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भारतीय स्वाधीनता का अमर नायक राजा दाहिर सेन अध्याय – 4 (भाग -2 ) राजा दाहिर सेन  को मिलीं कई प्रकार की चुनौतियां

जब राजा दाहिर सेन ने अपने शासन की बागडोर संभाली तो उस समय भी उन्हें कई प्रकार की चुनौतियों का सामना करना पड़ा । राजा दाहिर सेन के पिता  के सम्बन्ध गुर्जर , जाट और लोहाणा समाज से सामान्य नहीं रह गए थे। समय और परिस्थितियों को देखते हुए इन सभी जातियों के लोगों से समन्वय बनाकर राष्ट्र निर्माण के लिए कार्य करने की अब बहुत अधिक आवश्यकता थी ।

समय और परिस्थितियों की पुकार और ललकार को राजा दाहिर सेन ने बड़ी गम्भीरता से सुना, समझा और उस पर कार्य करना आरम्भ किया । फलस्वरूप उन्होंने गुर्जर, जाट और लोहाणा समाज के लोगों से  संबंध सामान्य बनाने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाए। विदेशी शक्तियों के  मुकाबले के लिए अपनी लाठी को मजबूत करना आवश्यक होता है, अर्थात राष्ट्रीय एकता का परिचय देना बहुत ही आवश्यक होता है। ऐसे में राजा के द्वारा अपने घर को संभाल कर सुव्यवस्थित करना बहुत ही दूरदर्शी कार्य था। उन्होंने शासन की नीतियों की दुर्बलताओं की समीक्षा की और सभी लोगों की सहायता और सहयोग से आगे बढ़ना आरम्भ किया। जिन लोगों के शासन से मतभेद थे उन्होंने भी बात को तूल नहीं दिया। उन्होंने बड़े सहज भाव से समय की गंभीरता को समझते हुए राजा के साथ चलने में ही अपना और देश का भला समझा।

दुर्बलता करी दूर सब किये कठोर उपाय।
प्रजा को लिया साथ में राजधर्म अपनाय।।

कई लोगों ने इतिहास की घटनाओं को नया और बेतुका मोड़ देते हुए यह स्थापित करने का प्रयास किया है कि उस समय ब्राह्मण समाज इस बात को लेकर कुंठित था कि बौद्ध धर्म को राज्यधर्म क्यों घोषित कर दिया गया ? तथाकथित विद्वान इतिहासकारों की ऐसी मान्यता भारत के वैदिक सनातन धर्म की मान्यताओं के विपरीत है। ऐसी अनर्गल बात करने वाले इतिहासकारों को यह समझ लेना चाहिए कि ब्राह्मण अपने आप में कोई अलग धर्म या संप्रदाय या मत कभी नहीं था और ना है। ब्राह्मण हमारे यहाँ पर एक वर्ण था जो सारे समाज को सुसभ्य, सुशिक्षित, संस्कारित और मर्यादित बनाए रखने का महत्वपूर्ण कार्य करता था। उसका कार्य ही मर्यादित, संतुलित, संस्कारित, सुशिक्षित और सभ्य समाज का निर्माण करना था। एक प्रकार से यह वर्ण एक विधायिका का काम करता था। जो विधि विधान बनाती थी और समाज को शांतिपूर्ण ढंग से जीवन जीते हुए उन्नति प्राप्त करने के लिए व्यवस्था देती थी। राजा इस प्रकार के विधि विधान को बड़ी निष्ठा से लागू करता करता था।

वर्ग और वर्ण में अंतर

कालांतर में यह वर्ण व्यवस्था जाति व्यवस्था में परिवर्तित हो गया। तब इसने जातीय अहंकार में अन्य वर्णों को भी जातियों में विभाजित कर दिया, जिससे समाज की हानि हुई। इस प्रकार की हानि को पहुंचाने वाला एक वर्ग था, वर्ण नहीं। जिस समय की बात हम कर रहे हैं उस समय ब्राह्मण वर्ण के कई विद्वान वैदिक सत्य सनातन धर्म के प्रति समर्पण का भाव दिखाते हुए उसकी सर्वोच्चता को बनाए रखने के लिए संघर्षशील थे । अपने इसी पवित्र उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उन्होंने बौद्ध धर्म की सर्वोच्चता को स्वीकार करने से इनकार किया था। इसका कारण केवल एक था कि बौद्ध धर्म वैदिक धर्म की मान्यताओं को या तो अपने ढंग से व्याख्यायित करता था या उन्हें मानने से इनकार करता था।
शास्त्रार्थ के माध्यम से हमारे कई विद्वानों ने वैदिक सत्य सनातन धर्म की सर्वोच्चता को स्थापित करने का अभिनन्दनीय कार्य किया था। राजा दाहिर सेन ने अपनी राष्ट्रीय और सांस्कृतिक एकता को बनाए रखने के लिए भारत की सामाजिक संरचना को मजबूत करने की ओर भी ध्यान दिया। राजा दाहिर ने इस दिशा में सबसे महत्वपूर्ण कार्य यह किया कि सत्य सनातन वैदिक धर्म को अपना राजधर्म घोषित किया । इसका कारण केवल एक था कि राजा दाहिर सेन यह भली प्रकार जानते थे कि वैज्ञानिक नियमों के अनुकूल यदि कोई धर्म है तो वह वैदिक सत्य सनातन धर्म ही है।

शास्त्रार्थ सत्यार्थ का रहा है गहरा मेल।
मूर्ख और नादान ही समझ न पाया खेल।।

उन्होंने वैदिक धर्म की वैज्ञानिकता, तार्किकता और बुद्धि संगतता को समझा और युगानुरूप निर्णय लिया। वास्तव में राजा दाहिर सेन का यह निर्णय वैदिक धर्म पर उनका भारी उपकार है। क्योंकि यदि वह भी उस समय बौद्ध धर्म को स्वीकार कर उसके अनुसार शासन व्यवस्था चलाने लगते तो निश्चय ही उसके अनिष्टकारी परिणाम आते। इसके अतिरिक्त निरन्तर राजाओं के द्वारा बौद्ध धर्म को आश्रय प्रश्रय मिलते रहने से वैदिक धर्म और भी अधिक दुर्बल हो जाता।

राजा बौद्ध धर्म का विरोधी नहीं था

वैदिक सत्य सनातन धर्म को अपना राष्ट्र धर्म घोषित करने के पीछे राजा का उद्देश्य बौद्ध धर्म का अपमान करना नहीं था ।वह युग- युगों से चली आयी उस वैदिक धर्मी राजाओं की परम्परा के एक महान शासक थे जिन्होंने सांप्रदायिक आधार पर लोगों के विरुद्ध कभी कोई ऐसा कार्य नहीं किया जिसे अनुचित कहा जा सके। यही कारण था कि राजा दाहिर सेन ने भी ऐसा कोई कार्य नहीं किया जो बौद्ध धर्मावलंबियों के विरुद्ध हो। उन्होंने अपने राज्य में बौद्धिक धर्मावलंबियों को वे सारे अधिकार प्रदान किए जो एक राजा अपनी प्रजा को स्वच्छ हृदय से प्रदान कर सकता है। बौद्ध धर्मावलंबियों को भी राजा से कभी कोई शिकायत रही हो – ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता।
अब जबकि इस्लाम भी अपनी तथाकथित सर्वोच्चता को स्थापित कराने के लिए भारत की ओर एक आंधी के रूप में बढ़ता रहा था, तब उसके प्रति राष्ट्रीय एकता का समर्पण भाव प्रकट करना सभी के लिए बहुत आवश्यक था। इस्लाम के बारे में हमें यह समझ लेना चाहिए कि “इस्लाम के धर्मांतरण के मुख्य साधन थे मृत्यु, भय, परिवार को गुलाम बनाए जाने का भय, आर्थिक लोभ (पारितोषिक, पेंशन, लूट का माल) धर्मान्तरित होने वालों के पैतृक धर्म में प्रचलित अंधविश्वास और अंत में इस्लाम के प्रचारकों द्वारा किया गया प्रभावशाली प्रचार -( जाफर मक्की द्वारा 19 दिसंबर 1421 को लिखे गए एक पत्र से, इंडिया ऑफिस, हस्तलेख संख्या 1545)
आजकल के धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक दल और उनके नेता अमीर खुसरो को भारत के लिए बहुत बड़ा वरदान मानते हैं और भारत की तथाकथित ‘गंगा जमुनी’ संस्कृति को बनाने में उसके योगदान को बढ़ा चढ़ाकर प्रस्तुत करते हैं । जबकि अमीर खुसरो वह व्यक्ति था ,जिसने लिखा है कि :-

“जहां रा कदीम आमद ई रस्मो पेश:
कि हिंदू बुवद सैदे तुर्का हमेश: अजी बेह मद

निस्बत ए तुर्की हिंदू
कि तुर्कअस्त चूँ शेर हिंदू चु आहू
जे रस्मे कि रफतस्त चर्खे रवां रा
बुजूद अज पये तुर्क शुदम हिन्दुआरा
कि तुर्क अस्त ग़ालिब बरेशां चूँ कोशद
कि हम गीरदो हम खरद फ़रोशद।”

” संसार का यह नियम अनादि काल से चला आ रहा है कि हिन्दू सदा तुर्कों का शिकार रहा है। तुर्क और हिन्दू का सम्बन्ध इससे बेहतर नहीं कहा जा सकता कि तुर्क शेर के समान है और हिन्दू हिरण के समान। आकाश की गर्दिश से यह परंपरा बनी हुई है कि हिन्दुओं का अस्तित्व तुर्कों के लिए ही है, क्योंकि तुर्क हमेशा गालिब होता है और यदि वह जरा भी प्रयत्न करे तो हिन्दू को जब चाहे पकड़े खरीदे या बेचे।”

राजा ने गंभीर चुनौती को किया स्वीकार

जिस समय की हम बात कर रहे हैं उस समय भी इस्लाम का चिंतन यही था और आज जब हम इस लेख को लिख रहे हैं तब भी उसका चिंतन यही है। राजा दाहिर सेन ने और उनके समकालीन हिंदू योद्धाओं ने इस्लाम के इस सच को समझ लिया था।
राजा दाहिर सेन के सिंहासनारोहण के समय की परिस्थितियों पर विचार करते समय हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि राजा के लिए देश की भीतरी चुनौतियों से अधिक बड़ी और गंभीर चुनौती विदेशी इस्लामिक आक्रमणकारियों की यह सोच थी। देशभक्त राजा ने इस चुनौती को स्वीकार किया। उस समय भारत देश के लिए खड़ी इस महान विपदा और चुनौती का जितना अधिक गंभीर विश्लेषण किया जाएगा, जितना ही से अधिक समझा जाएगा, उतना ही हम अपने इतिहास नायक राजा दाहिर सेन को समझने में सफल हो पाएंगे। विदेशी इतिहासकारों ने इस्लामिक आक्रमणकारियों को देश के लिए एक चुनौती नहीं दिखाया है अपितु उन्हें इस प्रकार दिखाया है कि जैसे वे भारत का उद्धार और सुधार करने के लिए इधर आ रहे थे और भारत के मूर्ख राजा या अज्ञानी प्रजाजन उनका विरोध करके बहुत बड़ी गलती कर रहे थे। भेड़ियों की कोई संस्कृति नहीं होती संस्कृति मनुष्यों की ही होती है और मनुष्य ही अपनी संस्कृति को बचाए रखने के लिए प्रयास करते हैं। भारत किसी भी प्रकार की ‘भेड़िया संस्कृति’ को अपनाने के लिए तैयार नहीं था । उस समय के भारत और भारत के नेताओं के बारे में यदि विचार किया जाए तो वह किसी भी प्रकार की ‘गंगा जमुनी संस्कृति’ के निर्माण के लिए तैयार नहीं थे। क्योंकि वे जानते थे कि जो लोग आ रहे हैं यह कोई संस्कृति लेकर नहीं आ रहे बल्कि ‘भेड़िया भाव’ के साथ हमारी ओर बढ़ चले आ रहे हैं । इसलिए वे लोग मानव संस्कृति को बचाने के लिए कार्य कर रहे थे। हमें अपने उस समय के नेताओं और शासकों को इसी दृष्टिकोण से समझना चाहिए।
उस समय के इस्लामिक आक्रमणकारियों ने जिस तेजी के साथ भारत का धर्मांतरण किया था उस पर अपने विचार व्यक्त करते हुए पुरुषोत्तम नागेश ओक जी ‘भारतीय मुसलमानों के हिंदू पूर्वज’ नामक पुस्तक के पृष्ठ संख्या 36 पर लिखते हैं कि – “इन बलात धर्म परिवर्तित लोगों में से कुछ ऐसे भी थे जो अपनी संतानों के नाम एक लिखित अथवा अलिखित पैगाम छोड़ गए -‘हमने स्वेच्छा से अपने धर्म का त्याग नहीं किया है। यदि कभी ऐसा समय आवे जब तुम फिर अपने धर्म में वापस जा सको तो देर मत लगाना। हमारे ऊपर किए गए अत्याचारों को कभी भुलाना मत।’

दुर्बल नहीं मेरा धर्म करूं शासन को धिक्कार।
अवसर जब अनुकूल हो करना इसे स्वीकार।।

पुरुषोत्तम नागेश ओक जी ने यह बड़ी पते की बात कही है। जो लोग यह समझते हैं कि भारत के लोगों ने जब जबरन इस्लाम मत स्वीकार कर लिया तो उन्होंने अपने मूल धर्म में लौटने का कभी प्रयास नहीं किया – उनके दिमाग की नसों को खोलने के लिए यह पर्याप्त है।

(हमारी यह लेख माला मेरी पुस्तक “राष्ट्र नायक राजा दाहिर सेन” से ली गई है। जो कि डायमंड पॉकेट बुक्स द्वारा हाल ही में प्रकाशित की गई है। जिसका मूल्य ₹175 है । इसे आप सीधे हमसे या प्रकाशक महोदय से प्राप्त कर सकते हैं । प्रकाशक का नंबर 011 – 4071 2200 है ।इस पुस्तक के किसी भी अंश का उद्धरण बिना लेखक की अनुमति के लिया जाना दंडनीय अपराध है।)

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत एवं
राष्ट्रीय अध्यक्ष : भारतीय इतिहास पुनर्लेखन समिति

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