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भारतीय स्वाधीनता का अमर नायक राजा दाहिर सेन,  अध्याय – 11 (2) देशद्रोहियों ने खेला अपना खेल

देशद्रोहियों ने खेला अपना खेल

        पर यह क्या ? रानी के साथ भी फिर एक बार वही  काम हो गया जो अबसे पहले देशद्रोहियों ने राजा और उसकी सेना के साथ किया था । जब रानी इस प्रकार के  शौर्य का प्रदर्शन कर रही थी तभी कतिपय देशद्रोहियों और विश्वासघातियों के अरब सेना से मिल जाने के कारण युद्ध का पासा पलटने लगा। छल, छद्म और विश्वासघात में विश्वास रखने वाले इन नीच पातकी लोगों ने  रानी पर तनिक भी दया नहीं खाई। उन्हें तनिक भी लज्जा नहीं आयी कि एक अबला के साथ ऐसा विश्वासघात नहीं करना चाहिए ? सचमुच उनकी आंखों पर पाप की पट्टी बंध चुकी थी,  जो उन्हें सच को देखने नहीं दे रही थी।
    इस प्रकार की स्थिति को रानी ने भी भली प्रकार समझ लिया था। शत्रु के साथ मिले देशद्रोही तत्वों को रानी ने पहचान लिया । अब उन्हें यह भी समझ आ गया कि अबसे पहले उनके महावीर पति और उनके सेनानायकों या राष्ट्रभक्त सेना को पराजय का सामना क्यों करना पड़ा था ? अब रानी को यह पूर्ण विश्वास भी हो गया था कि वह शीघ्र ही अपना बलिदान देने जा रही हैं । रानी जैसी वीरांगना के लिए युद्ध से भागना भी सम्भव नहीं था । वह अब पक्का निर्णय ले चुकी थीं कि आज वह या तो विजयी होकर लौटेंगी या फिर अपना बलिदान दे देंगी। किसी भी भारतीय वीरांगना के लिए अपने सतीत्व की रक्षा करना सर्वोपरि होता है, लेकिन आज रानी न केवल अपने सतीत्व की रक्षा के लिए अपितु माँ भारती की रक्षा के लिए भी अपना जीवन दांव पर लगा चुकी थीं। रानी ने अब तक अनेकों शत्रुओं के शरीरों को शांत कर दिया था। उनकी ललकार के सामने शत्रु कुछ समय पहले तक तो इधर उधर भागता फिर रहा था और उसे अपनी जान के लाले पड़ रहे थे। पर अब शत्रु रानी के विरुद्ध लामबंद होने लगा था, क्योंकि देशद्रोही लोग उसके साथ आ जुड़े थे।

नियति बन चुकी थी क्रूर

  रानी आज न केवल अपने पति के बलिदान का प्रतिशोध ले लेना चाहती थीं अपितु वे उन देशद्रोही गद्दारों से भी निपट लेना चाहती थीं जिन्होंने पीठ पीछे से वार कर राजा और उनके पुत्र की विजय श्री में बाधा डाली थी। परंतु दुर्भाग्य देश की इस महान वीरांगना का भी उसी प्रकार पीछा कर रहा था, जिस प्रकार उसके पति का करता रहा था। नियति बड़ी क्रूर बन चुकी थी। परिस्थितियों का झंझावात इतना घातक था कि उनसे अब बचाव भी नहीं हो सकता था। रानी के दिल के अरमान दिल में ही रह गए और अब वह राष्ट्रवेदी पर अपनी मौन आहुति की तैयारी सी करने लगीं।
   रानी और अरबी सेना के बीच के युद्ध के बारे में यह भी कहा जाता है कि रानी को गद्दार मोक्षवासन की की गद्दारी का अभी तक कोई ज्ञान नहीं था। यही कारण रहा कि उसे रानी के सैनिकों ने आराम से किले में प्रवेश कर लेने दिया। इस गद्दार मोक्षवासन ने एक बार फिर अपनी गद्दारी का परिचय दिया और शत्रु के लिए चुपके से रात्रि में किले के द्वार खोल दिए। इस गद्दार की गद्दारी का लाभ उठाकर अरबी सेना किले में प्रवेश पाने में सफल हो गई। महारानी लाडी और उनकी अनेकों वीरांगना सहेलियों ने जब देखा कि अब शत्रु के क्रूर हाथ उनके आंचल को छू सकते हैं तो उन्होंने जौहर कर लिया। इस प्रकार एक वीरांगना ने उस अमर पद को प्राप्त कर लिया जिसकी वह सच्ची अधिकारी थी।
   रानी ने शत्रु के हाथ जाकर अपना सम्मान नीलाम कराने की अपेक्षा जौहर की अग्नि में जलना स्वीकार किया और माँ भारती की रक्षा करते – करते सदा के लिए गहरी नींद सो गईं। उनका यह बलिदान आज भी अनेकों देशभक्तों को और देश की वीरांगना बेटियों को प्रेरणा देता है। रानी के चरित्र की यह अद्भुत विशेषता थी कि उन्होंने अपने पति की वीरगति का संदेश पाकर तुरंत जौहर नहीं किया, अपितु उन्होंने शत्रु को परास्त करने के लिए पहले उससे युद्ध करना उचित समझा। जबकि कई बार हमारे यहाँ पर ऐसा भी हुआ है कि जैसे ही राजा के वीरगति को प्राप्त होने की सूचना रानी तक पहुंची तो उसने शत्रु को युद्ध के लिए चुनौती न देकर जौहर कर लिया। यदि हमारी वीरांगना नारियां जौहर से पहले शत्रु के साथ इसी प्रकार युद्ध के क्षेत्र में युद्ध करतीं तो शत्रु को और भी अधिक काटा जा सकता था और उसे अधिकतम हानि पहुंचाई जा सकती थी।

संस्कृति रक्षक और देशभक्तों को मिले सम्मान

      आज आवश्यकता है कि हम अपने इतिहास में  अपने उन वीर वीरांगनाओं को सम्मानित स्थान प्रदान करें जिन्होंने देश के लिए अपना बलिदान दिया। यह  दु:खद है कि हम अपने वीर और वीरांगनाओं के बारे में  शोध न करके उन विदेशी राक्षस लोगों पर शोध करते हैं जिन्होंने भारतीयता को उजाड़ने का काम किया । इन राक्षसों को ही हम वीर के रूप में पढ़ते और पढ़ाते हैं ।
       इन संस्कृतिभक्षक तथाकथित वीर अरब आक्रमणकारियों के बारे में बाबू रतन लाल वर्मा जी लिखते हैं :- “पहले चार खलीफा अबू बकर , सद्दीक, उमर , उस्मान अली थे और अरब की जलसेना द्वारा भारत पर पहला आक्रमण 636 ई0 में भड़ौंच राज्य के थाना स्थान पर हुआ था। जिसको भड़ौंच के गुर्जरों ने करारी हार देकर खदेड़ दिया था । उपरोक्त खलीफाओं के समय अरबों को आश्चर्यजनक सफलताएं मिलीं । अरब की अजेय सेनाएं फिलिस्तीन , सूडान , लीबिया , अल्जीरिया आदि देशों को विजय करती हुई तथा वहाँ के जन समूह को तुरन्त मुसलमान बनाती हुई अफ्रीका महाद्वीप के अधिकांश भागों पर अपना कब्जा कर चुकी थीं । मिश्र , बेबीलोन की पुरानी सभ्यताएं समाप्त हो गई थीं । पूर्व में ईरान को विजय करके इस्लाम बना दिया गया था और वहाँ के जो लोग जान बचाकर भारत आ गए थे , वे पारसी कहलाते हैं । उन चार के बाद कर्बला का आपसी युद्ध जीतकर तथा हजरत अली के पुत्र हुसैन को मारकर उमैया वंश के लोग खलीफा बने थे । उनके समय अरब साम्राज्य अफ्रीका , एशिया व यूरोप तीनों महाद्वीपों के विशाल भूखंडों में फैल गया था । यूरोप में स्पेन पर इस्लामी झंडा लहरा रहा था तथा उत्तर में मध्येशिया के तुर्क राज्यों से पराजित होकर धड़ाधड़ मुसलमान बनते जा रहे थे । उसी समय के भारत पर भयानक आक्रमणों का प्रारम्भ हुआ।”

अन्त में हम रानी के विषय में यही कहेंगे :–

  रानी नहीं तूफान थी,
हिंद की वह शान थी,
शत्रु दमन की बात
जिसने मन में ली ठान थी …

तूफान से वह रुकी नहीं,
संकटों से वह झुकी नहीं,
शत्रु दल को देखकर –
शेरनी वह हटी नहीं ।…

सम्मान भारत भाल की,
यही नीति चाल थी ,
उसकी गर्जना के सामने ,
क्या शत्रु की औकात थी… .

पति वीर दाहिर राज थे,
पुत्र जयसिंह खास थे,
थी निपुण युद्ध नीति में
निर्णय बेमिसाल थे ….

करता हिंद जिस पर नाज है ,
तड़पता सिन्ध जिसको आज है,
पद चिन्ह जिसके ढूंढने को
‘राकेश’ हृदय से बेताब है…

(हमारी यह लेख माला मेरी पुस्तक “राष्ट्र नायक राजा दाहिर सेन” से ली गई है। जो कि डायमंड पॉकेट बुक्स द्वारा हाल ही में प्रकाशित की गई है। जिसका मूल्य ₹175 है । इसे आप सीधे हमसे या प्रकाशक महोदय से प्राप्त कर सकते हैं । प्रकाशक का नंबर 011 – 4071 2200 है ।इस पुस्तक के किसी भी अंश का उद्धरण बिना लेखक की अनुमति के लिया जाना दंडनीय अपराध है।)

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत एवं
राष्ट्रीय अध्यक्ष : भारतीय इतिहास पुनर्लेखन समिति

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