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इतिहास के पन्नों से हमारे क्रांतिकारी / महापुरुष

आदिकवि वाल्मीकि और उनका कालजयी ग्रंथ रामायण

हमारा देश भारत ऋषि और कृषि का देश है। यदि इन दोनों को भारतीय संस्कृति से निकाल दिया जाए तो समझो कि भारत निष्प्राण हो जाएगा । यह हम सबके लिए परम सौभाग्य का विषय है कि हमारे देश भारत वर्ष में एक से बढ़कर एक ऐसे ऋषि – महर्षि हुए जिन्होंने मानवता की अनुपम और अद्भुत सेवा करते हुए अपने वैचारिक आभामंडल से हम सबको और संपूर्ण भूमंडलवासियों को लाभान्वित किया है। इन ऋषि – महर्षियों – मनीषियों में से अधिकांश ऋषि ऐसे हुए जो आज के वैज्ञानिकों से भी उत्कृष्ट कार्य करके गए हैं। यदि भारत के ऋषियों के इतिहास को गहनता से समझा जाए तो जितने भी आविष्कार आज हो रहे हैं ,उन सबके जनक या आविष्कारक हमारे ऋषि महर्षि ही मिलेंगे । ऐसे ही महान विचारक चिंतक और धर्म के मर्मज्ञ ऋषियों में से एक महर्षि बाल्मीकि हुए हैं । जिन्होंने प्रभु की वेदवाणी के अनुसार सबसे पहले काव्य रचना करके एक महान ग्रंथ की रचना की।
    वैसे काव्य और भारत की ऋषि परंपरा का अन्योन्याश्रित संबंध है। क्योंकि हमारे धर्म ग्रंथ वेद आदि काव्यमय हैं। उनके बाद महर्षि मनु की मनुस्मृति भी काव्य रूप में ही लिखी गई है । जब प्रभु प्रदत्त वेद वाणी ही काव्यमय है तो यह स्वाभाविक ही था कि हमारे आदि कवि वाल्मीकि भी अपनी रचना काव्य रूप में ही करते ।
महर्षि बाल्मीकि को आदि कवि के रूप में सम्मान दिया जाता है। इसका कारण है कि वह महर्षि मनु के बाद संसार के ज्ञात इतिहास के पहले कवि हैं। उन्होंने अपना महान ग्रंथ रामायण संस्कृत भाषा में लिखा।  यह ग्रंथ हमारे तत्कालीन समाज, राजनीति और राजनीतिक लोगों के नैतिक मूल्यों पर पर्याप्त प्रकाश डालता है। हमारे ऋषि बाल्मीकि जी की लेखन शैली इस प्रकार की है कि उनका ग्रंथ रामायण कालजयी हो गया है। इसका कारण केवल एक था कि उन्होंने केवल झूठे गुणगान करने के लिए अपनी कविता की रचना नहीं की अपितु उन्होंने युग – युगों तक मानव उनके ग्रंथ से प्रेरणा लेता रहे और इस ग्रंथ के चरितनायक अर्थात प्रमुख पात्र श्री राम और उनके मर्यादित जीवन को लोग देर तक और दूर तक समझते रहें – इसका उन्होंने पर्याप्त ध्यान रखा है।
   वाल्मीकि जी को जिन लोगों ने किसी दलित, शोषित ,उपेक्षित समाज का व्यक्ति बनाकर प्रस्तुत किया है उन्होंने उनके महान स्वरूप और चरित्र के साथ अन्याय किया है। वास्तव में वह एक  ऋषि थे और ऋषि चिंतन का अधिष्ठाता होने के कारण सबका पूजनीय – वंदनीय होता है । यदि एक पूजनीय – वंदनीय ऋषि बाल्मीकि जी की लेखनी उस समय रामचंद्र जी पर चली तो यह  राम की महानता को तो प्रकट करता ही है साथ ही बाल्मीकि जी महानता को भी प्रकट करता है, क्योंकि उस समय कोई ऋषि किसी राजनीतिक व्यक्ति को अपने लेखन का पात्र नहीं बनाता था। महर्षि बाल्मीकि जी ने रामायण की रचना में इस बात का पर्याप्त ध्यान रखा कि उनका ग्रन्थ राष्ट्रविरोधी शक्तियों की उपेक्षा और समाज व राष्ट्र का निर्माण करने वाली शक्तियों को प्रोत्साहित करने वाला हो।
    यदि थोड़ी देर के लिए यह मान भी लिया जाए कि ऋषि बाल्मीकि एक शूद्र कुल में उत्पन्न हुए थे तो भी यह भारतीय संस्कृति का कितना बड़ा समन्वयवादी स्वरूप है कि एक शूद्र कुल में उत्पन्न व्यक्ति राजनीतिक क्षत्रिय कुल में जन्मे शासक का निष्पक्षता से गुणगान करता है। यदि आज ऐसा कोई कवि किसी शूद्र कुल में जन्मा होता तो निश्चय ही ‘तिलक, तराजू और तलवार इनको मारो जूते चार’ – की तर्ज पर समाज को तोड़ने वाली मानसिकता का परिचय देता, परंतु हमारे ऋषि बाल्मीकि जी ने ऐसा नहीं किया। इसका कारण यही था कि वह विचारों और हृदय से पवित्र व्यक्तित्व के स्वामी थे। उनके भीतर किसी भी प्रकार की संकीर्णता रंचमात्र भी नहीं थी। वे समाज को जोड़ने वाले ऋषि थे, तोड़ने वाले नहीं। वे धर्म की मर्यादा को जानने वाले ऋषि थे, मजहब की संकीर्णता में जीने वाले कीड़े नहीं। वह पवित्र कुल में जन्मे थे ।।यही कारण था कि उनके व्यक्तित्व और कृतित्व में सर्वत्र पवित्रता ही पवित्रता विराजमान थी।
     रामायण में भगवान वाल्मीकि ने  ‘रामायण’ लिखी। इस ग्रंथ को लिखने की प्रेरणा मिलने के बारे में भी एक बड़ा ही रोमांचकारी किस्सा हमें पढ़ने को मिलता है। कहा जाता है कि एक बार वाल्मीकि क्रौंच पक्षी के एक जोड़े को बड़ी प्यार भरी दृष्टि से देख रहे थे। वह जोड़ा प्रेमालाप में लीन था, तभी उन्होंने देखा कि बहेलिये ने प्रेम-मग्न क्रौंच (सारस) पक्षी के जोड़े में से नर पक्षी का वध कर दिया। इस पर मादा पक्षी विलाप करने लगी। उसके विलाप को सुनकर वाल्मीकि की करुणा जाग उठी और द्रवित अवस्था में उनके मुख से स्वतः ही यह श्लोक फूट पड़ा :-
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वंगमः शाश्वतीः समाः।यत्क्रौंचमिथुनादेकं वधीः काममोहितम्॥(अर्थ : हे दुष्ट, तुमने प्रेम मे मग्न क्रौंच पक्षी को मारा है। जा तुझे कभी भी प्रतिष्ठा की प्राप्ति नहीं हो पायेगी और तुझे भी वियोग झेलना पड़ेगा।)

उसके बाद उन्होंने प्रसिद्ध महाकाव्य “रामायण” की रचना की। इस ग्रंथ में उन्होंने अपनी विद्वता का भरपूर प्रदर्शन किया है। जिसके कारण वे “आदिकवि वाल्मीकि” के नाम से अमर हो गये। अपने महाकाव्य “रामायण” में उन्होंने अनेक घटनाओं के समय सूर्य, चंद्र तथा अन्य नक्षत्र की स्थितियों का वर्णन किया है। इससे ज्ञात होता है कि वे ज्योतिष विद्या एवं खगोल विद्या के भी प्रकाण्ड विद्वान थे।
संसार की जितनी भर भी भाषाएं हैं उन सबमें उच्च कोटि के महाकाव्य के रूप में बाल्मीकि रामायण का स्थान है। जिसमें आस्तिकता, धार्मिकता, प्रभुभक्ति के उदात्त और दिव्य भावों को स्थान दिया गया है। इस प्रकार के दिव्य भाव किसी अन्य भाषा के महाकाव्य में मिलने असंभव हैं। इस प्रकार के उदात्त और दिव्य भावों से बाल्मीकि रामायण प्राचीन आर्य सभ्यता और संस्कृति का दर्पण बन कर हमारे समक्ष प्रकट हुई है। इस महान ग्रंथ में बाल्मीकि जी ने श्रीराम को एक आदर्श मित्र, आदर्श भाई, आदर्श पति और आदर्श शासक के रूप में प्रस्तुत किया है।
किसी लेखक ने कहा है कि वास्तव में रामायण किसी भी युग और किसी भी देश के साहित्य को ललकार सकता है। जो श्री राम व सीता के समान सर्वांगीण चरित्रों या पात्रों पर गर्व कर सकें । संसार के किसी भी ग्रंथ में काव्य और नैतिकता का इतना सुंदर सम्मिश्रण नहीं हुआ है, जितना इस पवित्र काव्य में है।
      इस ग्रंथ के पहले अध्याय का नाम महर्षि वाल्मीकि जी ने बालकांडम, दूसरे का अयोध्याकांडम, तीसरे का अरण्यकांडम, चौथे का किष्किंधाकांडम, पांचवे का सुंदरकांडम और छठे का युद्धकांडम नाम रखा है।
  पहले कांड में दशरथ राज्य का वर्णन किया गया है। इसके अतिरिक्त महाराज दशरथ के मंत्रिमंडल के बारे में भी जानकारी दी गई है। महाराज दशरथ का पुत्रेष्टि यज्ञ ,राम ,भरत, लक्ष्मण व शत्रुघ्न के जन्म और उनके बाल्यकाल की घटनाएं, विश्वामित्र जी का आगमन, विश्वामित्र द्वारा राम की याचना और वशिष्ठ का दर्श दशरथ को समझाना राम लक्ष्मण का विश्वामित्र के साथ प्रस्थान, गंगा के तट पर पहुंचना, अहिल्या का उद्धार , मिथिला पुरी में, राज्यसभा में जनक का धनुष और सीता का परिचय देना, राजा जनक द्वारा दशरथ का आतिथ्य, चारों भाइयों के विवाह संबंध का निश्चय, विवाह संस्कार, परशुराम का पराभव, भरत व शत्रुघ्न का ननिहाल गमन तक का वर्णन भी इसी अध्याय में किया गया है।
दूसरे कांड में श्रीराम के राज्याभिषेक का निश्चय , परिषद द्वारा श्री राम के राज्याभिषेक का अनुमोदन, राम को  माता का आशीर्वाद,  राम , लक्ष्मण व सीता का वन गमन के लिए प्रस्थान, दशरथ का विलाप, नागरिकों की प्रार्थना, नगरवासियों का विलाप करते हुए अयोध्या लौटना, गुहा में भेंट, गंगा के पार , राम का विलाप , भरद्वाज के आश्रम में , चित्रकूट में निवास,  भरत का अपने भाई को वापिस अयोध्या लाने के लिए वन गमन, वन में राम भरत संवाद, भरत जी की प्रार्थना, भरत के आग्रह पर पादुका प्रदान, भरत की वापसी और नंदीग्राम निवास, राम का चित्रकूट से प्रस्थान, सीता को अनसूया का उपदेश आदि को लिया गया है।
  तीसरे कांड में दंडकारण्य में ऋषियों द्वारा राम का सत्कार, विराट का वध, राक्षस वध के लिए श्रीराम द्वारा ली गई प्रतिज्ञा, महर्षि अगस्त्य से भेंट , जटायू से भेंट, पंचवटी में निवास, सुपनखा का आगमन और उसके पश्चात खर दूषण व उसके राक्षस साथियों  के साथ युद्ध, मारीच का रावण को हितोपदेश,  मृग बनकर मारीच का राम के आश्रम के निकट आना, रावण का आगमन, सीता का अपहरण, राम का आश्रम की ओर लौटना राम की व्याकुलता, शबरी द्वारा राम का आतिथ्य आदि को सम्मिलित किया गया है। चौथे कांड में श्रीराम की विरह वेदना,  सुग्रीव को राजा बनाना और बाली का वध करना,  तारा का आगमन और विलाप , हनुमान का तारा को आश्वासन देना, बाली का अंतिम संदेश,  तारा के द्वारा लक्ष्मण को शांत करना, शरद ऋतु का वर्णन, सीता की खोज में निकलने वाली विभिन्न मंडलियों का वर्णन, गुफा में प्रवेश और तापसी से भेंट, हनुमान की भेद नीति, अंगद का आक्रोश, समुद्र पार जाने के लिए विचार विमर्श आदि को सम्मिलित किया गया है।
पांचवे कांड में हनुमान का समुद्र को पार करना, रात्रि आगमन की प्रतीक्षा, हनुमान का विशाल मंदोदरी को सीता समझना, हनुमान का कर्तव्याकर्तव्य चिंतन , हनुमान द्वारा राम का गुणगान,  राक्षसी यज्ञशाला का विध्वंस, जंबूमाली का वध , लंका से लौटने के लिए समुद्र लंघन , मधुबन विध्वंस, हनुमान का राम को सीता का संदेश और चूड़ामणि देना सम्मिलित किया गया है।
  इसके पश्चात अंतिम अध्याय में सुग्रीव का शोक संतप्त राम को उत्साहित करना,  सुग्रीव के वचनों से आश्वस्त होकर राम का हनुमान से लंका के विषय में पूछना, श्री राम का युद्ध के लिए प्रस्थान और समुद्र पर पड़ाव, विभीषण का राज्याभिषेक, राम का समुद्र पर पुल बनाकर सेना सहित पार उतरना, रावण का सीता को राम का नकली सिर और धनुष दिखाना, राम का  पर्वत पर चढ़कर लंका का निरीक्षण करना और सुग्रीव और रावण की मुठभेड़, अंगद का दौत्य कर्म ,  सहित सारे राम रावण युद्ध का वर्णन करते हुए राम का पुष्पक विमान द्वारा अयोध्या के लिए प्रस्थान, पुष्पक विमान द्वारा स्थानों का निरीक्षण करते हुए अयोध्या की ओर गमन, भारद्वाज के आश्रम में राम का अपने आगमन की सूचना देने के लिए हनुमान को भरत के पास भेजना , राम का स्वागत समारोह तथा राम भरत मिलाप राम की शोभायात्रा एवं अयोध्या में आगमन जैसी घटनाओं को सम्मिलित किया गया है।

— डॉ राकेश कुमार आर्य
   

   

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