलाते। परन्तु ऐसा नहीं होता। अत: मनुष्य ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र अपने गुण, कर्म व स्वभाव से होता है। महर्षि दयानद गुण, कर्म व स्वभाव से वर्णों को मानते हैं और अपनी इस मान्यता को उन्होंने वेद, मनुस्मृति, तर्क व युक्ति आदि अनेक प्रकार से प्रमाणित किया है।

आज हम मनुष्य जीवन में आयु वृद्धि से सम्बन्धित यजुर्वेद के तीसरे अध्याय के बासठवें मन्त्र को प्रस्तुत कर यह बताना चाहते हैं कि यदि मनुष्य प्रयास करे तो उनकी आयु तीन सौ वर्ष तक की होना सम्भव है। यदि इतनी अधिक आयु न भी हो तो सद्कर्मों को करके हम इस जन्म में अपनी आयु को सामान्य आयु की तुलना में कहीं अधिक बढ़ा सकते हैं और मृत्यु के पश्चात प्राप्त होने वाले नये मनुष्य जीवन में निश्चित ही हमारी आयु कहीं अधिक हो सकती है। आयु में वृद्धि से सम्बन्धित ईश्वर की प्रार्थना विषयक यह वेद मन्त्र प्रस्तुत है।

त्र्यायुषं जमदग्ने: कश्यपस्य त्र्यायुषम।

यद् देवेषु त्र्यायुषं, तन्नो अस्तु त्र्यायुषम।।

इस मन्त्र का ऋषि नारायण, देवता रूद्र: तथा छन्द चतुष्पाद् उष्णिक् है। मन्त्र में परमात्मा जीवात्मा वा मनुष्यों को शिक्षा देते हुए कहते हैं कि तुम ईश्वर से इस प्रकार से प्रार्थना करो कि हे रूद्र परमेश्वर (जमदग्ने:) प्रज्वलित अग्नि कर्मकाण्डी को और चक्षु इन्द्रिय को (त्र्यायुषं) त्रिगुणित आयु प्राप्त हो (कश्यपस्य) द्रष्टा ज्ञानी को और शरीरस्थ प्राण को (त्र्यायुषं) त्रिगुणित आयु प्राप्त हो। (यद्) जो (देवेशु) विद्वानों में (त्र्यायुषं) त्रिगुणित आयु होती है, (तत्) वह (त्र्यायुषं) त्रिगुणित आयु हमारी हो।

इस मन्त्र का भावार्थ हम वेद मनीषी डा. रामनाथ वेदालंकार जी के शब्दों में प्रस्तुत कर रहे हैं। हे परमेश्वर! तुम रूद्र हो, रोग, चिन्ता आदि को दूरकर शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य प्रदान करनेवाले हो, जिससे दीर्घायुष्य प्राप्त होता है। जैसे देवों अर्थात् नियम-परायण विद्वज्जनों को तुम ‘त्र्यायुष’ प्रदान करते हो, वैसे ही हमें भी प्रदान करो। यह ‘त्र्यायुष’ क्या है? त्रिविध तापों व दु:खों से रहित, बाल्य-यौवन-वार्धक्य तीनों अवस्थाओं में सुखकर, इन्द्रिय-अन्त:करण-प्राण तीनों की स्वास्थ्य-कर, ज्ञान-कर्म-उपासना तीनों से अनुप्राणित, विद्या-शिक्षा-परोपकार तीनों से युक्त तीन सौ वर्ष की आयु ‘त्र्यायुष’ कहाती है। आज तो हम सामान्य सौ वर्ष की आयु भी नहीं जी पाते, विभिन्न देशों की औसत आयु सौ वर्ष से बहुत कम है। पर वेद का स्वप्न है कि मनुष्य तीन सौ वर्ष की आयु प्राप्त करे। भाष्यकार ने तो यहां तक कहा है कि मन्त्र ‘त्र्यायुष’ शब्द की चार बार आवृत्ति चतुर्थ शतक की भी द्योतिका है, इस प्रकार चार सौ वर्ष की आयु अभीष्ट है।

हमारे बीच में जो जगदग्नि ऋषि, अर्थात् अग्नि को गति देनेवाले प्रज्वलिताग्नि नर-नारी हैं, उन्हें ‘त्र्यायुष’ प्राप्त हो। जीवन में अग्नि का प्रज्वलन आयु-क्षय-कारी समस्त व्याधियों को दूर करता ही है। ‘शतपथ ब्राह्मण’ के अनुसार चक्षु इन्द्रिय का नाम भी जगदग्नि है, जो यहां सभी इन्द्रियों का उपलक्षण है एवं हमारे चक्षु, श्रोत्र, घ्राण, त्वक, रसना, मुख, पाणि, पाद आदि सभी अंगों को त्र्यायुष प्राप्त होना चाहिए। ऐसा न हो कि हम तीन सौ या चार सौ वर्ष जीवित तो रहें, पर विकलेन्द्रिय होकर। हमारे समाज के ‘कश्यप’ ऋषि, अर्थात् द्रष्टा मनीषियों को भी ‘त्र्यायुष’ प्राप्त हो, जिससे चिरकाल तक हमें अपने ज्ञानदर्शन का लाभ पहुंचाते रहें। ‘कश्यप’ ऋषि शरीर में प्राण का नाम है एवं हमारे प्राण को भी ‘त्र्यायुष’ प्राप्त हो। हम जब तक जीवित रहें, प्रशस्त प्राणों से युक्त रहें। हमारे प्राण, अपान आदि सम्यक् प्रकार से प्राणन, अपानन आदि क्रियाओं को करते रहें।

वेद में मनुष्यों को ईश्वर से तीन सौ से चार सौ वर्ष की आयु मांगने का ज्ञान व प्रेरणा की गई है। हमारी जितनी अधिक लम्बी व स्वस्थ आयु होगी, हम उतना ही सुख भोग सकते हैं और साथ हि देश व समाज के लिए भी कुछ विशेष कार्य कर सकते हैं जिससे मानव जाति लाभान्वित हो। 300 वर्ष की यह आयु असम्भव नहीं है। नैट से हमें पता चला है कि 160 व इससे भी अधिक आयु के मनुष्य इथोपिया व अन्य देशों में हुए हैं। यदि मनुष्य का आहार, विहार, विचार, ज्ञान, निद्रा, ध्यान व व्यायाम आदि सन्तुलित व संयमपूर्वक वेदानुसार हो तो हमें लगता है कि मनुष्य की आयु अधिक हो सकती है और मनुष्य 300 वर्ष के निकट भी पहुंच सकते हैं। आजकल भी आयु को बढ़ाने के लिए देश विदेश के चिकित्सा शास्त्री अनुसंधान कार्य कर रहे हैं। उन्हें इस कार्य में सफलता भी मिली है और आशा है कि आने वाले समय में वह अवश्य ही ऐसी खोज करेंगे जिससे हमारी आयु वर्तमान समय से कहीं अधिक हो सकती है।

मनुष्य जीवन का उद्देश्य सद्कर्म करना तथा दु:खों से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त करना है। अधिक सद्कर्म व साधना के लिए मनुष्यों को निश्चय ही लम्बी आयु की आवश्यकता है। ईश्वर से प्रार्थना करने पर इच्छित वस्तु अवश्य प्राप्त होती है यदि वह सम्भव कोटि में हो और उसके लिए उपयुक्त पुरूषार्थ किया गया हो। बहुत से धार्मिक व सज्जन लोगों का ऐसा अनुभव है। आईये, हम नित्य प्रति यजुर्वेद के आयु वृद्धि करने वाले उपर्युक्त मन्त्र का पूरी श्रद्धा के साथ पाठ किया करें और स्वास्थ्य के सभी नियमों का पालन करने का संकल्प लें।

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