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इतिहास के पन्नों से स्वर्णिम इतिहास

राष्ट्रनायक राजा दाहिर सेन और तत्कालीन भारत – एक मेरी आने वाली पुस्तक : ”राष्ट्र नायक राजा दाहिर सेन” – का लेखकीय निवेदन

 

अब अनेकों शोध पत्रों से यह बात पूर्णत: सिद्ध हो चुकी है कि अरब का मूल स्वरूप वैदिक रहा है । मोहम्मद साहब ने अपने जीवन काल में जब इस्लाम की स्थापना की तो उन्होंने अरब के पुराने हिन्दू स्वरूप को मिटाने का आदेश दिया। जिससे वे प्रतीक समाप्त करने की प्रक्रिया आरम्भ हुई जो अरब को भारतवर्ष के वैदिक धर्म से जोड़ते थे। इस कार्य को सिरे चढ़ाने के लिए मोहम्मद साहब के अनुयायियों ने हिन्दू धर्म से जुड़े धर्म ग्रन्थों, पाण्डुलिपियों ,मन्दिरों, विश्वविद्यालयों और पुस्तकालयों को या तो नष्ट कर दिया या जला दिया। कितने ही विद्वानों व धर्माचार्यों की निर्ममतापूर्वक हत्या कर दी गई। इसके पीछे केवल एक ही उद्देश्य था कि भारत का मूल वैदिक धर्म संसार से समाप्त हो और मोहम्मद साहब द्वारा स्थापित इस्लाम संसार का एकमात्र धर्म बने।

मजहबी अत्याचार से दुनिया गई थी कांप।
मुस्लिम मत संसार को बन गया अभिशाप।।

संसार के ज्ञान विज्ञान पुस्तकालयों और ग्रंथों का इस प्रकार विनाश करने से इस्लाम को मानने वाले लोगों की केवल साम्प्रदायिक सोच ही प्रकट नहीं होती अपितु उनके बौद्धिक ज्ञान के स्तर का भी पता चलता है । वे लोग पूर्णतया अंधकार में भटक रहे थे और उन्हें यह पता नहीं था कि जिन धर्म ग्रंथों और पुस्तकालयों को तुम जला रहे हो उससे संसार का कितना भारी अहित हो रहा है या होगा ? उन्होंने अपनी मतिमूढ़ता के चलते कुरान को ही सारे ज्ञान विज्ञान का स्रोत मान लिया। उनकी इस प्रकार की सोच से समूचे संसार का बहुत अधिक अहित हुआ है। क्योंकि इसके पश्चात बहुत से शोध अनुसंधान और आविष्कारों का क्रम अवरुद्ध हो गया।
वैदिक धर्म से सम्बन्धित ग्रन्थों, पुस्तकालयों आदि को इस्लाम के मानने वाले लोगों के द्वारा जलाने का एकमात्र कारण यह था कि उनकी यह स्पष्ट मान्यता थी कि मोहम्मद साहब ने जो भी कुछ कुरान में लिखा है, वह पूर्ण है। उससे आगे ज्ञान-विज्ञान की अब कोई आवश्यकता नहीं है। साथ ही अब तक जो पुस्तकें इलहाम के नाम पर संसार में आई हैं, वह अब सब खुदा की ओर से ही समाप्त कर दी गई हैं, इसलिए जो भी पुस्तकें इस समय संसार में हैं उन सब को जला देना या समाप्त कर देना हमारा मजहबी या दीनी दायित्व है ।
जबकि हमारे वेदों की यह मान्यता रही है कि ‘स प्रथमो बृहस्पतिश्चिकित्वान’ अर्थात परमपिता परमेश्वर बड़े-बड़े लोकलोकान्तरों का पालन करने वाला प्रथम विद्वान है, अर्थात सारा ज्ञान विज्ञान उसी में समाविष्ट है। इसी बात को ऋषि दयानन्द ने परमपिता परमेश्वर को समस्त ज्ञान-विज्ञान का आदिमूल कहकर स्पष्ट किया है। इस बात से यह स्पष्ट हो जाता है कि समस्त ज्ञान-विज्ञान के आदि मूल परमपिता परमेश्वर के द्वारा दिए गए वेद ही समस्त ज्ञान-विज्ञान के भण्डार हो सकते हैं। उससे अलग जो भी धर्म ग्रन्थ अलग-अलग मज़हबों के लोगों ने अपनाये हैं उनमें सृष्टि का समस्त ज्ञान-विज्ञान और ज्ञान, कर्म, उपासना की विद्या का समावेश नहीं है।
वैदिक संस्कृति की मान्यता है कि सत्य के अनुसन्धान के लिए या सत्य के महिमामण्डन के लिए हमें ज्ञान विज्ञान की चर्चा अर्थात शास्त्रार्थ करते रहना चाहिए।
जबकि मोहम्मद साहब द्वारा दिए गए धर्म ग्रन्थ के मानने वालों ने यह धारणा संसार में फैलाने का प्रयास किया कि इस धर्म ग्रन्थ से अलग किसी भी धार्मिक ग्रन्थ के रहने का अब कोई औचित्य नहीं है। केवल एक किताब ही सारे ज्ञान के लिए पर्याप्त है।
इस्लाम के मानने वालों की इस प्रकार की अवधारणा ने संसार से शास्त्रार्थ परम्परा को विलुप्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिससे सारे संसार में अज्ञान और पाखण्ड को प्रोत्साहन मिला।

अज्ञान और पाखंड को फैलाया सब ओर ।
ज्ञान और विज्ञान की होने ना दी भोर।।

भारत में जब वैदिक धर्म को कुछ लोगों ने अपनी निजी जागीर बना लिया तो वेद का वैज्ञानिक धर्म भी रूढ़िवादी हो चला। फलस्वरूप ऐसी परिस्थितियां बनीं कि जो दूरस्थ देश थे उनमें रहने वाले लोगों से आर्य ऋषियों का सम्पर्क टूट गया । जिससे उन दूरस्थ देशों में और भी अधिक रूढ़िवाद जड़ कर गया। एक प्रकार से उस समय सारे संसार के लिए प्रकाश का मूल स्रोत भारत ही प्रकाशहीन हो गया। जिससे सारे संसार से ज्ञान प्रकाश की बत्ती गुल हो गई। इस अज्ञानान्धकार का अरब भी शिकार हुआ। पहले से ही रूढ़िवादिता की जकड़न में फंसे अरब के लिए अब अज्ञान और पाखण्ड से बाहर निकलना दूभर हो गया था। अरब के लोगों की इस अवस्था का लाभ मोहम्मद साहब को मिला।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत एवं
राष्ट्रीय अध्यक्ष : भारतीय इतिहास पुनर्लेखन समिति

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