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हिंदू राष्ट्र ध्वजवाहक रहे हैं कश्मीर के गौरवशाली शासक

 

 

कश्मीर के गौरवशाली हिंदू इतिहास के विषय में हमने पिछले लेखों में सूक्ष्म सा प्रकाश डाला था। अब पुन: कश्मीर की उस केसर को इतिहास के गौरव पृष्ठों पर खोजने का प्रयास करते हैं, जिसकी सुगंध ने इस स्वर्गसम पवित्र पंडितों की पावन भूमि को भारतीय इतिहास के लिए श्लाघनीय कार्य करने के लिए प्रेरित और प्रोत्साहित किया। निश्चित रूप से कश्मीरी राजवंशों के गौरवमयी कृत्यों के कारण ही कश्मीर भारत का शीश बना, अर्थात भारत के गौरव का प्रतीक, भारत के भाल और सम्मान का प्रतीक। आइए, अपनी स्वतंत्रता को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए समर्पित यहां के हिंदू शासकों के सत्कृत्यों का अभिनंदन करें और उनके उत्कृष्ट पुरूषार्थ से बने स्मारकों पर श्रद्घासुमन अर्पित करें।


राजा चंद्रपीड:जिसने अरबों का मुंह मोड़ दिया था
ह्वेनसांग ने अपने यात्रा विवरणों में कश्मीर के तत्कालीन कर्कोटा राजवंश के संस्थापक राजा दुर्लभवर्धन का उल्लेख करते हुए बताया है कि वह एक शक्तिशाली राजा था और अपने राज्यारोहण (625 ई.) के पश्चात उसने अपना राज्य कश्मीर से काबुल तक विस्तृत कर लिया था। यद्यपि कन्नौज के शासक हर्षवर्धन के वर्चस्व को कश्मीर उस समय स्वीकार करता था।
इसी कर्कोटा राजवंश में चंद्रापीड नामक शासक हुआ। इतिहासकार गोपीनाथ श्रीवास्तव हमें बताते हैं कि- ‘यह राजा इतना शक्तिशाली था कि चीन का राजा भी इसकी महत्ता को स्वीकार करता था। भारत की राष्ट्रीय एकता और स्वतंत्रता के लिए यह शासक कितना संवेदनशील था? इसका अनुमान आप उसकी कार्ययोजना से लगा सकते हैं। 712 ई. में भारत पर मौहम्मद बिन कासिम आक्रमण करता है, और 713 ई. में चंद्रापीड अपने एक दूत को चीन इस आशय से भेजता है कि चीन अरब के विरूद्घ हमारी सहायता करे। राजा की कूटनीति और विवेकशीलता देखिए, चीन हमारे लिए बौद्घ होने के कारण धर्म का भाई था, इसलिए अरब वालों के विरूद्घ चीन से ऐसी सहायता मांगना राजा की सफल कूटनीति का संकेत हैं।

राजा की कूटनीति सफल रही, अरब वालों के आक्रमणों को रोकने के लिए चीन के साथ राजा चंद्रपीड सैन्य संधि करने में सफल रहा। अत: चीन की सैन्य टुकड़ियां राजा की ंसहायतार्थ कश्मीर आ धमकीं। इतिहासकार बामजई से हमें ज्ञात होता है कि चीन के सम्राट ने अपनी फौज भेजी और आक्रमणकारियों को पूर्णतया पराजित कर दिया गया। हमें इस प्रकार की सैन्य संधि की साक्षी चीन के राजवंश ‘ता अंग के  सरकारी अभिलेखों से भी मिलती है।
भारत का सिकंदर : सम्राट ललितादित्य
यूनान के पास सिकंदर है, और यदि आपने यूनान से उसका सिकंदर छीन लिया तो सच समझिये यूनान का सब कुछ मिट जाएगा। उसकी प्राचीनता,उसका सांस्कृतिक गौरव, उसका मान सम्मान सभी कुछ सिकंदर नाम के एक क्रूर और निर्दयी आक्रांता स्वभाव के धनी इस शासक  की तथाकथित विश्व-विजय में निहित है। इतिहास का बड़ा ही रोचक तथ्य है ये कि विदेशों ने अपने क्रूर, निर्भय और आक्रांता स्वभावी शासकों को भी अपनी धरोहर मानकर उन्हें ‘विश्व-धरोहर के रूप में इतिहास में स्थान दिलाया है, और हमने अपने पात्र लोगों को भी या बहुत ही मानवीय और राष्ट्रभक्त लोगों को भी इस पात्रता सूची से पीछे हटा लिया है।
सम्राट ललितादित्य हमारे लिए एक ऐसा ही नाम है जो सिकंदर से अधिक महान और पराक्रमी शासक था। नरेन्द्र सहगल अपनी पुस्तक ‘धर्मान्तरित कश्मीर में लिखते हैं:-‘ललितादित्य ने पंजाब, कन्नौज, बदखशां और पीकिंग को जीता और 12 वर्ष के पश्चात कश्मीर लौटा। ललितादित्य जब अपनी सेना के साथ पंजाब कूच कर निकला तो पंजाब की जनता ने उसके स्वागत में पलक पावड़े बिछा दिये। ….ललितादित्य ने अपने सैन्य अभियानों से बंगाल बिहार, उड़ीसा, तक अपने साम्राज्य का विस्तार किया। यह सैनिक कूच गुजरात, मालवा और मेवाड़ तक सफलतापूर्वक आगे ही आगे बढ़ता गया। ललितादित्य के इन सफल युद्घ अभियानों के कारण भारत ही नही समूचे विश्व में कश्मीर की धरती के पराक्रमी पुत्रों का नाम यशस्वी हुआ।

मुस्लिम इतिहासकार बामजई ने भी इस हिंदू शासक को ‘दयालु विजेता कहकर महिमा मंडित किया है। जबकि इतिहासकार मजूमदार हमें बताते हैं–भारत से चीन तक के कारवां मार्गों को नियंत्रित करने वाली कराकोरम पर्वत श्रंखला के सबसे अगले स्थल तक उसका साम्राज्य फेेला था। …आठवीं सदी के आरंभ से अरबों का आक्रमण काबुल घाटी को चुनौती दे रहा था। इसी समय सिन्ध की मुस्लिम शक्ति उत्तर की ओर बढ़ने के प्रयास कर रही थी। जिस समय काबुल और गांधार का शाही साम्राज्य इन आक्रमणों में व्यस्त था, ललितादित्य के लिए उत्तर दिशा में पांव जमाने का एक सुंदर अवसर था। अपनी विजयी सेना के साथ वह दर्द देश अर्थात दर्दिस्तान से तुर्किस्थान की ओर बढ़ा। असंख्य कश्मीरी भिक्षुओं तथा मध्य एशियाई नगरों के कश्मीरी लोगों के प्रयासों के फलस्वरूप पूरा क्षेत्र कश्मीरी परंपराओं तथा शिक्षा से समृद्घ था। अत: यह समझना कठिन नही है कि ललितादित्य के मार्गदर्शन में कश्मीरी सेना ने वहां सरलता से विजय प्राप्त कर ली। टैंग शासन की समाप्ति तथा भीतरी असैनिक युद्घों के कारण जिन चीनी साम्राज्य के अधीन वे आये थे वह पहले ही खण्ड खण्ड हो रहा था।
-आर.सी. मजूमदार ‘एंशिएन्ट इण्डिया पृष्ठ 383।
इतिहासकारों ने ललितादित्य के साम्राज्य की सीमा पूर्व में तिब्बत से लेकर पश्चिम में ईरान और तुर्कीस्थान तक तथा उत्तर में मध्य एशिया से लेकर दक्षिण में उड़ीसा और द्वारिका के समुद्रतटों तक मानी है। इतने बड़े साम्राज्य पर निश्चय ही गर्व किया जा सकता है।
किसी मुस्लिम शासक का इतना बड़ा राज्य नही था
देश में प्रचलित इतिहास में किसी भी मुस्लिम सुल्तान या बादशाह का इतना बड़ा साम्राज्य नही था कि वह ललितादित्य को पीछे छोड़ सके। ललितादित्य केवल सैन्य अभियानों में ही रूचि नही रखता था, अपितु उसके शासन काल में अन्य क्षेत्रों में भी उन्नति हुई। इतिहासकार बामजई हमें बताता है-‘ललितादित्य की सैनिक विजयों को उसके विभिन्न शासन कालीन वर्णन में महत्वपूर्ण स्थान मिला है। बाद के समय में भी उसे कश्मीरियों का नायक बनाया गया है। परंतु निर्माण व जनकल्याण के उसके महान कार्यों, शिक्षा के प्रति प्रेम, विद्वानों के संरक्षण और दयालु विजेता रूपी गुणों के कारण उसकी गणना कश्मीर के सबसे बड़े शासकों में होती है। ललितादित्य जैसे महान और पराक्रमी शासकों के कारण ही अरब वालों के आक्रमण रूके और देश में सदियों तक शांति व्यवस्था स्थापित रही। आप अनुमान करे कि जिस देश के शासकों का शासन ईरान और चीन तक स्थापित रहा हो, उस देश की सीमाओं पर भला कोई कैसे कुदृष्टि लगा सकता था?
सिकंदर से भी महान थे ये शासक
हमारे दिग्विजयी हिंदू सम्राट सिकंदर से भी महान थे। वस्तुत: सिकंदर में तो महानता का कोई गुण ही नही था क्योंकि वह एक उच्छ्रंखल पितृद्रोही और पितृहंता राजकुमार था, जिसका लक्ष्य विश्व में ‘जंगल राज्य की स्थापना करना था? वह विश्व को अपनी तलवार के आतंक से विजय करने चला था और जहां जहां भी गया था, वहीं वहीं उसने जनसंहार का क्रूर खेल खेला था। परंतु हमारे दिग्विजयी शासकों पर कोई शत्रु लेखक भी यह आरोप नही लगा पाया है कि उसने अपनी दिग्विजयों के समय अमुक देश में अमुक प्रकार से क्रूर जनसंहार किया था।
हमारे शासकों ने अपनी सीमाओं का विस्तार किया और विजयी देश को आध्यात्मिक ज्ञान प्रदान किया। यही कारण है कि हमारे शासकों का जहां-जहां राज्य रहा वहां-वहां के प्राचीन अभिलेखों में या साहित्य में उनके प्रति घृणा का कोई भाव नही मिलता। जैसा कि मुस्लिम शासकों के प्रति प्रत्येक देश में सामान्यत: मिला करता है।
मंदिर निर्माण की उत्कृष्ट शैली
भारत में स्थित अधिकांश किलों को तथा स्थापत्य कला की धरोहरों को मुस्लिम सुल्तानों एवं बादशाहों के नाम करने में कई इतिहासकारों ने दुर्भावनापूर्ण उत्साह से काम लिया है। इस प्रकार की मानसिकता के इतिहास लेखकों को सम्राट ललितादित्य का विशाल मार्तण्ड मंदिर अवश्य देखना चाहिए। यह मंदिर इस बात की साक्षी दे रहा है कि मुस्लिम सुल्तानों एवं बादशाहों से सदियों पूर्व भारत में स्थापत्य कला कितनी उत्कृष्ट स्तर की थी?
अपनी पुस्तक ‘ट्रांसलेशन ऑफ राजतरंगिणी में इतिहासकार स्टैन हमें बताता है-‘मार्तण्ड के भव्य मंदिर के अवशेष जिसे सम्राट ने इसी नाम के तीर्थ स्थल पर बनवाया था आज भी प्राचीन हिंदू निर्माण कला का सबसे अनूठा नमूना है। अपनी वर्तमान क्षत अवस्था में भी इन भग्नावशेषों को उनके आकार प्रकार तथा निर्माण कला संबंधी डिजाइन व सुंदरता के लिए सराहा जाता है। इतिहास लेखक यंग हसबैंड तो इस मंदिर के विषय में यहां तक कहते हैं-‘इसे विश्व के सर्वोत्कृष्ट स्थल पर बनने का गौरव प्राप्त है। पॉर्थीनान, ताजमहल, सेंटपीटर्स, एक्सक्यूरियल भवनों से भी उम्दा स्थलों पर। हम इसे शेष सभी महान भवनों का प्रतिनिधि या इनके सभी गुणों का जोड़ मान सकते हैं। ये अवशेष सज्जा और सबलता के विषय में मिस्र से और वैभव में यूनान से दूसरे नंबर पर है।….आसपास के यूनानी तर्ज के स्तंभों से मंदिर को अद्वितीय भव्यता और सौम्यता मिली है।

व्यक्ति से इतिहास बनता है और कभी-कभी इतिहास व्यक्ति को बनाता है। निस्संदेह ललितादित्य वह नाम है जिसने इतिहास बनाया और इतिहास को अपनी मुष्टि में इस प्रकार जकड़ लिया कि इतिहास ने खड़े होकर उसे नमन किया। परंतु इस देश में जब इतिहास पर विदेशी शत्रु लेखकों की कुदृष्टि पड़ी तो उन्होंने इतिहास के भव्य भवन से राजनीति के उन मार्तण्डों को सर्वप्रथम ज्योति विहीन करते करते शनै: शनै: दूर हटा दिया जिनसे भारतमाता का यह आंगन आलोकित हो रहा था। सचमुच इतिहास विद्यामार्तण्डों और राजनीति के प्रकाण्ड पंडितों का कीर्तिमान स्मारक ही तो है। पर इस देश का दुर्भाग्य रहा कि यहां इतिहास में लूट, डकैती, हत्या, बलात्कार जैसे अपराधी प्रवृत्ति के लोगों का कीर्तिमान करने के लिए इतिहास को बाध्य कर दिया गया। कदाचित उसी  सोच ने हमें जनगणमन….गाने के लिए प्रेरित किया। जिन्होंने हमारी स्वतंत्रता का हरण किया उनके लिए हम अब तक नतमस्तक होकर चरणवंदना कर रहे हैं। जबकि जिन्होंने हमारी स्वतंत्रता को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए सतत प्रयास किया उन्हें हम उपेक्षा के गहन अंधकार में स्वयं को विलीन करते जा रहे हैं।
सम्राट ललितादित्य के विषय में तभी तो एच.गोएट्ज ने लिखा है-‘मार्तण्ड मंदिर ने आगामी सदियों के लिए कश्मीरी हिंदू कला का एक आदर्श स्थापित कर दिया। इस प्रकार ललितादित्य को न केवल लघु स्थायी सम्राज्य का संस्थापक समझा जाना चाहिए, अपितु उसे कश्मीर हिंदू कला की छह शताब्दियों का भी संस्थापक माना जाना चाहिए।
राजा दाहर का वह पत्र
सम्राट ललितादित्य का सम्मान सभी देसी विदेशी राजाओं की दृष्टि में अत्यधिक था। ‘हिस्ट्री ऑफ कश्मीर के लेखक बामजई ने लिखा है कि-‘सभी देशों के विद्वानों के प्रति ललितादित्य की अपार श्रद्घा तथा सम्मान भावना थी। विद्या का संरक्षक होने के कारण भारत और अन्य देशों के अनेक विद्वान उसके दरबार में आते थे। यशोवर्मन की पराजय के उपरांत वह कन्नौज से भवभूति और पक्षपति राज नामक दो विख्यात कवियों को कश्मीर की राजधानी में यथोचित सम्मान देने के लिए ले आया।
ललितादित्य मुक्तापीड के सफल अभियानों का उल्लेख सिंध के शासक दाहर द्वारा प्रथम मुस्लिम आक्रांता मौहम्मद बिन कासिम को लिखे गये पत्र में यों मिलता है-‘अगर मैंने तुम्हारे विरूद्घ कश्मीर के राजा को भेजा होता, जिसकी दहलीज पर हिंद के दूसरे राजाओं ने माथे रख दिये हैं, जो पूरे हिंद को हिला देता है, मकरान और तुरान देशों तक को…।
– गोपीनाथ श्रीवास्तव : ‘कश्मीर समस्या और पृष्ठभूमि।
राजा जयापीड :एक सैनिक अभियान विशेषज्ञ
कश्मीर से प्रयाग और बंगाल तक का विशाल भूभाग राजा जयापीड के अधिकार में था। इतना विशाल साम्राज्य राजा जयापीड ने सफल सैनिक अभियानों के बल पर स्थापित किया था। बंगाल पर विजय के उपरांत उसने वहां के राजा की पुत्री से विवाह किया। तदोपरांत बंगाल के शासक ने भी जयापीड के सैनिक अभियानों में अपना सहयोग दिया। बंगाल से लौटते समय कन्नौज के राजा वज्रयुद्घ ने उसे चुनौती दी तो जयापीड ने उसे भी परास्त कर दिया। तत्पश्चात वह कश्मीर पहुंचा। जहां उसकी अनुपस्थिति का लाभ उठाकर उसके बहनोई ने कश्मीर पर अधिकार कर लिया था। अत: कश्मीर पहुंचने पर अपने बहनोई के विरूद्घ सफल सैनिक कार्यवाही की और बहनोई जज्ज को अपने रास्ते से हटाकर ही सांस ली।
देववर्मन का दुर्लभ बलिदान
जयापीड ने अपने शासन काल में नेपाल पर भी चढ़ाई की। परंतु वहां वह पराजित हुआ और उसे पकड़कर किले में डाल दिया गया। तब उन्होंने शिवाजी के इतिहास को शिवाजी से सदियों पहले लिखकर इतिहास में अद्भुत साहस का कृत्य कर दिखाया। राजा ने वहां देववर्मन नाम के व्यक्ति से मित्रता की और एक दिन अपने उस अभिन्न मित्र की सहायता से राजा किले की ऊंची दीवार को लांघने में सफल हो गया।
देववर्मन को पता था कि किले की दीवार को तो लांघा जा सकता है परंतु किले के साथ लगकर बहने वाली नदी को पार करना कठिन होगा। इसलिए उस सच्चे मित्र ने अपने राष्ट्रनिर्माता मित्र जयापीड के लिए महर्षि दधीचि की भांति अपनी अस्थियों का दान देकर विश्व को बता दिया था कि युगों पुरानी दधीचि की कहानी को यहां समय आने पर बार बार दोहराया जा सकता है। इसलिए उसने नदी में कूदते ही आत्महत्या की जिससे राजा जयापीड उसकी लाश का सहारा लेकर नदी को पार कर ले। राजा ने नदी पार की और बड़ी कठिनाईयों में से निकलकर स्वदेश पहुंचा।

कठिनताओं और घोर असंभावनाओं से टक्कर लेकर उन्हें संभावनाओं में परिवर्तित कर देने का हमारा इतिहास रहा है। यहां नदियों को पार किया गया है-बगीचे बसाने के लिए, और विदेशियों ने हमारे लिए नदियां पार की हैं-बगीचे उजाड़ने के लिए। पर इतिहास तो सचमुच उन्हीं का अभिनंदन करता है जो नदियां पार करते हैं बगीचे लगाने के लिए।
देश को समृद्घि और स्थायित्व देने वाला सम्राट अवन्तिवर्मन
सम्राट हर्षवर्धन के साथ भारत से इतिहास में एक मिथक गढ़ा गया है, कि उसके पश्चात भारत में सम्राटों की परंपरा समाप्त हो गयी। परंतु मिथक तो मिथक ही होते हैं। उन्हें शूरमा सदा तोड़ते हैं और कश्मीर के एक से एक बढ़कर पराक्रमी शूरवीर देने की प्रबल इच्छा शक्ति रखने वाले सम्राटों ने इस मिथक को तोड़ा भी। ऐसे ही एक पराक्रमी और शूरवीर सम्राट का नाम हमें अवन्तिवर्मन के रूप में उपलब्ध होता है। इस सम्राट को अन्वेषी बुद्घि के स्वामी इतिहास लेखकों ने भारत में विकास, संपन्नता, समृद्घि और स्थायित्व देने वाला सम्राट मानकर ‘कर्मयोगी सम्राट के रूप में अभिनंदित और अभिषिक्त किया है। इस सम्राट ने कश्मीर में आने वाली बाढ़ों एवं प्राकृतिक प्रकोपों से जनता को बचाने के लिए अपने एक कुशल अभियंता सुय्या के मस्तिष्क का प्रयोग किया और ऐसी बाढ़ों एवं प्राकृतिक प्रकोपों का सटीक समाधान खोजकर जनता की बहुत बड़ी सेवा की। नदियों के मार्ग को कई बार कटकर गिरे पर्वत परिवर्तित कर दिया करते थे, जिससे अवांछित बाढ़ों का प्रकोप जनता को झेलना पड़ता था। सम्राट ने इस समस्या का स्थायी समाधान किया।
डलझील के पास सूरशिव मंदिर इसी सम्राट के शूर नामक प्रधानमंत्री ने बनवाया था, जबकि अवन्तीश्वर और ‘अवन्तिस्वामिन मंदिर एवं सम्राट ने बनवाये थे। ये दोनों मंदिर पहलगाम में हैं।
अंग्रेज इतिहासकार ‘पर्सी ब्राउन ने लिखा है-जबकि मार्तण्ड उस आकस्मिक वैभव की अभिव्यक्ति था, जब कश्मीर ने अपनी शक्ति की चेतना को पुनर्स्थापित कर लिया था। अवन्ति स्वामिन मंदिर और भी अधिक सुरूचि पूर्ण भवन है, जो समय बीतने के साथ अनुभव की परिपक्वता द्वारा निर्मित हुआ है।
अवन्तिवर्मन ने 28 वर्ष तक शासन किया था। इस राजा के शासनकाल में कई विद्रोह भी हुए, परंतु उसने उन विद्रोहों का भी सफलतापूर्वक दमन कर दिया था।
जम्मू कश्मीर के पूर्व राज्यपाल जगमोहन ने अपनी पुस्तक में सम्राट अवन्तिवर्मन की प्रशंसा में लिखा है-‘सभी दृष्टिकोणों से अवन्तिवर्मन का काल कश्मीर के इतिहास का वैभव पूर्ण समय था। वहां तब शांति, विकास और न्याय था, राजा और उसके मंत्रियों में आपसी साझेदारी थी। वहंा धर्मपरायणता और प्रकृति के संरक्षण के प्रति जागरूकता थी और था धर्म, कला तथा संस्कृति के उच्च आदर्शों के प्रति लगाव। राजा की धार्मिक प्रवृति इस तथ्य से ज्ञात होती है कि वह रोग शैय्या पर पड़ा पड़ा भी भगवदगीता का पाठ सुना करता था।
कुल वृद्घ और राष्ट्रवृद्घ का दायित्व
भीष्म पितामह युधिष्ठर को उपदेश देते हुए महाभारत में कहते हैं-‘जब गणों में फूट या भेद उत्पन्न होने लगे तो समझदार व्यक्तियों को तुरंत ही उसे रोक देना चाहिए। जब कुलों में कलह उत्पन्न हो और कुलवृद्घ उनकी उपेक्षा करे तो ये कलह गण में फूट उत्पन्न करने वाले होते हैं और कुलों का ही नाश कर देते हैं। गणों के लिए अभ्यन्तर भय ही महत्व का है बाह्य भय नि:सार है। आभ्यन्तर भय ही उनकी जड़ों को काटने वाला होता है।
यहां भीष्म युधिष्ठर को बता रहे हैं कि कुलवृद्घों का यह कर्त्तव्य था कि वे अपने-अपने पुत्रों को वश में रखते मर्यादा में रखते। पुत्रों की वाणी का रस भंग हो गया तो कुलनाश से राष्ट्रनाश तक का दु:खद वृतान्त हमने देख लिया।

पुत्रों की कष्ट पूर्ण वाणी और अमर्यादित आचरण से कुलों का नाश हो जाता है विशेषत: तब जब कोई कुलवृद्घ पिता अपने पुत्र के व्यवहार को नियंत्रित न  रख सके। इसी प्रकार जब कोई राष्ट्रवृद्घ (राजा) अपने गणों (प्रांतों पर) पर जब नियंत्रण स्थापित करने में असमर्थ हो जाता है तो राष्ट्र का भी नाश हो जाता है। इसीलिए सम्राट परंपरा का विकास हमने किया था, ताकि एक राष्ट्रवृद्घ न्यायप्रिय राजा सभी के ऊपर हो। यह सुखद तथ्य है कि कश्मीर के इन राजाओं ने इस परंपरा को स्थापित रखा, जिसने राष्ट्रीय एकता को बनाये रखने में तथा इसकी स्वतंत्रता को अक्षुण्ण रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

 

डॉ राकेश कुमार आर्य

संपादक उगता भारत

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